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चौरी चौरा के 100साल

चौरी चौरा के 100साल
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प्रेम शंकर मिश्र ..

"1 अगस्त 1920 को महात्मा गांधी ने देश भर में असहयोग आंदोलन की शुरुआत की। इस आंदोलन का सिद्धांत शांति, अहिंसा और असहयोग था। पूरे देश में इस आंदोलन को व्यापक समर्थन मिला।

गोरखपुर के पास चौरी-चौरा नामक जगह पर 1 फरवरी 1922 को भगवान नाम के एक वालंटियर के नेतृत्व में एक जत्था स्थानीय बाज़ार में शराब और विदेशी कपड़ों की पिकेटिंग करने के लिए जुलूस निकाल रहा था। उस समय चौरी-चौरा ब्रिटिश कपड़ों और अन्य वस्तुओं की बड़ी मंडी हुआ करता था और यह बाज़ार पास के किसी जमींदार का था। वह भाग कर थाने गया और थानेदार गुप्तेश्वर सिंह से प्रदर्शन ख़त्म कराने को कहा। गुप्तेश्वर अपने सिपाहियों के साथ पहुंचा और भगवान् सहित सभी प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज कर दिया।

लाठी चार्ज से आक्रोशित सत्याग्रही 4 फरवरी 1922 को दुबारा प्रदर्शन निकालने लगे। इस बार यह प्रदर्शन ज़्यादा बड़ा था। सत्याग्रही चौरी-चौरा के भोपा बाजार में इकट्ठे हुए और जुलूस निकालने लगे। जैसे ही जुलूस चौरी-चौरा थाने के सामने से गुज़रा, थानेदार गुप्तेश्वर ने जुलूस को अवैध कहते हुए रोकने के कोशिश की। सिपाही वालन्टियर्स को पकड़ने लगे और इसी क्रम में एक सिपाही गांधी टोपी को पांव से रौंदने लगा। यह देखते ही सत्याग्रही आक्रोशित हो गए। पुलिस ने जुलूस पर फायरिंग शुरू कर दी जिसमें 11 सत्याग्रही मौके पर ही शहीद हो गए जबकि 50 से ज़्यादा घायल हो गए। गोली खत्म होने पर पुलिसकर्मी भागकर थाने में छुप गये। फ़ायरिंग से भड़की भीड़ ने उन्हें दौड़ा लिया। पास की ही एक दुकान से एक टीना केरोसीन तेल उठा लिया। मूंज और सरपत का बोझा थाना परिसर में बिछाकर उस पर केरोसीन उड़ेलकर आग लगा दी। थानेदार ने भागने की कोशिश की तो भीड़ ने उसे पकड़कर आग में फेंक दिया। इस काण्ड में एक सिपाही भाग निकला और झंगहा पहुंच कर गोरखपुर के तत्कालीन कलेक्टर को उसने घटना की सूचना दी। अग्निकांड में जलकर 23 पुलिसवालों की मौत हो गयी।

गोरखपुर की डिस्ट्रिक्ट कांग्रेस कमेटी के उपसभापति प. दशरथ प्रसाद द्विवेदी ने घटना की सूचना गांधी जी को चिट्ठी लिखकर दी। इस घटना को हिंसक मानते हुए गांधी जी ने पूर्णतया सफल असहयोग आंदोलन को भी तत्काल स्थगित कर दिया। इस पर प्रबुद्ध लोगों तक ने उनकी घनघोर आलोचना की। लेकिन गांधी जानते थे कि भीड़ द्वारा हिंसा चाहे किसी भी परिस्थिति में या किसी भी उद्देश्य से की गई हो, उसे न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि इसका दूरगामी असर समाज में हिंसक भीड़-न्याय की वैधता स्थापित होने के रूप में ही होता है।

इस अग्नि कांड के लिए जिम्मेदार 221 लोगों को पुलिस ने अभियुक्त बनाया। गोरखपुर सेशन्स कोर्ट के जस्टिस H E HOLMS ने 9 जनवरी 1923 को 418 पेज के निर्णय में 172 लोगों को फाँसी की सज़ा सुनाई और 47 को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया। गोरखपुर की डिस्ट्रिक्ट कांग्रेस कमेटी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की जिसकी पैरवी पं. मदन मोहन मालवीय ने की। हाईकोर्ट का फैसला 30 अप्रैल 1923 को आया जिसमें 19 अभियुक्तों को मृत्युदण्ड मिला और उन्हें 2 जुलाई 1923 को फांसी दे दी गई। 16 लोगों को काला पानी की सज़ा हुई। कुछ लोगों को छोटी-छोटी सज़ा हुई और बाक़ी 38 लोगों को छोड़ दिया गया।

चौरी-चौरा की पूर्ववर्ती घटनाओं पर भले ही गांधी के अहिंसक आंदोलन की प्रतिछाया अधिक है किन्तु 4 फरवरी 1922 की घटना पर 1857 के ग़दर की ही प्रतिछाया रही। क्योंकि 1857 के ग़दर के दौरान भी गोरखपुर के साथ-साथ पूर्वी उत्तर-प्रदेश का ये क्षेत्र उबाल पर था। 1857 से लेकर 1942 तक (देवरिया के बरहज में 14 अगस्त 1942 को जगन्नाथ मल्ल और विश्वनाथ मिश्र अंग्रेज़ अधिकारी कैप्टन मूर की गोलियों से शहीद हुए थे), यहाँ ऐसे तमाम छोटे-छोटे किस्से बिखरे पड़े हैं जिनमें गोरखपुर और आसपास के इलाके में अंग्रेज़ी अत्याचार और स्थानीय नायकों की शहादतों का गुणगान है।"

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