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सहिष्णुता के नाम पर अन्याय का प्रतिरोध न करना अधर्म है

सहिष्णुता के नाम पर अन्याय का प्रतिरोध न करना अधर्म है
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कभी कभी मुझे लगता है जैसे युगों युगों से श्रीमद्भगवतगीता को पढ़ने-समझने वाली सनातन सभ्यता के लोग भगवान श्रीकृष्ण के उत्तर को नहीं, बल्कि अर्जुन के प्रश्नों को अधिक याद रखते हैं। जैसे हर व्यक्ति कुरुक्षेत्र के मध्य में खड़े होकर शस्त्र त्याग रहा हो।

अर्जुन के प्रश्न वस्तुतः एक मोहग्रस्त व्यक्ति की दुर्बलता थे। वे देख रहे थे कि जिन योद्धाओं को वे अपना बन्धु-बांधव, गुरु, सम्बन्धी, पितामह आदि समझ कर शस्त्र त्याग रहे थे, वे सब अपने हाथों में अपने शस्त्र ले कर खड़े थे। दुर्योधन की सेना में खड़ा हर योद्धा पांडवों के वध के निमित्त ही आया था। फिर जो शत्रु हमारे सामने शस्त्र ले कर हमारा वध करने के लिए आया हो, उसे अपना समझना दुर्बलता नहीं तो और क्या है?

अर्जुन की यह दुर्बलता सज्जनता की दुर्बलता है। विडम्बना ही है कि ऐसा मोह सज्जनों के अंदर ही उत्पन्न होता है। दुर्जन अपने लक्ष्य के प्रति अडिग होते हैं, उन्हें कोई मोह नहीं रोक पाता। वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हर अनैतिक कार्य कर देते हैं।

हम अपने दैनिक जीवन को ध्यान से देखें तो पाएंगे कि कई बार हम ऐसी दुर्बलता दिखाते हुए विविध विषयों पर यह सोच कर चुप्पी साध लेते हैं कि इससे मुझे क्या? इसने मुझे तो चोट नहीं दी... इसका उत्तर देना मेरा काम नहीं, हम राज के नियमों के विरुद्ध कैसे जा सकते हैं... हम हर बार अर्जुन की तरह शस्त्र त्याग देते हैं कि हम सहिष्णु हैं, हमें शांत रहना है, हमें युद्ध नहीं करना...

सच यह है कि सहिष्णुता के नाम पर अन्याय का प्रतिरोध न करना अधर्म है, ढोंग है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यही कहा था कि हम किसी अन्यायी, अत्याचारी को केवल इसलिए क्षमा नहीं कर सकते कि वह हमारा अपना है, सम्बन्धी है, पड़ोसी है... नहीं! अन्यायी का प्रतिरोध होना ही चाहिए, उसे उसकी करनी का दंड मिलना ही चाहिए।

शास्त्र कहते हैं कि कभी अपात्र को दान नहीं देना चाहिए, फिर किसी अपात्र को क्षमादान कैसे दिया जा सकता है? अपात्र को क्षमा करना भी अधर्म की श्रेणी में ही आता है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने युग के किसी भी अपराधी को क्षमा नहीं किया। न कंस को, न पूतना को, न कौरवों को, न शिशुपाल को। यहां तक कि भीष्म और द्रोण को भी नहीं, अर्जुन और युद्धिष्ठर को भी नहीं... और तो और, भगवान श्रीकृष्ण ने अंत में अपने ही हाथों अपने नाती-पोतों को भी दंडित किया। यही धर्म है, जिसकी स्थापना के लिए श्रीकृष्ण आये थे।

भारत को अर्जुन के प्रश्न नहीं, कृष्ण के उत्तर याद रखने होंगे।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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