किसान आंदोलन : असहमति से आक्रोश तक

डॉ अजीत कुमार दीक्षित, प्रभारी समाजशास्त्र विभाग एम.एच.पी.जी कॉलेज मुरादाबाद
'जय जवान जय किसान' सूत्र वाक्य के साथ समृद्धि की गाथा लिखने वाले विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में यह लोकतंत्र की बदहाली ही है कि अन्नदाता महीनों से चीख पुकार कर रहे हैं और राष्ट्र नायक मन की बात करने में तथा दायरे में सीमित होकर बात करने पर फोकस करते हुए चुनावों मे व्यस्त थे । सरकारी तंत्र के सामने बदहाल अन्नदाता अपना हाल बताना चाहते थे तो उन्हें समय नहीं दिया गया और अब जब उनका आक्रोश चरम पर पहुंच गया है तो सरकार कुछ रियायतों के साथ तथा उनके विपक्ष में आरोपों के आलोक में जनमत तैयार करके झुकाने पर आमादा है। वैसे तो राज्यों के धुरंधर मुख्यमंत्री तथा गृहमंत्री और कद्दावर नेता तक हैदराबाद के निकाय चुनाव जैसे स्थानीय चुनावों में प्रचार करने पहुंच जाते हैं परंतु देश की लगभग 70 फीसदी आबादी से जुड़े हुए प्रश्नों को लेकर चालू आंदोलन में पहुंचने का रत्ती भर भी समय नहीं निकाल पाए । वर्तमान किसान आंदोलन जिस की धमक राष्ट्र के बाहर कनाडा और ब्रिटेन जैसे देशों में महसूस की जा सकती है किंतु अपने ही देश में मतों के बीच झूलता दिखाई पड़ रहा है जिसे राजनीति का लबादा शनै- शनै अपनी जद में लेता जा रहा है। सरकार को यह समझना होगा कि हर विरोध के केंद्र में विपक्षी दल ही नहीं होते बल्कि वास्तविक वंचना भी हो सकती हैं तथा असहमति विरोध एवं मांग लोकतंत्र के मुख्य आधार हैं जो वर्तमान किसान आंदोलन की मुख्य नींव है । किसान आंदोलन जो एमएसपी की गारंटी की मांग से शुरू हुआ था आज तीनों कृषि विधेयकों की वापसी की मांग पर टिक चुका है परंतु सरकार के रवैया से स्पष्ट है कि वह कानून वापस नहीं करेगी जिससे टकराव की विषम स्थिति उत्पन्न हो गई है । यदि किसान आंदोलन लंबा खिंचता है तो किसान तो बेहाल होंगे ही साथ ही आम आदमी की लुटिया डूबने से भी कोई नहीं रोक सकता।
देश के लगभग 86 फ़ीसदी किसान छोटे या लघु भूस्वामी किसान हैं जिनपर एमएसपी का प्रत्यक्ष प्रभाव है क्योंकि इनकी संपत्ति इतनी नहीं होती कि वह अनाज स्टोर कर सकें, वह अपनी आवश्यकता की पूर्ति करके बाकी फसल तुरंत बेचते हैं जिससे आगामी फसल में पैसा लगा सकें तथा मजदूरी आदि का खर्चा निकाल सकें। फसलों की कीमत अस्थिर होने से उनकी व्यवस्था भी चरमरा जाएगी। किसान को कहीं पर भी फसल बेचने की सुविधा पहले भी थी और वर्तमान कृषि विधेयक में भी स्वतंत्रता दी गई है किंतु छोटे किसान अपनी फसल बेचने के लिए व्यापारियों पर ही निर्भर हैं क्योंकि उनके ट्रांसपोर्टेशन का खर्च उठाना उनके बस की बात न थी और न है अर्थात हमेशा लड्डू सीधे व्यापारी के मुंह में। हां यदि केंद्र सरकार राज्यों को अन्य राज्यों में खरीद करने के लिए प्रोत्साहित करें और वह किसानों का माल सीधे उनसे खरीद कर अपने यहां लाएं तो शायद तस्वीर और उजली हो सकती है। आवश्यक वस्तु भंडार अधिनियम के अंतर्गत आवश्यक वस्तुओं के भंडारण की सीमा खत्म करने से पूंजीपति मजबूत होंगे क्योंकि वे किसानों से फसल औने - पौने दाम पर खरीद कर भंडारण कर महंगे दामों में बेचेंगे इसलिए नए कानून से ज्यादा फायदा किसानों को नहीं पूंजीपतियों को अधिक होने का अंदेशा है तथा कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से भी फायदा पूंजीवादी ही उठाएंगे क्योंकि किसान न तो अधिक शिक्षित हैं और न ही संसाधनपूर्ण, वह अपने तात्कालिक फायदे को देखेंगे न की दूरगामी परिणाम जिससे पूंजीपति मनचाही फसलें उनसे उगावयेंगे और अपनी झोली भरेंगे जैसे किसान से कुछ पैसे के आलू खरीदकर पूंजीपति कई रुपयों का चिप्स हवा फुला कर बेचते हैं या कम्पनियां कुछ रुपए का मक्का बाजार में सैकड़ों रुपए में बेचती है जिससे अतिरिक्त पूंजी के भंडारण से वे अमीर से और अधिक अमीर बनते जा रहे हैं और किसानों की आय दुगनी होना एक दिवास्वप्न बनकर रह गया नये कृषि क़ानून के प्रभाव से आने वाली स्थिति और भी भयावह होने की संभावना है ।
सदियों से किसान आंदोलन नेतृत्व की समस्या से जूझते रहे हैं। चौधरी चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत के पश्चात शायद ही कोई ऐसा किसान नेता रहा हो जिसके किसान मुद्दे पर हुंकार भरने मात्र से सरकार थर्रा जाती हो, जिनकी एक पुकार पर लाखों किसान लामबंद हो सड़कों पर उतर आयें। वर्तमान किसान आंदोलन भी संगठित एकल नेतृत्व की समस्या से जूझ रहा है जिसे विपक्षी दलों के नेता या स्वार्थी लोग हड़पने की फिराक में दिख रहे हैं। किसान आंदोलन गैर राजनीतिक मुद्दे से जुड़ा किसानों के भविष्य के लिए आंदोलन है जिसे किसी राजनीतिक दल विशेष से जोड़ना उचित नहीं है । किसान परेशान हैं तथा तीनों कृषि बिलों को लेकर अपने भविष्य के लिए चिंतित हैं। सरकार अपने मत को लेकर अड़ियल रुख बनाए हुए थी और किसानों की बदहाली का जिक्र मात्र तक सुनने के लिए तैयार नहीं थी परंतु अपने कृषि कानूनों का बखान इस कदर कर रही हैं जैसे वह किसानों की तंगहाली, बदहाली और अभाव का रामबाण इलाज लेकर आई हो। बढ़ते जनाक्रोश को देखते हुए सरकार बातचीत को तो तैयार हुई किंतु अपनी शर्तों पर जिसका ही नतीजा है की कई दौर की बातचीत असफल रही। किसान वर्तमान की समस्या से दो-चार हो रहे हैं और भविष्य की समस्याओं को लेकर अत्यंत चिंताजनक हैं पर शीर्ष नेता से लेकर छोटे भैया तक किसान आंदोलन को विपक्ष का षड्यंत्र घोषित करने मे अजब सी शांति महसूस कर रहे हैं और अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ते दिख रहे हैं। यदि किसान वास्तविकता में परेशान नहीं है तो लाखों किसानों की भीड़ एकत्रित क्यों हैं? क्या सरकार ने कोई ऐसा आयोग या पैनल गठित करने का प्रयास किया जो कृषि कानूनों के प्रभाव का अध्ययन कर सके ? या कोई ऐसा पायलट प्रोजेक्ट लाने का प्रयास किया जिसके तहत किसान कानूनों का प्रभाव जाना जा सके ? नहीं, बस आनन-फानन में तीनों किसान बिलो को पारित कर दिया गया और सुरू हुआ उनके गुणगान का सिलसिलेवार बखान। सैद्धांतिकता एवं व्यवहारिकता मे जमीन आसमान का अंतर है सरकार के द्वारा सिर्फ कहने मात्र से काम नहीं चलने वाला कि खाद्यान्नों का भंडारण पूंजीपतियों के हाथों तक सीमित होकर नहीं रह जाएगा या एमएसपी पर सरकारी गारंटी भविष्य में पूंजी पतियों के हाथों का खिलौना होकर नहीं रह जाएगा। संघर्षों एवं समस्याओं के बादलों की बारिश में किसान लगातार भीग रहा है किंतु सरकार बरसाती तो दूर सीधे मुंह बात करने तक को तैयार नहीं है। मार्क्स जैसे विद्वान जब किसानों को आलू के बोरे की संज्ञा देते हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं लगती क्योंकि किसान स्वयं के लिए वर्ग कभी नहीं बन पाए एवं वर्तमान किसान आंदोलन में इसका नजारा खूब अच्छी तरह देखा जा सकता है जब सरकारी मुलाजिमों से भेंट करने के लिए दर्ज़नों किसान संगठनों के प्रतिनिधि पहुंचे। जाहिर सी बात है देश में किसानों के लिए और किसानों के मुद्दों पर एक राय, एकमत और एक संगठन का अकाल पड़ा है। मत विभाजित होने के बावजूद मुद्दा एक ही है जिसकी परिणत भारत बंद के रूप में देखने को मिली। यद्यपि भारत बंद का आवाहन पूर्णतया सफल न होकर कहीं सफल तो कहीं आंशिक ही सफल रहा किन्तु उससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह रही कि उनका इस बात की चेतना से रूबरू होना अधिक महत्वपूर्ण रहा कि भारत बंद करने की क्षमता किसानों में है और जनमत भी काफी हद तक उनके साथ है । किसान देर से ही सही किंतु अपनी वास्तविक स्थिति और अधिकारों के प्रति सजग हो रहे हैं जिन्हें अधिक देर तक टाला जाना न तो सरकार के हित में होगा और न ही राष्ट्रहित में।