लोकतंत्र : एक धागा एक विद्वान बोले हैं।

उमंग मिश्रा....कानपुर,उत्तरप्रदेश
"भारत में ज़्यादा ही लोकतंत्र है इसलिए सुधार नहीं हो पाते।"
तानाशाही से ज़्यादा खतरनाक वो मानसिकता होती है, जो लोकतंत्र के विरोध में बनाई जाती है।
आर्थिक सुधार से ज़्यादा कीमती लोकतंत्र है।सुधार वक़्त की ज़रूरत हो सकता है,लोकतंत्र सदैव ज़रूरी।
सबसे पहले एक कड़वी बात समझ लीजिए.कोई भी राजनीतिक दल लोकतांत्रिक सोच नहीं रखता।
इनका उद्देश्य लोकतंत्र द्वारा प्रदत्त प्रक्रिया का प्रयोग करके सत्ता प्राप्त करना है।सत्ता मिलने के बाद सभी दल तानाशाही से ही काम करना चाहते हैं।इसलिए मुद्दों के आधार पर समर्थन और विरोध कीजिए।
लड़ाई इंसान को भेड़ बनाने की कोशिश और ऐसा रोकने की है।सरकारों को तानाशाही से रोकना नागरिक अधिकारों की रक्षा है।
किसी दल को ये अधिकार मत दीजिए कि वो लोकतंत्र को चोट पहुंचा सके।सरकार बनाने के बाद उससे सवाल पूछते रहिए,पूछने वालों का विरोध करके आप अपने अधिकारों की लूट का साथ देते हैं।
लोकतंत्र में विश्वास राष्ट्रीय आंदोलन के नायकों को था, संविधान निर्माताओं को था।
आज के राजनेताओं को लोकतंत्र का अपहरण मत करने दीजिए। "उन्होंने भी तो किया था" सबसे बड़ा ज़हर है जिसके जरिए नेता अपने गुनाह छिपाते हैं। कहिए उन्होंने किया गलत था, आप भी करेंगे तो उतना ही गलत होगा।
एक नागरिक का परम कर्तव्य है, कि वो लोकतंत्र को अपने पसंद के दल की सरकार से बचाए।
जो पसंद नहीं है, उसका तो आप वैसे भी विरोध करने को तैयार बैठे हैं।
लोकतंत्र की रक्षा संस्थाओं के स्वतंत्र होने से होती है। संस्थाओं पर नियंत्रण की हर कोशिश का विरोध बिना पार्टी देखे होना चाहिए।
सरकार 5 साल शासन करने के लिए चुनी जाती है। किसी सरकार को ये अधिकार नहीं होना चाहिए कि वो वर्तमान बहुमत का फायदा उठा कर ऐसे काम करे जिससे शासन,प्रशासन, समाज का दीर्घकालीन नुकसान हो। जो ये समझाए कि लोकतांत्रिक सोच से काम नहीं चलता वो आपको मूर्ख बना रहा है।
सरकार चुनिए पोप नहीं। रही बात विचारधारा की तो वो जनता की होती है,
राजनीतिक दल सिर्फ उसका उपयोग करते हैं। कोई दल ऐसा नहीं जिसने उस विचारधारा का उल्लंघन न किया हो जिसका झंडा उठाए वो घूमता है।स्व. राम विलास पासवान जी से एक बार 1990 में एक पत्रकार ने पूछा था कि आपका लक्ष्य क्या है। उनका उत्तर था सत्ता।
पासवान जी ने कहा था हम संन्यासियों की जमात नहीं सत्ता के लिए राजनीति करते हैं।
आज भी यहां कोई संत नहीं बैठा है। इसलिए नेताओं और दलों के अंध समर्थक / अन्धविरोधी बनना छोड़ उनसे हिसाब मांगा कीजिए। आपने उन्हें कुर्सी पर बैठाया है वो कोई अहसान नहीं कर रहे जो आप उनकी तानाशाही झेलेंगे।
विधायिका / कार्यपालिका के भरोसे लोकतंत्र नहीं छोड़ा जा सकता। वो उसकी आत्मा की हत्या को तैयार मिलेंगे।स्वतंत्र न्यायपालिका / मीडिया तानाशाही की राह में बाधक हैं।सत्ता जब ताकतवर होती है वो इनके नियंत्रण का प्रयास करती है।
लोकतंत्र की रक्षा इन्हें बचा कर ही हो सकती है। इनकी टोह लेते रहें। लोकतंत्र की रक्षा किसी सिद्धांत की रक्षा मात्र नहीं है।
ये सम्मानजनक जीवन, अन्याय से सुरक्षा और नागरिक के अधिकारों को सुनिश्चित करने की व्यवस्था है जहां आम नागरिक की सुनवाई हो, उसे प्रतिकार का अधिकार हो। लोकतंत्र बचाने की चिंता आपके, हमारे, हर नागरिक के अधिकारों की चिंता है।
सबसे खतरनाक वो साजिश होती है जब इंसान उसके ही अधिकारों के लिए लड़ने वाले को अपना दुश्मन मान लेता है।
लोकतंत्र एक नागरिक की सबसे बड़ी ताकत है। लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव नहीं,चुनाव जीतने वाले पर लगाम का इंतज़ाम भी है।
इसके खिलाफ किए जाने वाले दुष्प्रचार से सावधान।