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चुनाव बीत गया, आदमी नहीं रह गया था, बाभन-ठाकुर, हरिजन, यादव, कुर्मी, पासवान हो गया था

चुनाव बीत गया, आदमी नहीं रह गया था, बाभन-ठाकुर, हरिजन, यादव, कुर्मी, पासवान हो गया था
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और इस तरह हमारे यहाँ चुनाव बीत गया। जैसे लोगों के माथे से एक बहुत बड़ा बोझ उतर गया...

पिछले तीन महीने से आदमी, आदमी नहीं रह गया था, बाभन-ठाकुर, हरिजन, यादव, कुर्मी, पासवान हो गया था। अब धीरे धीरे फिर लोग मनुष्य हो जाएंगे। नशा दारू का हो, प्रेम का हो या चुनाव का, एक न एक दिन उतरता जरूर है। चुनाव का नशा भी अब तेजी से उतर रहा है।

पता नहीं यह सौभाग्य है या दुर्भाग्य, पर यूपी बिहार में अब कोई वोटर नहीं बचा! सब के सब नेता हो गए हैं। चुनाव आते ही सब गनगना जाते हैं। सभी वोट सेट करते हैं, सभी राजनीत करते हैं। मेरी जिस बूथ पर ड्यूटी थी, वहाँ मैंने एक आठ-दस साल के लड़के को कहते सुना, "सब बभना तीर के वोट दिहन स..." मेरे गाँव के भी हर बच्चे को पता है कि "मियवा सब ललटेन के वोट दिहन स..." उन्हें तेरह का पहाड़ा याद हो न हो, जाति का गणित याद है।

बच्चे भी अब बच्चे कहाँ रहे, सब स्मार्ट हो गए हैं। इस देश में कोई बच्चा रहना ही नहीं चाहता, सब जल्द से जल्द बड़े हो जाना चाहते हैं। हमने विकसित होने का यही अर्थ लगाया है कि किसी भी तरह बड़ा होना है। बड़ा नाम, बड़ा कद, बड़ी पहुँच, बड़ा घर, बड़ी गाड़ी, बड़ी सैलरी... सब बड़े होने के लिए पगला गए हैं। कुएँ में भांग पड़ी है, सब बौरा गए हैं।

पिछले तीन महीने से गाँव में हवा की जगह आग बह रही थी। सारे गंवई सम्बन्धों को झुलसा देने वाली आग... सारे लोग झुलसा हुआ बयान दे रहे थे। जिसकी कभी अपने खास भाई से नहीं बनी वह कहता फिरता था कि मोदी नफरत की राजनीत करता है। जो तीसरे क्लास में पटरी से मास्टर का सर फोड़ कर भागने के बाद फिर कभी स्कूल नहीं गया, वह लगातार ज्ञान दे रहा था कि फलनवा ने शिक्षा का नाश कर दिया। फलाना जी मुख्यमंत्री बनते ही पचास लाख रोजगार दे देंगे। सब ज्ञानी हैं, सब लड़ रहे थे।

परत की पंक्तियां हैं, " जब आलोक पाण्डेय और अरविंद सिंह चुनाव के समय गाँव को इतना तोड़ दें कि भाई-भाई में युद्ध हो जाय, पति-पत्नी अलग सोने लगें, बाप-बेटे में फूट पड़ जाय, और दो महीने बाद आलोक पाण्डेय और अरविंद सिंह एक साथ घूमने लगें तो लगता है कि साला लोकतंत्र सचमुच जीत गया है।" जब-जब चुनाव आता है, हर गाँव परत का रघुनाथपुर हो जाता है।

जानते हैं, समाज टूट जाय तो देश की कमर टूट जाती है। इस देश का दुर्भाग्य है कि देश के नाम पर होने वाला चुनाव ही हर बार समाज को तोड़ देता है। वह तो इस मिट्टी, इस सभ्यता की शक्ति है जो बार-बार टूटे हुए समाज को फिर से जोड़ लेती है, नहीं तो लोकतंत्र ने लोक की हत्या कर दी होती।

मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ दीवाली की! उस दिन जब सबकी छत पर एक ही कुम्हार के घर बने दीये जलेंगे, तो टूटा हुआ समाज तनिक जुड़ जाएगा। मैं खोज रहा हूँ फागुन का महीना, जब गाँव के लफुये भौजाइयों को देख कर फूहड़ गीत गाएंगे और बदले में गालियां खाएंगे। तब एकबार फिर गाँव मुस्कुराएगा। लोकतंत्र का फैलाया हुआ जहर फगुआ की गालियों से ही कटेगा। हाँ-हाँ! गाँव फिर मुस्कुराएगा। हम इस लोकतांत्रिक जहर से गाँव को मरने नहीं देंगे भाई...

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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