अमरोहा का प्रदूषित पर्यावरण, विलुप्त होने की कगार नीम, गाय और कौआ

12 जुलाई, 2020 से प्रारंभ कोरोना - पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान सायकिल यात्रा के तहत कानपुर, कानपुर देहात, औरैया, इटावा, मैनपुरी, कन्नौज, फर्रूखाबाद, बदायूँ, संभल, मुरादाबाद होते हुए अमरोहा पहुँचा । अमरोहा में करीब 11 दिन यात्रा रही। और 60 से अधिक गावों का भ्रमण करके लोगों को कोरोना - पर्यावरण के प्रति जागरूक किया। इस जिले के शहीदों के स्मारक स्थलों पर पहुंच कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। कल शाम को यह यात्रा रामपुर जिले में पहुंची ।
अमरोहा में अपने भ्रमण के दौरान मैंने पाया कि यहां नीम के पेड़ कम हैं । कोरोना जैसी संक्रामक बीमारियों से सुरक्षा के लिए हमारे देश के ऋषियों मुनियों ने हर घर के द्वार पर नीम के पेड़ लगाने की व्यवस्था दी थी। इसी कारण हर गांव में लगभग हर द्वार पर नीम के पेड़ पाए जाते हैं । कोरोना काल मे नीम के पेड़ों का महत्व और उपयोगिता एक बार फिर समझ मे आने लगी है। नीम के पेड़ एक ऐसा औषधीय गुणों वाला पेड़ है, जिसका हर अंश उपयोग में आता है। सुबह उठते ग्रामीण नीम की दातुन से अपना दांत साफ करते हैं। जो सिर्फ दांत ही साफ नही करता है, बल्कि अपनी एंटीबायोटिक प्रवृत्ति के कारण मुंह की तमाम बीमारियों की भी ठीक कर देती है। उसकी पत्तियां चर्म रोग होने पर उबाल कर स्नान करने के लिए उपयोग में लाई जाती हैं । उसकी छाल फोड़े फुंसी होने पर उस पर घिस कर लगाने से ठीक हो जाते हैं। फोड़े फुंसी के घाव को धोने के काम भी नीम की पत्तियों का पानी उपयोग में लाया जाता है।इसके अलावा कोरोना संक्रमण काल मे वह अपने आस पास के वातावरण को सेनिटाइज्ड भी कर देता है। जब अमरोहा में नीम के पेड़ मुझे कम और कहीं कहीं दिखाई पड़ने लगे, तो मैंने आप के जागरूकता के बाद मैंने इस संबंध में यहाँ के स्थानीय लोगों से चर्चा की, तो उन्होंने बताया कि यहां भी अभी कुछ साल पहले तक नीम के खूब पेड़ हुआ करते। लेकिन उसमें कीड़े लग गए या न जाने क्यों सभी नीम के पेड़ धीरे धीरे सूख गए। फिर मेरी जिज्ञासा और बढ़ी । मेरी आँखें अब सूखे नीम के पेड़ों की खोजने लगी। साथ ही कहीं नीम का हरा पेड़ दिख जाता, तो मैं सायकिल रोक कर उसके समीप जाकर उसका वाह्य निरीक्षण करता। मैंने पाया कि नीम के समाप्त होने का एक कारण कीड़ा भी है। अमरोहा के एक गांव में मैंने कोरोना - पर्यावरण के बारे में जागृत करने के बाद जब लोगों से चर्चा की, तो पता चला कि इस जिले में जो ओद्योगिक कारखाने लगे हैं, उनमे से कभी कभी इतनी गैस रिसती है कि हम गांव वालों को भ्रम हो जाता है कि कहीं घर का सिलिंडर खुला तो नही रह गया। उन्होंने बताया कि इन गैसों का प्रभाव 25 से 30 किलोमीटर की परिधि में है। नीम के समाप्त होने का एक कारण यह भी है। अमरोहा भ्रमण के दौरान मुझे एक कारण और दिखाई पड़ा । यहां की जलवायु में नमी बहुत है। जरा सी बारिश होने पर हर जगह काई लगी हुई दिखाई पड़ती है। नीम के समाप्त होने के पीछे वातावरण के नम होने की भी एक वजह है। एक मानवीय कारण भी इसके पीछे समझ मे आया। यहां के द्वार पर छाया के लिए लोग नीम के पेड़ के बजाय, पाकड़ का पेड़ लगाते हैं। पाकड़ का पेड़ घनी छाया देता है। और बहुत जल्द तैयार हो जाता है। इस कारण लोगों की रुचि भी नीम का पेड़ लगाने में कम दिखी। इसके अलावा भी कुछ और वैज्ञानिक कारण हो सकते हैं। इस लिहाज से इसका अध्ययनअभी जारी है ।
अमरोहा जिले में भ्रमण और संवाद के दौरान यह भी पता चला कि धीरे धीरे धीरे इस क्षेत्र में गायों की संख्या कम हो रही है। साथ ही हर वर्ष दूध देने की क्षमता में भी ह्रास हो रहा है। वैसे अमरोहा के जितने गावों में मैं गया, हर गांव में मुझे गाय तो दिखी। लेकिन हर घर में गाय नही दिखी। जब मैंने इस संबंध में लोगों से चर्चा की, तो लोगों ने बताया कि यहां के गायों को पहली बार गर्भ तो बड़ी आसानी से ठहर जाता है। लेकिन दूसरी बार उसके गर्भ ही नही ठहरता। इसकी वजह से लोगों का रुझान गो पालन की ओर कम है। इसी कारण इस क्षेत्र में गायों की संख्या कम हो रही है। दूसरा कारण लोगों ने यह बताया कि पहली बार अगर कोई गाय 10 लीटर दूध देती है। वही गाय अगर दूसरी बाद बच्चा देती है, तो उसका दूध दो से तीन लीटर कम हो जाता है। गायों के कम पालने के पीछे यह भी एक कारण है। जब इस सबंध में गो पालकों के अतिरिक्त पशु चिकिसकों से की, तो उन्होंने खेतों में डाली जाने वाली रासायनिक खादों का प्रभाव बताया।
इस बार मेरी 99 प्रतिशत यात्रा ग्रामीण इलाकों में ही हो रही है। गांव में किसी के घर के अंदर बैठने की अपेक्षा मैं किसी पेड़ के नीचे ही बैठना पसंद करता हूँ । इसके अलावा मेरी अधिकांश दोपहरिया किसी बाग में ही व्यतीत हुई। अमरोहा पेड़ पौधों की दृष्टि से बहुत ही सम्पन्न जिला है। चारो तरफ हरियाली ही हरियाली है । यात्रा के दौरान और विश्राम के दौरान पेड़ों पर चिड़िया तो दिखी। लेकिन कौआ नही दिखा । इस बात पर मेरा ध्यान तब गया, जब एक जगह मुझे कौवे की कांव कांव सुनाई पड़ी। जब इस संबंध में मैंने स्थानीय लोगों से चर्चा की, तो लोगों ने बताया कि आपकी बात। सही है, अब कौवों की संख्या धीरे धीरे कम हो रही है। पहले कौवे घर की मुंडेर पर, घर के सामने लगे पेड़ पौधों पर कौवों की कांव सुनाई देती थी। बहुत बार उसे भगाना पड़ता था। लेकिन आज कल उनकी संख्या निश्चित रूप से कम हुई है। उसके पीछे भी लोगों ने रासायनिक खादों और पर्यावरण प्रदूषण को जिम्मेदार बताया। किसानों बे बताया कि चूहे और सांप को मारने के लिए वे कई ऐसे रसायनों का उपयोग करते हैं, जिसका प्रभाव काफी दिनों तक बना रहता है। यदि इस बीच खेत की सिचाई हो गई। कौवे सहित जो भी पक्षी उसका जल पी लेगा, उसकी मौत निश्चित है। इस कारण कौवों की संख्या में कमी आई है।
अगर नीम, गाय और कौवे अमरोहा की धरती से पूरी तरह उन्मूलित हो गए, तो इसमें दो राय नही कि कोरोना जैसे किसी और संकट का सामना पूरी जनता को करना पड़ेगा। इस कारण सभी किसानों का यह कर्तव्य बनता है कि अपनी भलाई के लिए, अपनी सुविधा के लिए फसलों और मिट्टी को इतना जहरीला न बना दें, जिससे सिर्फ कौवे, गाय और नीम ही समाप्त न हों, उसमें उत्पन्न खाद्यान का उपभोग करने वाले थोड़े थोड़े जहरीले अनाज के सेवन की वजह से किसी गंभीर बीमारी या मौत के शिकार न हो जाएं । खाद और रसायन का उतना ही प्रयोग करें, जितनी जरूरत हो ।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट