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वाह रे आधुनिकता ! अतिथियों का नुकसानदायक पदार्थों से आवभगत करता समाज

वाह रे आधुनिकता ! अतिथियों का नुकसानदायक पदार्थों से आवभगत करता समाज
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आधुनिक होना बुरा नही है । लेकिन बिना सोचे समझे आधुनिक होने की नकल करना ठीक नही है । कई मसलों में मैं जब चिंतन करता हूँ, तो ऐसा लगता है कि सिर्फ अनपढ़ या सीधा साधा समाज ही नही, पढ़ा लिखा समाज भी एक नंबर का नकलची है। उसके व्यवहार और एक गांव के एक आम आदमी के व्यवहार में कोई अंतर नही दिखाई देता। इस समय मैं कोरोना पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान यात्रा पर हूँ, अधिकतर गांव के लोगों के बीच जागरण करने का प्रयास कर रहा हूँ । लोगों के मन मे जो विचार हैं, उसे धैर्य और ध्यानपूर्वक सुनता हूँ । उनके मन में जो सवाल होते है, उनका उत्तर देता हूँ । आज की यात्रा के दौरान आज लेख के विषय संबंधित सवाल और चर्चा हुई। चूंकि मैं चाय, ठंडा, या बाहर का कुछ भी नही खाता पिता हूँ। यह सुन कर लोगों को आश्चर्य भी होता है, और नागवार भी गुजरता है। उन्हें लगता है कि जो आवभगत मेहमान की करना चाहिये, उससे वह वंचित हो गया। लेकिन आज की इस सारगर्भित विषय पर चिंतन करने को विवश कर दिया।

समाज और देश मे जितनी परंपराएं हैं, जितनी भी आदतें हैं, उनके पीछे सैकड़ों सालों की तपस्या है। अध्ययन है। तब जाकर कोई परंपरा बनती है। यही हाल शीत और ग्रीष्म ऋतु प्रधान देशों का भी है। शीत ऋतु प्रधान देशों में मेहमानों की आवभगत की परंपराएं अलग रही हैं, ग्रीष्म ऋतु की परंपराएं अलग। लेकिन अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति के कारण उन्होंने विश्व के अधिकांश देशों में व्यापार के लिए आये, बाद मे वहां की हुकूमत पर भी कब्जा कर लिया। शीत ऋतु के होने के कारण अंग्रेज हों, या फ्रांसीसी, उनकी अपनी परंपराएं रही और वे जहां भी गए , उन्हीं परंपराओं का पालन किया। जिन देशों में उन्होंने व्यापार किया या हुकूमत की । वहां के लोगों ने उन्हें श्रेष्ठ माना और एक लंबे अरसे तक हुकूमत करने और संपर्क में रहने की वजह से उनकी आदतों और परंपराओं को भी हमने अपना लिया। हमने ऊज़ पर विचार नही किया और उन्हें श्रेष्ठ मान कर उनकी आदतों और परंपराओं को अपना लिया। आज के भारत पर जब हम इस विचार और चिंतन के साथ मनन करते हैं, तो ऐसा लगता है कि भारत के लोगों ने अंग्रेजों की सम्पूर्ण आदतें और परंपराएं अपना ली है। आश्चर्य तब होता है, जब मैं यह पाता हूँ कि अंग्रेजों की आदतों और परंपराओं को सबसे पहले पढ़े लिखे लोगों और समाज के संभ्रांत लोगों ने अपनाया । उनकी देखादेखी आम लोगों ने उनकी नकल की और अपने जीवन में उतार लिया। धीरे धीरे उनकी आदतें और परंपराएं आम हो गई और आज भारतीय समाज मे रच बस गई ।

आज जब हम किसी के घर जाते हैं, तो वह बाजार की दो तीन दिन या हफ्तों बनी मिठाई और पानी लाता है। उसे अपने घर या गांव का बना हुआ गुड़ देने में लज्जा या पिछड़े होने का आभास होता है। जबकि ऊज़ गुड़ पानी से आगंतुक अथिति को ऊर्जा मिलती थी, और पानी पीने के बाद वह खुद को तरोताजा महसूस करता। लेकिन मिलावटी और हफ्तों पहले बनी मिठाई जब वह खाता है, तो न तो उसे ऊर्जा मिलती है, न उसकी थकावट दूर होती है और न ही वह खुद को ऊर्जावान महसूस करता है। इसके बाद चाय आती है। चाय भी भारत का पेय कभी नही रहा । लेकिन आप कहीं भी चले जाएं । चाहे किसी अमीर के घर जाएं, चाहे गरीब के घर जाएं, आपकी आवभगत में चाय जरूर होगी । स्वास्थ्य और गरम जलवायु देश के रूप में जब इस पेय पदार्थ का अध्ययन करते हैं, तो यह पाते हैं कि भारत देश के लिए यह उपयुक्त नहीं है। यह एसी कार्यालयों में काम करने, रहने और एसी गाड़ियों में चलने वालों के लिए ठीक है, लेकिन श्रम करने वालों के लिए ठीक नही है। जबकि आदत में आने और परंपरा बन जाने की वजह से इसके नुकसान फायदे पर विचार किये बगैर हर कोई खुद भी पी रहा है, और उसी से अतिथियों का सम्मान भी कर रहा है।

जो लोग शहर या कस्बे में या उसके करीब रहते हैं, वे लोग मौसम के अनुसार चाय कॉफी या ठंडा मतलब कोकाकोला आदि का इंतजाम करते हैं। और आने के बाद अतिथियों के स्वागत के लिए दुकान से खरीद कर लाते हैं। यह भी पेय पदार्थ भारत का नही है। हमने अंग्रेजों की नकल की है। अब इसका संबंध प्रतिष्ठा से भी लोगों ने जोड़ दिया है। अगर अतिथि को स्वागत के रूप में ठंडा मिल जाये, तो वह अपने इस रिश्तेदार की खूब प्रशंसा करता है। और जिसके यहां वह आता है, वह भी संतुष्ट हो जाता है। पहले भारत मे लोग दूध या छाछ दिया करते थे। जो शरीर के लिए भी फायदेमंद होता था और गर्मी से राहत भी मिलती थी। लेकिन अब न तो सभी के पास दूध और छाछ है, और न सभी की उसे पीने में रुचि है । इस प्रकार बिना सोचे बिचारे हमने दूध और छाछ की जगह ठंडा का प्रचलन कर लिया। जो स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होता है। इतना ही नही चाहे छोटा हो, या बड़ा, कोई भी कार्यक्रम हो, सभी मे ठंडा जरूरी हो गया है। अब तो ऋतु का भी महत्व खत्म हो गया है। तीव्र ठंड के मौसम में होने वाले कार्यक्रमों में भी ठंडा पीने और पिलाने का प्रचलन हो गया है।

जैसे जैसे हम शिक्षित होते गए, नकल की हद हो गई । अब मेहमान किसी के यहां पहुंचता है, तो अगर शाम को उसे पीने के लिए शराब नही मिली, तो कुछ भी आवभगत नही हुई। मेजबान और मेहमान दोनों की रजामंदी से यह प्रचलन होता गया। धीरे धीरे तर त्योहारों पर पीने पिलाने की परंपरा ने शिष्टाचार का रूप ले लिया। शराब पीना पहले असभ्य समाज का प्रतीक माना जाता था, अब हर समाज की पसंद बन गया है। अब यह समाज और मेहमानवाजी का पर्याय बन गया है । लोग पीने पिलाने में ही फक्र का अनुभव करते हैं । यह भी परंपरा या आदत हमारे समाज मे नकल से आई है । यह ठंडे प्रदेशों के पेय है। अब भारत ही नही, सभी गरम देशों ने भी इसे अपना लिया है। जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।

इस प्रकार मेहमानों के स्वागत की जो भारतीय परंपरा रही, उससे हम धीरे धीरे दूर होते गए । और धीरे धीरे अंग्रेजों की नकल करते करते पहरावे और व्यवहार में नकली अंग्रेज हो गए । और अपने अजीज मेहमानों का भी स्वागत ऐसे पेय पदार्थों से करने लगे, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक है। आज भी चाय पानी के बाद लोग गुटका, बीड़ी, और सिगरेट अपने घर आये मेहमानों को ऑफर करते हैं । जिनके रैपर पर लिखा होता है कि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। फिर भी यह भी परंपरा बन गया है और मेहमानवाजी के लिए उपयोग हो रहा है।

प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट

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