नई शिक्षा नीति : राष्ट्रीय एका, बच्चे के समग्र विकास, आत्मनिर्भरता की पूरक

भारत सरकार ने जो नई शिक्षा नीति लागू की है, उसका विरोध वही लोग कर रहे है, जो किसी न किसी राजनीतिक दल या राजनीतिक दलों द्वारा पोषित संगठनों से सम्बद्ध हैं । जिनका अपना एक दर्शन है, अपनी एक विचारधारा है। उनके द्वारा की गई आलोचनाओं को भी मैं पढ़ता हूँ, और सत्ता पक्ष के दर्शन और विचारधारा में विश्वास करने वाले विद्वत जनों का भी । मुझे ऐसा लगता है कि एक उसमें अपनी विचारधारा और दर्शन के अनुसार बुराई खोज कर रेखांकित कर रहा है, दूसरा मोदी सरकार द्वारा 108 पेजी नई शिक्षा नीति को बिना पढ़े समर्थन कर रहा है। ऐसा लगता है कि इन दोनों प्रकार के विद्वानों ने शिक्षा संबंधी पुस्तकों का गहरा अध्ययन किया है। मैं यह कहूँ कि उसने उसका एक एक शब्द घोटा लगा कर पी लिया है, तो अतिशयोक्ति नही होगी । वह नई शिक्षा नीति को एक आलोचनात्मक प्रश्न की तरह ट्रीट कर रहा है। जिसकी वजह से नई शिक्षा नीति को लेकर काफी पेचीदिगियाँ उत्पन्न हो गई है। उनके लेखों को पढ़ कर ऐसा भी लग रहा है कि लार्ड मैकाले का जो सपना था, वह पूरा हो गया है। अंग्रेज भले ही देश छोड़ कर चले गए हों, लेकिन उसकी शिक्षा नीति ने भारत मे लार्ड मैकाले के दत्तक पुत्र पैदा कर दिए है।
नई शिक्षा नीति में की गई मातृभाषा की बात मैकाले समर्थक लोगों को नागवार गुजर रही है । उनकी दलील है कि दुनिया का सर्वश्रेष्ठ खजाना अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजियत में ही छिपा हुआ है। उन्हें अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा दोनों अच्छी नही लग रही हैं । उन्हें लग रहा है कि इससे 'भारत की प्रगति, आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय, वैज्ञानिक प्रगति, राष्ट्रीय एकीकरण तथा सांस्कृतिक संरक्षण वैश्विक स्तर पर कायम नही रखा जा सकता है।
लेकिन इस शिक्षा नीति का अध्ययन, चिंतन, मनन के बाद जहाँ तक मैं देख पा रहा हूँ, उसके अनुसार नई शिक्षा नीति को लेकर इस प्रकार के चिंतन का कोई औचित्य नही है। समग्र अध्ययन के पश्चात स्थिति पूरी तरह से साफ हो जाती है कि मातृभाषा में शिक्षा देने से देश के नौनिहालों का समग्र विकास हो पायेगा। नई शिक्षा नीति का विरोध करने वाले लोगों को ऐसा लग रहा है कि अगर बचपन से ही बच्चा अंग्रेजी का अध्ययन स्कूली स्तर पर नही करेगा, तो उसका भविष्य गर्त में चला जायेगा। इस प्रकार की बातें दक्षिण भारत के तमाम ऐसे लोग कर रहे हैं, जो अपनी मातृभाषा को बेहद प्यार करते है, अंग्रेजी के बेहतर जानकार और स्पष्ट वक्ता होने के बाद भी अपनी मातृभाषा में बातचीत करने, लिखने में गौरव का अनुभव करते हैं । वे नई शिक्षा नीति का विरोध कर रहे हैं ।
वे नई शिक्षा नीति का विरोध इसलिये कर रहे हैं कि पहली कक्षा से लेकर कक्षा आठ तक और उससे आगे भी अध्ययन और अध्यापन की भाषा मातृभाषा होगी। लेकिन वे नई शिक्षा नीति के इस प्रावधान को भूल जाते हैं कि उसे चुनने का अधिकार बच्चों के माता-पिता पर होगा। और मेरा मानना है कि कोई भी माता पिता ऐसी कोई भाषा अपने बच्चे के लिए नही चुनेगा, जो उसके बच्चे के भविष्य के लिए उचित न हो । जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं, वे इसलिए नही कर रहे हैं कि इससे बच्चे का भविष्य चौपट हो जाएगा, बल्कि इसलिए कर रहे हैं कि उनकी पार्टी या उनकी संस्था का विचार सत्तारूढ़ भाजपा से मेल नही खाता है। इस लेख को लिखने के पहले मैंने विश्व के कई देशों के शिक्षा शास्त्रियों की प्राथमिक शिक्षा पर विचार पढ़े, सभी ने इस बात का समर्थन किया है कि स्कूली शिक्षा में बच्चे का सर्वश्रेष्ठ विकास उसकी मातृभाषा में ही हो सकता है। मातृभाषा में पाठ होने से वह अपने सबक को अच्छी तरह से समझ सकेगा, और उसका उत्तर भी बेहतरीन तरीके से लिख सकेगा।
कुछ लोगों को यह भी लग रहा है कि कुकुरमुत्ते की तरह अंग्रेजी के नाम पर हर गली कूचे में खड़ी हुई कान्वेंट की संस्थाएं सरकार की इस नीति को सफल नही होने देगी। मैं इस संबंध में दो बातें कहना चाहता हूँ । पहली यह कि वे सरकार की ताकत को कम करके आंक रहे हैं । वे सरकार को इन कान्वेंट संस्थाओं से कमजोर मान रहे हैं । दूसरा उनकी जानकारी इन संस्थाओं के बारे में भी बेहतर नही है । जिन कंवेंटी संस्थाओं की वे बात कर रहे हैं, वे सभी सरकारी प्रतिष्ठानों के अधीन काम कर रही हैं। सरकार द्वारा बनाये नियमों के तहत काम कर रही हैं । सरकार के एक परिपत्र के बाद ही ये सभी संस्थाएं तदनुरूप खुद को परिवर्तित कर लेंगी।
नई शिक्षा नीति का विरोध करने वालों शिक्षा की गुणवत्ता पर भी सवाल उठाया जा रहा है। जो मुझे निराधार प्रतीत होती है। सीख सिर्फ अंग्रेजी भाषा मे ही डीजल सकती है, यह बात मेरे गले से नही उतरती। सर्वोत्तम सीख तो मातृभाषा में ही दी जा सकती है, गुणवत्ता के साथ दी जा सकती है। ऐसा पहले भी भारत मे हो चुका है और कई विकसित देशों में ऐसा ही हो रहा है। चीन, जापान इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं। जहां अपनी मातृभाषा में सिर्फ प्राथमिक ही नही, उच्च शिक्षा दी जाती है । ऐसे आलोचक अपने पक्ष में दलील देने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा अंग्रेजी शिक्षा के क्षेत्र में किये गए उल्लेखनीय कार्यों को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं। लेकिन उसका कोई विशेष मतलब नही है। जब उन्होंने अंग्रेजी भाषा के लिए कदम उठाए थे, तब भारतीय शिक्षा नीति में उसी का प्रावधान था। अब क्षेत्रीय भाषा का है। तो वे उसी तरह उसे लागू करेंगे।
नई शिक्षा नीति के त्रिभाषा प्रयोजन को लेकर भी आलोचकों की त्योरियां चढ़ी हुई हैं । उनका मानना है कि अगर कोई बच्चा एक से ज्यादा भाषा सीखता है तो यह अच्छा है, खासकर एक बहुभाषी देश में, लेकिन कितनी भाषाएं, कौन-सी और कहां होनी चाहिए, यह बच्चे और उसके अभिभावक पर छोड़ दिया जाना चाहिए। साथ ही भारत की भौगोलिक, सांस्कृतिक, औऱ भाषाई भिन्नता को लेकर भी सवाल उठाए गए हैं । उन्हें लग रहा है कि त्रिभाषा फार्मूले से दक्षिण भारत का बच्चा अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करेगा, इसकी खुशी नही है । वह त्रिभाषा के अनुसार वह तमिल के साथ हिंदी और संस्कृत न पढ़ने लगे । वे हिंदी और संस्कृत को उत्तर भारतीय भाषाएं मानते हैं । भाषाई आधार पर राजनीति करने वाले यह दलील देते हैं कि अगर इन भाषाओं को यहां के बच्चे सीखेंगे तो वे अपनी संस्कृति और परंपरा से दूर हो जाएंगे। जबकि जो विरोध करने वाले नेता हैं, वे ही अपने बच्चों को हिंदी सिखाते हैं । व्यापारियों का भी यही हाल है। वे भी सम्पूर्ण भारत मे व्यापार करने के लिए अपने लोगों को हिंदी सिखाते हैं। फिर त्रिभाषा फार्मूले में तमिल पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। प्रथम भाषा के रूप में उन्हें प्राथमिक शिक्षा तो तमिल में ही ग्रहण करना है । दरअसल त्रिभाषा का विरोध कराने के पीछे उनका अंग्रेजी भाषा से मोह है। उनकी अपनी रणनीति है कि अंग्रेजी भाषा मे विशिष्टता के कारण ही वे नर्सिंग, टीचिंग और प्रशासनिक पदों पर अपना वर्चस्व बनाये रखने में कामयाब हैं। कई क्षेत्रों में उनका एकाधिकार बना हुआ है । इसे तो कोई भी समझ सकता है, देख सकता है। पूरे भारत में कहीं भी आप चले जाएं, नर्सिंग होम में नर्स केरल की ही मिलेगी । किसी भी अच्छे कान्वेंट स्कूल में चले जाएं, उसका प्रिंसिपल दक्षिण भारतीय ही मिलेगा। दूसरे जब हम दक्षिण भारत की भाषाओं का भी अध्ययन करते हैं, तो उनकी भाषाओं में संस्कृत के तमाम शब्द मिलते हैं । मलयालम का नाम इस संदर्भ में लिया जा सकता है।
2005 से दक्षिण भारत के सभी प्रदेशों में सायकिल - पदयात्राओं के माध्यम से मेरा भ्रमण हो रहा है। 2005 मे जो स्थिति थी, वह 2020 में नही है। दक्षिण भारत मे हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जो प्रयास किया था, उसकी बदौलत और समय की मांग के कारण दक्षिण भारत मे भी व्यापक स्तर पर हिंदी का प्रचार प्रसार हुआ है। संस्कृत भाषा जरूर वेद पाठियों और पूजा पाठ और कर्म कांड कराने तक सीमित रह गई है। विश्वविद्यालय स्तर पर अध्ययन अध्यापन और शोध कार्यों की जरूर व्यवस्था है ।
लेकिन नई शिक्षा नीति को लेकर चिंतित होने की जरूरत नही है, सरकार उन सभी कठिनाइयों को दूर करेगी, जो लागू होने के बाद आएंगी। अगर नही दूर करने लायक होगी तो उसमें बदलाव भी कर सकती है। भाषा के नाम पर दक्षिण भारत मे एक बार फिर राजनीति गरमा गई है। इसका आभाष हो रहा है।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट