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भीड़ का भ्रम और समाजवादी पार्टी की हार

भीड़ का भ्रम और समाजवादी पार्टी की हार
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अक्सर यह देखा गया है कि जब कोई नेता या राजनीतिक दल अच्छा होता है। अपने चरित्र और सद्कार्यों की वजह से लोकप्रिय हो जाता है । सत्ता प्राप्त करने बाद जनता के हित के लिए तमाम लोकोपयोगी कदम उठाता है, बिना किसी भेदभाव के जनहित में कार्य करता है। जिसकी प्रशंसा पार्टी के नेता और कार्यकर्ता ही नही, बल्कि आम जनता भी करती है। जिसकी वजह से उस पार्टी के नेताओं और पार्टी की लोकप्रियता का ग्राफ काफी ऊंचा उठ जाता है। जिसकी वजह से वह पार्टी और उसके नेता शिथिल हो जाते हैं ।

इस संदर्भ के आधार पर जब मैं समाजवादी पार्टी और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव और उनकी सरकार पर विचार करता हूँ, तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह विचार पूरी तरह सत्य है। इस समय राजनीति में जितने भी युवा चेहरे है, उनमे अखिलेश यादव का चेहरा सबसे अधिक दीप्तमान प्रतीत होता है

उनका चरित्र बेदाग है, उनकी सोच और चिंतन उद्दात है। समाजवादी दर्शन के संबंध में भी उनकी सोच अत्यंत सकारात्मक है। उनकी पार्टी के ही नेता और कार्यकर्ता ही नही, दूसरी पार्टियों के नेता कार्यकर्ता के अलावा प्रदेश की जनता भी उनकी प्रशंसा करती है। उन्हें अच्छा समझती है, और उनके संबंध में अच्छा कहती है। एक बात जरूर है कि उनका जन्म एक जमीनी नेता मुलायम सिंह के घर मे हुआ। जो गरीबों, मजलूमों ही नही, अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर जब जब कोई मुसीबत आई, मदद करने के लिए मुलायम सिंह यादव सबसे आगे रहे। इसी कारण कोई भी पार्टी हो, सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से उनके पारिवारिक सबंध हैं। इसका लाभ उनके पुत्र अखिलेश यादव को भी मिला । हालांकि उनका राजनीतिक प्रशिक्षण तो बचपन से ही शुरू हो गया था, लेकिन जब वे सक्रिय राजनीति में आये, इसके बाद से उन्हें राजनीति का व्यवहारिक ज्ञान भी होने लगा। सांसद के रूप मे एक लंबी पारी खेलने के बाद उनके पिता मुलायम सिंह ने 2012 में उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया। जिसका विरोध भी हुआ। प्रथम तीन साल सरकार मुलायम सिंह के निर्देशन में ही चलती रही। लेकिन अंत के दो साल अखिलेश यादव ने खुद सरकार चलाईइस दौरान उन्होंने अतुलनीय कार्य किये। बिना किसी भेदभाव के राजनीति को आधुनिक बनाया ।

अनेक ऐसे कार्य किये, जिनकी आज भी चर्चा होती है, जो उत्तर प्रदेश के विकास के लिए नजीर बने हुए है। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को अपने पक्षपात रहित जनसेवाओं और विकास कार्यों पर अटूट विश्वास था। इस कारण ही उन्होंने 2017 का विधानसभा चुनाव और 2019 का लोकसभा चुनाव अपने अतुलनीय विकास कार्यों और नैतिक सेवाओं के आधार पर लड़ा, किंतु नतीजा बेहद निराशाजनक रहा। 2017 के विधानसभा चुनाव में 50 से भी कम सीटें मिली और 2019 में ऐसी सीटें हार गए, जिसकी नेताओं ने नही, आम जनमानस ने भी अनुमान लगाया था ।

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने 2017 और 2019 के विधानसभा और लोकसभा चुनाव में दो प्रयोग किये । 2017 में उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया और 2029 में बसपा के साथ गठबंधन किया। दोनो बार जितने संयुक्त रोड शो या संयुक्त रैलियां हुई, उसमें अपार भीड़ आई। इस भीड़ को जुटाने में सपा नेताओं ने जो प्रयास किया, वह तो किया ही, लेकिन ऐसी भीड़ की भी संख्या में आई थी, जो इस नए प्रयोग में अपना भविष्य तलाशने आई थी। अपने सुनहरे सपनों को सच होने की रणनीति जानने आई थी। लेकिन 2017 और 2019 के दोनों गठबंधनों की रैलियों में उसे कुछ भी नया नही दिखाई दिया । जिसकी वजह से जो नव युवा स्वेच्छा से आया था, उसे घोर निराशा हुई । उसने सपा कांग्रेस गठबंधन और सपा बसपा गठबंधन से जब नरेंद्र मोदी के भाषणों की तुलना किया, तो उसे मोदी मैजिक में ही अपने सपने पूरे होते दिखाई दिए। इस कारण हर रोड शो में करीब 1 लाख की जो संख्या स्वेच्छा से आई थी, वह बैकफुट पर चली गई। इनकी रैलियों में सम्मिलित होने के बाद भी उसने इनको वोट न करके भाजपा के पक्ष में किया। जिससे सभी राजनीतिक दलों के राजनीतिक दलों के अंकगणित गड़बड़ा गए। मुझे तो इन राजनेताओं की अंकगणितीय ज्ञान पर हंसी भी आती है। ऐसा लगता है कि ये किताबी राजनीति के ही ज्ञाता हैं ।

इसके अलावा दोनों राजनीतिक दलों द्वारा भी भीड़ जुटाई गई थी । राजनेता कैसे भीड़ जुटाते हैं, हर जमीनी कार्यकर्ता को पता है। डीजल पेट्रोल और खर्चे के पैसे देकर लाई गई भीड़ समर्थक नही होती राजनेता इस बात को भूल गए। सपा का हर नेता अपने द्वारा लाई भीड़ को छोड़ कर शेष भीड़ को स्वेच्छा से आई मान कर सपा गठबंधन की जीत पर आश्वस्त हो गया । उसने प्रचार प्रसार की जो प्रक्रिया चरम पर होती है, उसे भी बंद कर दिया। वह सुबह घर से चमचमाता जूता और टाइट प्रेस किया हुआ कपड़ा पहन कर निकलता । जय जयकार करने वाले अपने कुछ चापलूसों के साथ लंबी लंबी छोड़ता और रात को दारू पीकर, होटलों में खाना खाकर, बिना पैसे दिए, होटल वाले को दो चार गाली देकर संभावित जीत और शराब जे नशे में झूमता हुआ घर पहुँच जाता। घर पर पत्नी जब कुछ कहती, तो उसे सत्ता आने का ख्वाब दिखा कर उसे चुप करा देता ।

कहने का तात्पर्य यह है कि 2017 और 2019 में जो गठबंधन हुए, उस पर आक्षेप वे लगाते हैं, जो लफ्फाजी करते हैं, जिन्हें जमीन की राजनीति का कोई ज्ञान नही है । जो अखिलेश भैया के परिश्रम पर अपनी राजनीति चमकाने के साथ अपना पेट और अपना घर भरना चाहते हैं । ऐसे लोग घर बैठ गए । अपनी जीत सुनिश्चित जान शिथिल पड़ गए। जबकि चुनाव चल रहा था, इसके बावजूद किसी को वोट देने के लिए कहते ही नही थे। बल्कि 2017 के चुनाव में यह शेखी बघारते थे कि 300 से अधिक सीट समाजवादी पार्टी जीत रही है, सत्ता फिर आ रही है। कायदे में रहो, फायदे में रहोगे। चुनावी तालमेल के कारण उमड़ी भीड़ के भ्रम में फंसा सपाई यह नही समझ सका कि वह अपनी ही हार के जाल बुन रहा है।

दूसरी ओर भाजपा इस उमड़ती भीड़ को देख कर सतर्क हो गई। इस भीड़ का प्रदेश और देश की जनता पर नकारात्मक प्रभाव न पड़े। उसने मोदी की जनसभाओं में भी भीड़ का इंतजाम किया। साथ ही सपा के दोनों गठबंधनों के समय शिकस्त देने के लिए वोट पड़ने के दिन तक एक एक व्यक्ति को इनसे तोड़ता और जोड़ता रहा। सच पहचान कर उसने अंतिम समय तक एक एक वोट जोड़ने की अमित शाह ने जो रणनीति बनाई, उसमें उन्हें सफलता प्राप्त हुई।

जमीनी हकीकत की जानकारी न होने के कारण अपने चापलूस और अज्ञानी नेताओं के दबाव में सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को गठबंधन तोड़ना पड़ा। 2019 में बसपा और सपा के बीच गठबंधन हुआ। भीड़ के भ्रमजाल में फंसी सपा और उसके नेता कार्यकर्ता सिर्फ गठबंधन मात्र से जीत सुनिश्चित जान प्रचार के नाम पर होटलों में अय्याशी करते रहे। जनता के बीच मे गए नही । प्रचार करना बिल्कुल बंद हो गया था। मैंने चुनाव के समय देखा कि सामने दस बीस लोग अगर मिल भी जाते, तो भी वे उनसे वोट की अपील नही करते। अखिलेश यादव और मायावती की संयुक्त रैलियों में उमड़ी भीड़ से आश्वस्त हो, अजेय समझे जाने वाले सपा नेताओं को भी हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद फिर भीड़ के जंजाल में उलझी सपा अपनी हार की इबारत लिखती रही ।

एक बार फिर काहिल सपा नेताओं ने अखिलेश को न जाने कौन गणित समझा कर बसपा से भी गठबंधन तोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। और उनके सम्मोहन में फंसे अखिलेश यादव ने भी 2022 का चुनाव अकेले लड़ने की घोषणा कर दी। 351 का लक्ष्य निर्धारित कर दिया। इस समय मेरी सायकिल यात्रा बदायूँ जिले में है । भाजपा अपने बूथ लेवल की मीटिंगें कर रही है, और सपाई कोरोना के भय से अपने अपने घरों में दुबके पड़े हैं । भीड़ के भ्रम में उलझी समाजवादी पार्टी अखिलेश यादव की मेहनत और साफ सुथरी छवि पर बिना किसी मेहनत के एक बार फिर चुनाव जीतने का ख्वाब देख रही है । जबकि पिछले दो चुनावों में हुई हार से सबक सीख कर हर कार्यकर्ता को अपनी कमियां दूर कर नए उत्साह से अभी से प्रचार करना चाहिए । अगर यही हाल रहा, तो पूरी पार्टी 2022 के चुनाव के बाद कोरोना ग्रसित हो जाएगी।

प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट

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