लोकतंत्र में विश्वास और संविधान संशोधन की एक और जरूरत

पिछले दिनों मध्य प्रदेश और राजस्थान में जिस तरह से राजनीतिक उठा पटक हुई। सुचारू रूप से चलती हुई वहां की चलती सरकारों को छेड़ने या गिराने की सफल कोशिश हुई, उससे जनता का लोकतंत्र पर से विश्वास उठने लगा । प्रतिक्रिया स्वरूप जनता यह कहने लगी कि अगर यही हाल रहा तो चुनाव कोई जीते, सरकार कोई बना ले, लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल जब चाहेगी, विधायको को लालच या पैसा देकर अपने पक्ष में करके सरकार गिरा देगी और अपनी सरकार बना लेगी । कोरेना के हाहाकार के बीच मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार को गिरा कर पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने फिर से सरकार बना ली । सरकार का ताना बाना माधवराव सिंधिया के सुपुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया के असंतोष की बुनियाद पर बना गया । राहुल गांधी के बाद कांग्रेस में नंबर दो की हैसियत रखने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने समर्थक विधायक व मंत्रियों के साथ भाजपा के साथ जा खड़े हुए । भाजपा की सदस्यता ग्रहण की । भाजपा के कोटे से राज्यसभा सांसद बने और कमलनाथ की अल्पमत में आई सरकार को गिरा कर भाजपा की सरकार बनवा दी । जो लोग भाजपा विरोध पर चुनाव जीते थे, वे एक पल में भाजपाई हो गए । उनकी निष्ठा का केंद्र बदल गया। कभी पानी पी पीकर भाजपा नेताओं की कटु आलोचना करने वाले भाजपा का गुणगान करने लगे ।
अभी चंद महीने भी नही बीते कि राजस्थान की सरकार पर वही प्रयोग किया गया । राजस्थान सरकार के उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट की महत्त्वाकांक्षा और मुख्यमंत्री गहलोत के प्रति असंतोष को आधार बना कर सचिन पायलट से बगावत करवाई गई । जिससे राजस्थान में भी गहलोत सरकार के सामने अस्थिरता के बादल मंडराने लगे । पिछले एक पखवाड़े से वहां राजनीतिक उठा पटक जारी है । हालांकि अपने प
हालांकि अपने प्राथमिक प्रयास में भाजपा सफल नही हुई। लेकिन आगे भी सरकार गिराने में वे सफल नही होंगे, इडकी भविष्यवाणी नही की जा सकती । अभी सचिन पायलट के विरोध उतनी तीक्ष्णता नही है, जैसी ज्योतिरादित्य सिंधिया में थी । लेकिन एक झटका देने के वाद वे चुप बैठेंगे, इसकी गारंटी कोई नही दे सकता है । सरकार तो वे पहले गिरा सकते थे किंतु अपनी पार्टी की कद्दावर नेता व पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया की राजनीतिक महत्वकांक्षा और प्रभाव के आगे वे वेवश हैं। हालांकि वे अभी भी लगातार प्रयासरत है। सचिन पायलट और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया के बीच मे आपसी तालमेल बैठते ही उसे गिरा देंगे ।
इसी तरह की घटनाएं दक्षिण भारत के कई राज्यों में उत्पन्न की गई, और चलती सरकारों को गिरा कर नई सरकार बनी और अपना कार्यकाल पूरा कर रही हैं या कर लिया ।
ईन सभी राजनीतिक घटनाक्रम से देश की जनता हतप्रभ है । जनता आपस मे चर्चा करने लगी कि चुनाव कोई भी जीते, सरकार कोई भी बनाये । वह तभी तक सरकार चला पाएंगे, जब तक भाजपा की कृपादृष्टि बानी रहेगी, जब तक वह चलने देगी । जब भी उसे लगेगा कि अब सरकार बनाना है, वे सत्ता दाल के कुछ विधायकों को लालच या पैसा देकर अपने पक्ष में कर सरकार गिरा देंगे । जैसा कि उन्होंने दक्षिण भारत सहित मध्य प्रदेश में किया है । अगर इसी प्रकार मि दो चार घटनायें और दोहरा दी जाएंगी,तो जनता का विश्वास पूरी तरह सर उठ जाएगा ।
इसी कारण जानता के बीच मे इस बात की चर्चा होने लगी है कि जनता द्वारा चुने गए विधायकों को लेकर एक बार फिर संविधान में संशोधन करने की जरूरत है । जिससे किसी दल से चुना जाने वाला विधायक एक दल से दूसरे दल ।के जाने पर्वकम से कम उसे पांच साल से पहले चुनाव लड़ने पर रोक लगाई जाए । या दल बदल करने पर उनकी विधायिका खारिज कर दी जाए । या इस प्रक्रिया पर अंकुश लगाने की दिशा ।के प्रयास किया जाए । जिससे इस प्रकार का राजनीतिक झंझावात समाप्त किया जाए ।
अभी जिन दो राज्यों में चलती सरकारों के साथ जो राजनीतिक घटनाक्रम हुए, वह घटनाक्रम कांग्रेस के साथ हुआ । कांग्रेस एक राष्ट्रीय पार्टी है । सबसे पुरानी पार्टी है । उसकी राजनीतिक जड़ें गहरी हैं । इसके बावजूद उसमें राजनीतिक विक्षोभ पैदा करने में भाजपा सफल हो रही है । अगर यही प्रयोग उसने क्षेत्रीय दलों के साथ किया, तो वे कितने दिन टिकेंगे । हालांकि मुझे लगता है कि एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल होने के नाते और लगातार चुनाव हारने की वजह से कांग्रेस कमजोर हुई। इसके अलावा जिस मध्यप्रदेश और राजस्थान ।के इस प्रकार का राजनीतिक घटनाक्रम हुआ। वहां कांग्रेस और भाजपा के अलावा कोई तीसरी पार्टी है ।
जबकि उत्तर प्रदेश और बिहार की ओर जब देखता हूँ तो यहां पर इस समय भले ही भाजपा या भाजपा के सहयोग से चसल रही सरकारें हों, लेकिन यहां पर उसकी टक्कर यहां के शक्तिशाली क्षेत्रीय दलों से है ।
उत्तर प्रदेश में दो शक्तिशाली और लोकप्रिय राजनीतिक दल के रूप में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी हैं । इन दोनों क्षेत्रीय दलों ने कई बार उत्तर प्रदेश की राजनीति में जीत दर्ज कर सफल सरकार भी चलाई है । इस समय समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव हैं और बसपा की सुप्रीमो मायावती हैं । उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपने वर्चस्व के लिए संघर्ष रत सपा और बसपा के पास अपना जमीनी और मजबूत संगठन है। वफादार नेताओं की एक लंबी फेहरिस्त है । भाजपा से उनकी गलाकाट प्रतियोगिता समय समय पर देखी व सुनी जाती है ।
राजनीतिक हलकों में ऐसा माना जा रहा है कि बहुजन समाज पार्टी का जनाधार कम हो रहा है । लेकिन न जाने क्यों मुझे उनकी बात पर विश्वास नही होता है । बहुजन समाज पार्टी का वोटर हमेशा साइलेंट रहा है। वह मेहनती होता है। मेहनत मजदूरी करके अपने परिवार का भरण पोषण करता है । इस कारण वह किसी भी राजनीतिक गतिविधियों में भाग नही लेता हैं । न ही बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती द्वारा कव्ही भी किसी प्रकार के धरना प्रदर्शन की पहल की जाती है । इस कारण चुनाव के नजदीक आने पर ही बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ताओं के समर्पित कार्यकर्ता दिखाई पड़ते हैं । लोगों से वोट की अपील करते हैं और काफी सीटों पर कड़ी टककर देते हैं और कइयों पर जीत भी दर्ज करते है । बसपा सुप्रीमो और बहुजन समाज पार्टी की चर्चा इसलिए कर रहा हूँ कि बहुजन समाज पार्टी के सुप्रीमो मायावती के बयानों और राजनीतिक क्रिया कलापों से ऐसा प्रतीत होता है कि उनका झुकाव भारतीय जनता पार्टी की ओर है । साथ ही उन पर उनसे अलग हुए कई नेताओं ने यह आरोप लगाया कि एक निर्धारित राशि पार्टी फंड में जमा करने के बाद ही उन्हें टिकट मिलता है । ऐसे में जो विधायक भारी भरकम राशि खर्च करके टिकट लिया हो और पानी की तरह पैसा बहा कर चुनाव जीता हो, उसे अधिक मात्रा में धन और सत्ता का लालच देकर कोई भी खरीद सकता है । इसलिए 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में यह खेल दोहराया जा सकता है । क्योंकि यहां उसके लिए स्थितियां ज्यादा मुफीद हैं ।
अब हम एक दूसरे क्षेत्रीय राजनीतिक दल समाजवादी पार्टी की चर्चा कर लेते हैं । वह दल समाजवादी पार्टी है । उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव हैं। जो 2022 का विधानसभा चुनाव जीतने के लिए शंखनाद भी कर चुके हैं । उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में वे 351 सीटें जीत कर सरकार बनाएंगे । कितनी सीटें जीतेंगे, सरकार बनाएंगे या नही, यह तो भविष्य के गर्त में है । लेकिन जनता ही नही भाजपा भी यह स्वीकार कर रही है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में उसकी लड़ाई समाजवादी पार्टी से ही है । समाजवादी पार्टी आह्वान पत्र के माध्यम से इस दिशा में अभी से प्रयासरत भी दिख रही है। ट्यूटर से ही सही, सबसे आधी विरोध भी समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश और उनकी युवा टीम ही कर रही है । हालांकि अखिलेश यादव को सर्व समाज अपना नेता स्वीकार करता है । लेकिन इसके बावजूद जनता में इसे पिछड़ों की ही पार्टी मानते हैं । सरकार बनने के बाद यश पिछड़ों और अनुसूचित जाति के लिये
ज्यादा कल्याणकारी योजनाये चलाती है । हालांकि इस मिथक को अखिलेश यादव ने अपने मुख्यमंत्री काल मे तोड़ा है । फिर भी उन पर कभी कभी इस प्रकार का आक्षेप लगाया जाता है।
जहां तक समाजवादी पार्टी के विधायकों के बारे में मेरी जानकारी है । वे अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के प्रति काफी आस्थावान होते हैं लेकिन इस कहावत के आधार पर इस कहावत के अनुसार सही कीमत लगे तो कुछ भी खरीदा जा सकता है । इस आधार पर सपा के विधायकों की निष्ठा नही डगमगायेगी, इसकी गारंटी नही दी जा सकती है ।
ऐसे में इसका एक ही समाधान है कि इस संबंध में संविधान में एक संशोधन किया जाए, जिससे किसी एक दल से जीतने वाला विधायक या जनप्रतिनिधि उसके कार्यकाल तक किसी दूसरे दल में न जाये । अगर चला भी जाये, तो उसकी विधानसभा सदस्यता रद्द कर दी जाए और पांच साल तक चुनाव लड़ने पर उस पर रोक लगा दी जाए । या फिर इस संबंध में कई जनहित याचिका डाल कर कोई निर्णय कराया जाए । जिससे जनता का विश्वास लोकतंत्र की चुनावी और चयनित प्रक्रिया पर बना रहे । उसके मन में किसी प्रकार का संदेह न पैदा हो ।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट