Janta Ki Awaz
लेख

मंगलागौरी व्रतम् :- (निरंजन मनमाडकर)

मंगलागौरी व्रतम् :-    (निरंजन मनमाडकर)
X


ॐ नमश्चण्डिकायै

आज श्रावण मास की शुक्ल प्रतिपदा मंगलवार २१/०७/२०२० के दिन, भौमवार व्रत जिसे मङ्गलागौरी व्रत कहते है उनका आचरण करना है!

व्रतराज तथा भविष्योत्तर पुराण में भगवान श्रीकृष्ण महाराज युधिष्ठिर को इस व्रतका विधान बताते है! भगवती सर्वेश्वर महादेव भी यही कथा सनत्कुमार को स्कंद महापुराण के श्रावण मास माहात्म्यम् के सातवे अध्याय में कहते है!

ईश्वर उवाच!

सनत्कुमार वक्ष्यामि भौमव्रतमनुत्तमम् |

यस्यानुष्ठानमात्रेण अवैधव्यं प्रजायते ||

हे सनत्कुमार! सुनो मैं तुम्हे श्रावण मास के मंगलवार का व्रत कहता हूँ जिससे सुहागन औरत अखण्डसौभाग्यवती हो जाती है, कभी विधवा नही होती!

अ) व्रत विधान :-

विवाहानन्तरं पञ्चवर्षाणि व्रतमाचरेत् |

नामास्य मङ्गलागौरीव्रतं पापप्रणाशनम् ||

यह मंगलागौरी नामक व्रत पापोंका नाश करने वाला है जिसे विवाह के पश्चात पाँचवर्ष करना चाहिए!

विवाहानन्तरं चाद्ये श्रावणे शुक्लपक्षके |

प्रथमं भौमवारस्य व्रतमेतत्तु कारयेत् ||

विवाह के पश्चात आने वाले पहले श्रावण मास के पहले मंगलवार को यह व्रत करना चाहिए!

कदली याने के केलेके स्तंभोंसे सुशोभित ऐसा मंडप बनाना चाहिए, विविध प्रकारकें फूलौंसे उसे सजाना चाहिए! उस मण्डप में अपने सामर्थ्य के अनुसार सुवर्ण निर्मित या अन्य धातुंसे निर्मित देवी की प्रतिमा रखनी है!

रेशमी वस्त्रोंसे सजा कर

माँ भगवती की षोडशोपचार पूजा,

षोडश पुष्प, षोडश दूर्वा, षोडश अपामार्ग पत्र, षोडश अक्षता, षोडश चने की दाल से मंगळागौरी की पूजा करनी चाहिए!

सोलह बातीके सोलह दीपक बनाकर माता की आरती उतारें!

भविष्योत्तर पुराण में सोलह तंतुका भी विधान दिया है, स्कंद महापुराण में नही!

दधि + ओदन = दहिभात का भोग लगावें! देवी के पास पत्थर का सिल तथा लोढा स्थापन कराएं! (लोढा सिल मतलब पाटावरवंटा जो मसाला बनाने का साधन है वह चाँदी का भी हो सकता है )

इस प्रकार प्रथम वर्ष अपने पीहरमें मायके में करना है, बाकीके चार वर्ष अपने ससुराल में करने है!

माँ भगवती की कथा सुनानी है!

रात्री काल में जागरण करना है, विविध प्रकारके गीत, नृत्य कथाओंसे माता की सेवा करनी है!

पञ्च वर्ष सेवा व्रत करने के पश्चात उद्यापन करना चाहिए! षोडश सुवासिनीओंको भोजन देना है उनको सुहाग की निशानी, साडी, कंकण, आदि देना है और सबसे महत्त्वपूर्ण बात माता को वायन दान देना है! सौभाग्य वायन दान! भगवती की मूर्ती सहित! यह वायन रजत पात्र में प्रदान करना चाहिए!

एवं कृते व्रते विप्र सौभाग्यं सप्तजन्मसु |

पुत्रपौत्रादिभिश्चैव रमते सम्पदा युतः ||

हे विप्र इस प्रकार व्रत करने से कन्या सातों जन्मोंमे सौभाग्यवती हो जाती है!

सनत्कुमार कहते है, की हे ईश्वर सर्वप्रथम इस व्रत को किसने किया था और किसको फल प्राप्त हुआ था!?

भगवान कहते है!

पूर्वकाल में कुरूदेश में श्रुतकीर्ति नामक एक राजा था, जो अत्यंत कुशल धनुर्विद्याका ज्ञाता, सभी शास्त्रोंमे पारंगत! शत्रुओंका नाश करने वाला था! वह सर्व गुण संपन्न तथा ऐश्वर्यवान था, अभाव तो केवल बस पुत्र का था! अतः उसने पुत्र प्राप्ती हेतु माँ भगवती की आराधना की - उसकी तपस्या से माँ भगवती प्रसन्न हो कर प्रकट हुई!

माँ ने कहा, हे सुव्रत! वर माँगो!

तब राजा श्रुतकीर्ति ने भगवती को वंदन कर पुत्र प्राप्तीका वर माँगा!

तब भगवतीने कहा, राजन्! आपके पूर्वकर्मोंके अनुसार आपको पुत्रहीनता का अभिशाप है तथापि आपको पुत्रवान होने का वर देती हूँ!

किंतु उसमे ऐसी शर्त है अगर आपको आपही की तरह विद्वान साहसी पुत्र चाहिए तो उसकी आयु केवल सोलह साल ही होगी या फिर आपको मन्दबुद्धि विकलांग पुत्र चाहिए तो वह दीर्घायुषी होगा!

देवी की बात सुनकर राजाने अल्पायु षोडशवर्षी पुत्र प्राप्ती का वर माँगा!

माता जगदंबा की कृपा से राजाको अत्यंत सुंदर रूपवान पुत्र हुआ, महाराज ने उनका जातकर्म, नामकरणादि सभी संस्कार किये और उन राजकुमार का नाम 'चिरायु' रखा!

धीरे धीरे वह राजकुमार बडा होने लगा, जब उसकी पंधरा वर्ष की आयु पूर्ण हुई तब राजा एवं महारानी चिंता में पड गये की अब पुत्र की मृत्यु हमें देखनी पडेगी.... अतः उन्होने राजकुमार चिरायु को अपने मामा के साथ काशी नगरी भगवान विश्वनाथ के शरणों में जानें का निर्णय लिया!

प्रस्थान के समय महारानीने अपने भाईसे कहा की आप कार्पटिक याने यात्रीके रूप में मेरे पुत्र को वाराणसी ले जाईए! जिससे कोई पहचाने नही!

और जगत्पति विश्वनाथ से प्रार्थना की हे जगन्नाथ हे विश्वेश आपकी यात्रा में मेरे पुत्र को भेज रही हूँ! रक्षा करें दयानिधान! हे आशुतोष! कृपा करें!

माता पिता की आज्ञा लेकर वह दोनो मामा भांजे एक यात्रियों के वेश में वाराणसी की दिशामें आगे बढे!

कुछ दिन बाद वे दोनो आनंद नामक राज्य की सीमा में आएं, जहा की राजकुमारी का आज विवाह होने वाला था, वहा के राजा का नाम वीरसेन था तथा राजकुमारी का नाम मंगलागौरी था!

वन क्रीडा हेतूं वह राजकुमारी मंगलागौरी सखियों के साथ उस वनक्षेत्र में आयी हुई थी!

उसी समय मामा भांजे दोनो एक वृक्ष की छायांमें विश्राम कर रहे थे!

हुआ ऐसा जब चिरायु की आँख लग गयी थी तब ये सभी राजकन्या सहित सखिया वहा एकदुसरे का मजाक उडा रही थी, तभी एक सखीने राजकुमारी को अपशब्द से संबोधित किया की हे विधवे..... तब राजकुमारी का जो उत्तर था वह मामाने सुन लिया जिसे सुनकर उसे बहोत आनंद हुआ!

राजकुमारी अपनी सखी को कहती है,

हे सुलक्षणे! माता मंगळागौरी की उपासना, सेवा करने के कारण मै अखण्डसौभाग्यवती बनूंगी! मेरा पती अगर अल्पायु भी होगा तभीभी मेरी तपस्या के कारण वह दीर्घायुष्यी होगा!

यह बात मामा ने सुन लई थी!

मध्यान्ह समय के पश्चात वे दोनो मामाभांजे आनंद नगर कि राजधानी में आए जहा विवाह होने वाला था!

अब वहा ऐसा हुआ था!

राजकुमारी का विवाह बाह्लिक देश के राजकुमार सुकेतु के साथ सुनिश्चित हुआ था, किंतु वह राजकुमार सुकेतु अत्यंत कुरूप, बहरा, विद्याहीन था!

तब प्रधान अमात्य मन्त्रियोंने सोचा की विवाह विधी होने तक किसी दुसरे को लाकर बिठादेते है और बाद में राजकुमार सुकेतु को भेज देते है!

किंतु आनंदनगर में ऐसा चाहिए कि जिसे नगरवासी जानते नही हो, तभी उन्हे ये दोनो मामा भांजे मिले, यात्रियों के भेस के कारण उन्हे विश्वास हुआ कि यह दोनों को यहा कोई नही जानता है!

और तो और राजकुमार चिरायु तो अत्यंत सुंदर दिखते थे, वे थे ही राजकुमार तो राजपुत्र के भाँति प्रतीत होने का कोई प्रश्न ही नही आता!

तब तो हुआ राजकुमार चिरायु को दुल्हा बनाकर विवाह मंडप में लाया गया! उनका विवाह संपन्न हुआ, रात्रीकी वेला में राजकुमार चिरायु को थकान के कारण शीघ्र निद्रा आयी, और वे सो गये! मध्यरात्री में उनकी सोलह वर्ष की आयु पूर्ण होने वाली थी अतः उन्हे दंश करने हेतू एक भयानक सर्प वहा उपस्थित हुआ, गहरी निंद में होने के कारण राजकुमार की निद्रा भंग नही हुई किंतू राजकुमारी जग गई! और देखा तो क्या? आगे भयानक सर्प था! राजकुमारी ने धैर्य से नागदेवता को प्रणाम किया और कहा आप इस प्रकार मेरे पती के प्राण हरण नही कर सकते! मैने माता मंगळागौरी का व्रत किया है, उनकी सेवा की है! तो आप भगवान श्रीकृष्ण की वाणी असत्य सिद्ध करना चाहते हो क्या राजकुमारी की वाणी सुनकर वह सर्प वहांसे गया नही, किंतु एक कमंडलू में प्रवेश कर गया! तब राजकुमारी ने उस कमंडलू को अपनी ओढनी से बाँध लिया! और उसे फेकने केलिए राजमहल के बाहर निकली, रात्री की अंतिमवेला थी मामाश्री अपने भांजे चिरायु को लेने वहा आएं, उन्होने चिरायु को जगाया, उस समय चिरायु की नवरत्न मय अंगूठी वहा गिर पडी... वे दोनो तुरंत वहासे निकल गए!

फिर राजमंत्री तथा अमात्योंने सुकेतु को वहा लायां तब राजकुमारी ने कहा की यह मेरा पती नही है!

राज दरबार में तहलका मच गया फिर विवाह हुआ किसके साथ.....?

इधर मामा भांजे दोनो वाराणसी आचुके थे वहा उन्होने एकवर्ष भगवान की आराधना सेवा की!

जब पुनः अपने कुरूदेश की तरफ प्रस्थान किया बीच में आनंद राज्य में आएं.. वहा उन्होने सुना की राजकुमारी का विवाह किसी अन्य के साथ हुआ है न की सुकेतू के साथ! और राजा उस वर को ढूंढ रहे है.

राजकुमार चिरायु जब महाराज वीरसेन के दरबार में पधारे तो राजकुमारी ने उन्हे पहचान लिया! और कहा की मेरे पती आ गये है!

तब राजाको मामाने राजकुमार चिरायु का परीचय दिया और महाराज वीरसेन जी ने बडे हर्षोल्लास के साथ अनेक भेटवस्तुओंके साथ अपनी पुत्र को विदा किया.....

जब राजकुमार एकवर्ष तक वाराणसी में थे उस दरम्यान श्रावण मास में मंगलवार के दिन राजकुमारी ने देवी मंगलागौरी का व्रत बडे धूमधाम से किया था परिणाम उसके पती का अपमृत्यू टलगया था और वह अखण्डसौभाग्यवती हो गयी थी.....

अतः नयीनवेली सुहागनों को चाहिए की श्रावण मास के प्रथम मंगलवार को इस व्रत का आचरण करें तथा उत्तम एवं दीर्घायुष्यी पती प्राप्ती हेतूं विवाह पूर्व काल में कन्यांओंने भी इस व्रत का आचरण करना चाहिए!

माता मंगलागौरी की कृपासे हर एक कन्या अखण्डसौभाग्यवती होती है!

देवी भागवत महापुराणम् के अनुसार यह मंगलागौरी देवी को ही मंगलचंडिका कहा गया है!

उनका मंत्र तथा स्तोत्रम् दोनों का वर्णन देवी भागवत तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृतिखण्ड में आता है!

अतः कन्यांओं को चाहिए की उत्तम पती प्राप्ती हेतू देवी मंगलचंडिका का मंत्र

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सर्वपूज्ये देवि मंगलचण्डिके हुं हुं फट् स्वाहा इस मन्त्र का जप करना चाहिए!

यह मंगलचंडिका देवी की आयु षोडशवर्ष कही है!.

उन्हे

पूज्ये मङ्गलवारे च मङ्गलाभीष्टदेवते कहा है!

अतः माता मंगलागौरी की कृपा हेतू इस व्रत को करना चाहिए!

जयदेवी जयदेवी जय मंगलागौरी!

ॐ नमश्चण्डिकायै

लेखन व प्रस्तुती

निरंजन मनमाडकर

Next Story
Share it