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ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की दशा और दिशा

ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की दशा और दिशा
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कोरेना - पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान यात्रा के तहत इस समय सायकिल से भ्रमण कर रहा हूँ। कोरेना - पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान यात्रा के दौरान पुरुषों के साथ साथ स्त्रियों से भी संपर्क हो रहा है । कोरेना और पर्यावरण के प्रति उन्हें जागरूक करने के साथ साथ उनसे विभिन्न मसलों पर संवाद भी हो रहा है । साथ ही उनकी दशा और दिशा क्या है, इसे भी देखने का अवसर मिल रहा है । आज का लेख अपने अनुभवों के आधार पर पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

मानव सृष्टि के दो ध्रुव हैं - स्त्री और पुरुष । दोनों एक दूसरे के पूरक । सिर्फ शारीरिक स्तर पर ही नही, कार्य के संपूर्णता के स्तर भी । जहां एक ओर स्त्री घर का काम संभालती है, वहीं पुरुष बाहर का काम संभालता है । जहां स्त्री भोजन बनाने का काम करती है, वही पुरुष खेती या कमाने का काम करता है। जहां स्त्री संतति को जन्म देने का उत्तरदायित्व निभाती है, वहीं पुरुष उसके भरण-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध करता है । इसी तरह से शारीरिक और मानसिक क्षमता के अनुरूप सामाजिक ऋषियों ने दोनों के कार्यों का विभाजन किया था।

किंतु समय के साथ जैसे जैसे स्त्री शिक्षित होती गई। अपने को हर क्षेत्र में सबल करती गई। वैसे - वैसे उसने परंपरागत निर्धारकों में परिवर्तन करना शुरू कर दिया । जब तक स्त्री अशिक्षित रही, तब तक वह चूल्हा चौका और बच्चे की मशीन बनी रही। लेकिन जैसे ही सबल और शिक्षित हुई। वह पुरुष द्वारा निर्धारित दायरे से बाहर निकली । हालांकि चूल्हा चौके से उसका नाता नही टूटा, लेकिन वह विभिन्न प्रतियोगिताओं में सफलता प्राप्त कर शासन और प्रशासन में भी अपनी भूमिका निभाने लगी । प्राथमिक शिक्षा और नर्सिंग दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिन पर महिलाओं का एकाधिकार कहा जाए तो अतियुक्ति नही होगी । इतना ही नही, आज कोई भी ऐसा क्षेत्र नही है, जहां पर महिलाएं अपनी योग्यता और श्रमशीलता का लोहा न मनवा रही हों । गुटका और धूम्रपान की आदत न होने के कारण कई कारखाने भी अपने यहाँ महिला कामगारों को वरीयता देते है ।

लेकिन जब हम ग्रामीण स्त्रियों की स्थलीय स्थिति का अध्ययन करते हैं, तो पाते हैं कि अधिकांश मामलों में वे आज भी वे पुरुषों की गुलाम हैं । ग्रामीण क्षेत्र की महिला चाहे जितना पढ़ी लिखी हो, मैंने देखा कि वह घर के पुरुषों की अनुमति के बगैर कहीं आ - जा नही सकती है । हां, इतना जरूर देखने मे आया कि अगर कहीं आस-पास जाना हो तो वह अपनी माँ या बड़ी भाभी की अनुमति लेकर जा सकती है । अधिकांश मामलों में यह अनुमति नही होती है, केवल सूचना होती है । लेकिन अगर माँ या भाभी ने मना कर दिया, तो वह नही जा सकती है। जबकि लड़के पहले की तरह आज भी कहीं भी बिना माता पिता की अनुमति के आ जा सकते है। बाद में आने पर अगर पूछा जाता है , तो बता देते है। लेकिन कुछ बदलाव जरूर देखने को मिला। पहले स्त्रियां या लड़किया अपनी बात चाहे भी हो या पिता से कहना होता था, तो माँ या भाभी का सहारा लेती थी । लेकिन आज वह उनसे खुद अपनी बात करती हैं। लेकिन किसी चीज के लिए जिद आज भी माँ या भाभी के माध्यम से मनवाना पड़ता है। जिद करने का अधिकार आज भी ग्रामीण क्षेत्रों की स्त्रियों या लड़कियों को नही प्राप्त है ।

अब थोड़ी बात पहरावे की कर लेते है । शहरों की तरह गांव में भी पहरावा सम्पन्ता और प्रतिशीलता का पर्याय माना जाता है । इस कारण सभी ग्रामीण अपनी हैसियत से अधिक खर्च अपने घर की स्त्रियों के पहरावे पर करते हैं । अगर नफासत को छोड़ दें, तो आज गांव और शहर की लड़कियों और स्त्रियों के पहरावे में कोई अंतर नही रह गया है। बस अंतर इतना दिखता है कि शहर की स्त्रियों के कपड़े प्रेस होते हैं, उसमें सिकुड़न नही होती है। वे अच्छी तरह धुले होते हैं । भले ही घर घर मे साबुन व सर्फ उपलब्ध हों, फिर भी गांव में रहने वाली स्त्रियों के कपड़ों का पीलापन दिखाई देता है । गॉंव की अधिकांश लड़कियां सलवार सूट और स्त्रियां साड़ी ही पहनती हैं । अभी किशोरावस्था प्राप्त लड़कियां जीन्स पहने नही दिखाई दी। सिर्फ छोटी बच्चियां कहीं कही जीन्स पहने दिखी । लेकिन जब मैंने इस पर चर्चा की, गांव की कुछ अधेड़ महिलाओं ने बताया कि तर त्योहार या शादी विवाह के अवसर पर कुछ लड़कियां, जो कभी शहर में रही हों, वे पहने हुए दिखती हैं ।

भोजन से लेकर घर की सफाई और जानवरों के गोबर उठाने से लेकर उन्हें घूर तक फेकने की जिम्मेदारी महिलाओं की है। सुबह उठने और नित्य क्रिया से निपटने के जानवरों को चारा डालने से लेकर सफाई का काम शुरू कर देती हैं । अगर घर मे दुधारू जानवर हैं, तो दूध निकालने से लेकर खाना पकाने तक का काम स्त्रियां ही करती हैं । लेकिन यह भी देखने मे आया कि उन्हीं के घर की स्त्रियां दूध निकालती दिखी। जिसके घर के पुरूष बाहर रहते हैं या जिनके घर के पुरूष घुमक्कड़ या राजनीति करते हैं । क्योंकि उनके आने जाने का कोई समय नही होता है । इस कारण ऐसे घरों की स्त्रियां ही दूध निकालती हैं । खाना पकाने का काम आज भी घर की स्त्री को ही करना पड़ता है । चाहे वह कामसुत क्यों हो । खाने के स्तर में जरूर परिवर्तन आया है । आज कल की स्त्रियां डिमांड करने लगी हैं कि अगर खाना हो तो बाजार से यह सब्जी लेते आना । इस तरह से स्त्रियों की स्थिति पहले से थोड़ी अच्छी हुई है। लेकिन आज भी हर स्त्री भोजन पुरुषों के कर लेने के बाद ही करती है । लड़कियों में जरूर थोड़ा अंतर देखने को मिला है कि अगर भूख लगी हो, तो वे माँ या भाभी से मांग कर या पूछ कर खा लेती हैं ।

ग्रामीण स्त्रियों और लड़कियों का शिक्षा स्तर बढ़ा है । अब गांव का गरीब से गरीब या पिछड़ी सोच रखने वाला व्यक्ति भी अपनी लड़कियों की हाई स्कूल या इंटर तो करवा ही देता है । अगर गांव से बाहर दूर नही है, तो बीए करवाने का भी सोचता है । बातचीत में इसके पीछे दो कारण समझ मे आये। एक तो यह कि अगर लड़की पढ़ी लिखी नही है, तो उसकी शादी में दिक्कत होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी हर किसी की यही इच्छा रहती है कि उसकी बहू पढ़ी लिखी हो । इस कारण सभी अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपनी लड़कियों को पढ़ाते हैं । इसके अलावा उच्च शिक्षा के प्रति भी लोगों का रुझान बढ़ा हैं । उच्च शिक्षा प्राप्त कर अगर वह नौकरी पा गई, तो बड़ी आसानी से उसका विवाह अच्छे खानदान और नौकरी पेशा लड़के से हो जाता है । अपनी लड़की के आर्थिक पक्ष से माँ बाप की चिंता भी समाप्त हो जाती है। ये कारण भी लोग अपनी लड़कियों की बीटीसी, बीएड या नसिंग कोर्स कराते मिले । एक भावना और ग्रामीण क्षेत्र में परिलक्षित हुई। लोगों का मानना है कि अगर बहू या लड़की शिक्षित होगी, तो आगे की पीढ़ी सुधरेगी ।

इस यात्रा के दौरान एक चीज और देखने को मिली। जिसके घर की लड़कियां या बहुएं पढ़ी लिखी है, वे कोई नया काम करने के पहले उनसे भी विचार विमर्श जरूर करते हैं । अगर बहू नई है, तो अपनी पत्नी के माध्यम से उसका भी विचार जानते है। चर्चा के दौरान लोगों ने बताया कि सिर्फ पूछते नही, बल्कि उनके नए विचार को तरजीह भी देते हैं।

अपने स्वास्थ्य के प्रति भी गांव की महिलाएं काफी जागरूक हुई हैं । आज कल तो जरा सा सर दर्द भी होता है, तो मेडिकल से दवा मंगा कर खा लेती है। और ज्यादा परेशानी होने पर समीप के डॉक्टर के पास भी अपने बड़े भाई, पति या पिता के साथ जाकर दवा लेती हैं ।

लेकिन एक दुर्गुण और देखने को मिल रहा है । जिस घर का कोई कमाने लगता है, वे आराम परस्त हो जाती है । साथ ही उनकी दिनचर्या भी अव्यवस्थित हो जाती है । घर ही इज्जत घर की व्यवस्था हो जाने के बाद उनकी दिनचर्या भी अव्यवस्थित हो गई । वे देर से जगती हैं, और देर से सोती हैं ।

कल शाम से मैं इटावा में हूँ । इस क्षेत्र का अधिकांश युवा सेना, पैरा मिलिट्री या पुलिस में है। नौकरी म3 होने के कारण या तो उनकी शादी किसी शहर की लड़की से हुई है। या पढ़ी लिखी लडक़ी से हुई । गांव नजदीक होने के बाद भी ऐसी तमाम विवाहित औरतें इटावा में घर बनवा कर या किराए से रह रही हैं । और उनके सास ससुर व अन्य परिजन गांव में रह रहे हैं ।

लेकिन जैसे जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, नौकरी और रोजगार के अवसर बढ़ें हैं । वैसे वैसे एकल परिवार की प्रवृत्ति में भी इजाफा हुआ है । गावों की औरतो ने बताया कि आज बहुरिया आई, कल से ही अलग होने करने लगती है । कोई एक साल में, कोई दो साल में, कोई तीन साल में कामयाब हो ही जाती है। जो नही कामयाब होती, वे बच्चों की शिक्षा के बहाने अलग रहने लगती हैं । इस तरह संयुक्त कुटुम्ब के पर्याय माने जाने वाले गांव बंटवारे की वजह से शहरों की तरह एकल राह पर चल पड़े हैं । लोक लज्जा की मर्यादा न हो, तो वे अपनें माँ बाप से ही अलग हो जाएं ।

समय के साथ साथ गावों के उद्दात जीवन ही उद्दात सोच में भी गिरावट आई है । पहले के गांव में सामूहिकता और सामाजिकता पाई जाती थी, जिसमे अब निरंतर गिरावट आ रही है । उसकी जगह निज स्वार्थ, कटुता और ईर्ष्या लेने लगी है । फिर भी अभी गांव गांव हैं। जहां जाने, रुकने, खाने, विश्राम करने, बातचीत करने में भारतीयता की सुगंध मिलती है । हालांकि यह भी उतना ही सच है कि खुद की शहरी गांव को शहर बनाने के चक्कर मे वे अपने मूलभूत ढांचे को परिवर्तित करते जा रहे है।

संसाधनों से सम्पन्न गांव में उस मिट्टी की सोंधी खुशबू नही मिलती, जिसे ऋषियों मुनियों ने अपने तप से सींचा था। आज के गावों न तो खेत जोतते बैल दिखते हैं, न धूल उड़ाती गोधूलि बेला की गायें। चरागाहों पर लोगों कब्जा कर लिया और तालाबों पर घर बना डाले । बाग बगीचे जो गांव की शान हुआ करते थे, अब सड़कों के किनारे अपना अस्तित्व बचाने के लिए से संघर्ष कर रहे हैं ।

गांव में जो संस्कृति और परंपरा बची हुई है। उसका श्रेय ग्रामीण महिलाओं को जाता है । अपनी त्यागमयी जीवन शैली को छोड़ने और भोग की ओर प्रवृत्त होने कर कारण उन्हें भी कम दोषी नही माना जा सकता।

प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट

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