चातुर्मास और नेचरोपैथ : परहेज व सावधानियाँ

सनातनी व्यवस्था के अनुसार हर वर्ष देवशयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी तक के समय को चातुर्मास के रूप में जाना जाता है । इसके अंतर्गत चार महीने सावन, भादो, अश्विन व कार्तिक आते हैं। सनातनी व्यवस्था के निर्देश के अनुसार कोई मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं । ऐसा कहा जाता है कि इस दौरान भगवान विष्णु विश्राम करते हैं। लेकिन सनातन धर्म में दिनचर्या और आचरण की जो व्यवस्था बताई गई है, नेचरोपैथ उसे वैज्ञानिक मानते हुए उसकी पुष्टि करता है । वर्षा ऋतु होने के आकाश में बादल छाए रहते हैं। जिसकी वजह से वे पृथ्वी तक नहीं पहुँच पाती है। यानि धूप नहीं निकलती है। अगर निकलती भी है, तो बादलों के साथ लुका-छिपी का खेल खेलती है । इसकी वजह से हवा में नमी की मात्रा बढ़ जाती है। धूप नहीं निकलने की वजह से बैक्टीरिया और वायरस बड़ी तेजी से पनपते हैं। और किसी रूप में जो उसकी चपेट में आता है, उसकी तबीयत खराब हो जाती है। इसी कारण नेचरोपैथ इन चार महीनों में अपने उपचार की पद्धति में विशेष बदलाव करता है । आइये चातुर्मास के संबंध में नेचरोपैथ क्या-क्या करने और क्या-क्या खाने चाहिए इस पर चर्चा करते हैं –
1. ब्रह्ममुहूर्त में उठना - चातुर्मास में सनातनी व्यवस्था यह कहती है कि चातुर्मास में हर व्यक्ति को ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए। नेचरोपैथ भी इसका समर्थन करता है। और अपने पास आए सभी मरीजों को ब्रह्ममुहूर्त में उठने, नित्यक्रिया से निवृत्त होकर मुंह पर मास्क या गमछा लगाकर टहलने की व्यवस्था करता है। नियमित रूप से किछ विशेष कसरत और योग करने के लिए प्रशिक्षित करता है। ऐसे समय में जब सम्पूर्ण विश्व कोरेना संक्रमण झेल रहा है । उससे बचने के लिए ब्राह्ममुहूर्त में जागना और नित्य करना बहुत जरूरी है ।
2. जल-नेति - वातावरण में अधिक नमी होने की वजह से श्वसन नली और तंत्र में नमी की मात्रा बढ़ जाती है। श्वसन के साथ कुछ हानिकारक बैक्टीरिया और वायरस भी श्वसन तंत्र में प्रवेश कर जाते हैं, जिसकी वजह से सांस लेने में दिक्कत, खांसी - जुकाम - बुखार होने की संभावना बढ़ जाती है। इस कारण एक कुशल नेचरोपैथ सभी को अपने निर्देशन में गुनगुने पानी से जल-नेति की क्रिया करवाता है। वर्षा ऋतु, जरूरत के मुताबिक कभी-कभी वह उसमें एंटीबैक्टीरियल वनस्पतियों का पानी भी इस्तेमाल करवाता है। ऐसे समय में जब सम्पूर्ण विश्व कोरेना महामारी से संक्रमित है, यह क्रिया बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है ।
3. योगाभ्यास व प्राणायाम करना - चतुर्मास के दौरान सनातनी व्यवस्था और नेचरोपैथ दोनों योग और प्राणायाम करने की अनुशंसा करते हैं । इससे शरीर के सभी अंग सुचारु रूप से काम करते हैं। और उनकी सुदृढ़ता और लचक भी बनी रहती है। उनका पोषण भी ठीक से होता रहता है और वर्षा ऋतु के बाद भी शरीर बैक्टीरिया और वायरस से लड़ने के लिए सक्षम होता है ।
4. गरम पानी से स्नान - वर्षा ऋतु में अधिक नमी और गर्मी की वजह से शरीर से पसीना निकलता है, या शरीर चिपचिपी हो जाती है। जिसकी वजह से शरीर और कपड़ों में दुर्गंध आने लगती है और चरम रोग होने की संभावना अधिक होती है। कोरेना संक्रमण के दौरान ऐसे में अगर वह मुंह, नाक आदि छूता है, तो वह संक्रमित हो सकता है। इस कारण एक कुशल नेचरोपैथ एंटीबैक्टीरियल वनस्पति युक्त गरम जल से स्नान की व्यवस्था करता है। जिससे शरीर या कपड़े पर उपलब्ध बैक्टीरिया और वायरस मर जाते हैं, और व्यक्ति स्वस्थ रहता है ।
5. गरमागरम नाश्ता - चातुर्मास यानि वर्षा ऋतु के दौरान एक कुशल नेचरोपैथ की सभी को यही सलाह रहती है कि वे गरम - गरम नाश्ता करें। नाश्ता बनने के 50 मिनट के अंदर-अंदर हर हाल में नाश्ता कर लें। नहीं हो एक घंटे के बाद उसके खराब होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है । और अगर काफी देर से रखा हुआ नाश्ता करता है, तो उसे कई कंप्लीकेशन होने की संभावना बनी रहती है।
6. रोग प्रतिरोधक क्षमता - चातुर्मास या वर्षा ऋतु के दौरान बैक्टीरिया और वायरस से प्रभावित न हों, इसके लिए एक कुशल नेचरोपैथ की यही कोशिश रहती है कि उसके संपर्क में आने वालों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कैसे बढ़े और मेंटेन रहे । इसी कारण वह सुबह बनोषधि युक्त काढ़ा पीने की सलाह देता है। साथ ही किसी न किसी रूप में गाय के दूध और घी का प्रयोग करने की सलाह देता है। लेकिन ऐसे समय में वह गरम दूध और गरम घी खाने की व्यवस्था करता है ।
7. तखत या जमीन पर सोना - सनातनी व्यवस्था के अनुसार चातुर्मास के दौरान किसी भी व्यक्ति को पलंग पर नहीं सोना चाहिए । उसे जमीन पर या पलंग पर सोना चाहिए । ऐसा दिशा-निर्देश देता है। नेचरोपैथी इस व्यवस्था का समर्थन करता है और लोगों को सूखी जमीन या तख्त पर सोने की सलाह देता है। साथ ही दिन में सोने की पूरी तरह से मनाही करता है। दिन में सोने से बैक्टीरिया और वायरस जनित कई बीमारियों के होने का खतरा रहता है ।
8. भोजन व्यवस्था - चातुर्मास के दौरान सबसे अधिक निर्देश भोजन व्यवस्था को लेकर दिये गए हैं। क्या खाना चाहिए, क्या नहीं खाना चाहिए, इसका उल्लेख मिलता है। नेचरोपैथ भी इसका पूर्ण समर्थन करता है और उसे वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसते हुए क्या खाना चाहिए क्या नहीं खाना चाहिए, इसका निर्देश जारी करता है। एक कुशल नेचरोपैथ इन चार महीनों में एक एक विशद भोजन कार्यक्रम ही तैयार करके उसका पालन सुनिश्चित कराता है । आइये उसी पर विचार करते हैं –
9. बासी भोजन निषेध - चातुर्मास के दौरान सनातनी व्यवस्था और नेचरोपैथ दोनों इस बात पर ज़ोर देते हैं कि सभी को ताजा भोजन कर लेना चाहिए । भोजन पकने के 24 मिनट से लेकर 48 मिनट तक हर हाल में सभी को भोजन कर लेना चाहिए। इसके बाद भोजन ठंडा होते ही उसमें बैक्टीरिया और वायरस पनपने लगते हैं। बासी भोजन का तो पूरी तरह से दोनों व्यवस्थाओं द्वारा निषेध किया है। शाम का बचे हुए भोजन को अगर हम सुबह देखें तो उसमें फंगस लगे हुए दिखाई देते हैं और दुर्गंध आने लगती है । अगर कोई इन्हें खा लेता है, तो वह किसी न किसी बीमारी के चपेट में तुरंत आ जाता है । इसलिए चातुर्मास के दौरान बासी भोजन कदापि नहीं खाना चाहिए ।
10. अधिक तेल का सेवन न करना - सनातनी व्यवस्था के अनुसार चातुर्मास के दौरान अधिक तेल या तेल से बनी वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए । और जो भी तेल उपयोग में लाना चाहिए, वह नई फसल से निकाले गए बिलकुल नहीं होना चाहिए ।
11. मांसाहार वर्जित - सनातनी व्यवस्था और नेचरोपैथ दोनों के अनुसार चातुर्मास के दौरान मांसाहार नहीं करना चाहिए। क्योंकि इस समय के मांस में वायरस और बैक्टीरिया बहुत तेजी से पनपते हैं। और जो भी मांस खा लेता है, उसे बीमार पड़ने की प्रायिकता अधिक होती है। अगर मांस खाना मजबूरी हो, तो उसे बड़ी देर तक ऊंचे तापमान पर पकाना चाहिए। इससे हानिकारक बैक्टीरिया और वायरस मर जाते हैं लेकिन साथ ही साथ उसके पोषक तत्व भी नष्ट हो जाते हैं ।
12. शहद का उपयोग वर्जित - सनातनी व्यवस्था और नेचरोपैथ दोनों चातुर्मास के दौरान खुली शहद के उपयोग करने की मनाही करते हैं। लेकिन आज कल डिब्बे या बोतलों में बंद शहद उपलब्ध होने के कारण उसका उपयोग औषधि के रूप में किया जा सकता है। लेकिन उन शीशियों को सूखे और प्रकाशयुक्त स्थान पर रखना चाहिए ।
13. गुड़ का उपयोग नहीं - चातुर्मास और नेचरोपैथ दोनों चातुर्मास के दौरान गुड़ के उपयोग पर पाबंदी लगाते हैं । क्योकि हमारे देश में गुड़ ग्रामीण पद्धति से ही तैयार किया जाता है। जिससे उसके अधपके होने की संभावना अधिक रहती है। इस कारण अगर चातुर्मास के दौरान गुड़ सेवन किया जाता है, तो उसे इन्फेक्शन, बदहजमी और नकसीर जैसी समस्या हो सकती है ।
14. हरी सब्जियों का निषेध - सनातनी व्यवस्था के अंतर्गत चातुर्मास के दौरान हरी सब्जियों का निषेध किया गया है। नेचरोपैथ भी उसकी हिमायत करता है। लेकिन आज कल खाना पकाने के वैज्ञानिक उपकरणो की उपलब्धता के कारण अगर औषधीय रूप से उसे सब्जी या उसका जूस देना जरूरी होता है, तो एक कुशल नेचरोपैथ अपनी निगरानी में उसे एक निश्चित तापमान पर उसके एक निश्चित अवधि तक पकवाता है। इसके बाद रोगी को देता है। वैसे उसकी भी कोशिश यही रहती है कि पत्तेदार सब्जियों को देने से बचा जा सके ।
15. बैगन का निषेध - नेचरोपैथ और सनातनी व्यवस्था दोनों ही चातुर्मास के दौरान बैगन का उपयोग वर्जित करते हैं। इसका कारण यह है कि यह एक प्राकृतिक मूत्र वर्धक है । एलर्जी में भी वृद्धि करता है। ही साथ अवसाद को बढ़ाता है और तेल अधिक सोखने की वजह से हाजमा को खराब करता है ।
16. कम नमक का उपयोग - सनातनी व्यवस्था तो इस दौरान नमक के प्रयोग पर निषेध करता है। इसका समर्थन नेचरोपैथ भी करता है । क्योंकि इस दौरान अधिक नमक का सेवन करने से डिहाइड्रेशन, रिटेनशन, रक्तचाप, गुर्दे की पथरी, गैस की समस्या होने की संभवना अधिक होती है ।
इसके अलावा चातुर्मास के दौरान एक नियमित समय पर ही भोजन करना चाहिए । शाम का भोजन अगर सूर्यास्त के पहले संभव हो, तो अति उत्तम है । इसके अलावा और भी कुछ छोटी मोटी सावधानियाँ हैं, जिसका अनुपालन हर मनुष्य को करना चाहिए । वैसे सनातनी व्यवस्था के अनुसार स्त्री के पास सोना और संभोग करना भी वर्जित है। चूंकि चातुर्मास के दौरान अधिक भक्ति, पूजा- अर्चना का प्रावधान है। संभोग करने से उसमें व्यवधान पड़ता है और मन भी चंचल हो जाता है। इस कारण ऐसा प्रावधान किया गया है । लेकिन नेचरोपैथ इसका प्रतिवाद करता है और सुरक्षित संभोग की ही अनुमति देता है।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट