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नेताजी के कंधे चढ़कर, गांधी को धकियाते हुए, हिन्दू-राष्ट्र का भागवत एलान

नेताजी के कंधे चढ़कर, गांधी को धकियाते हुए, हिन्दू-राष्ट्र का भागवत एलान
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(आलेख : बादल सरोज)

लगता है, आरएसएस ने अपने शताब्दी वर्ष की चहलकदमियों का उद्यापन महात्मा गाँधी के तर्पण के साथ करने का निर्णय ले ही लिया है। धीरे-धीरे उन्होंने उस वेदी को सजाना शुरू कर दिया है, जिसमें वे गांधी की -- एक बार फिर – आहुति देंगे। शुरुआत खुद सरसंघचालक ने नवम्बर में नागपुर में दिए एक बयान से की और अभी बंगाल में उसमें एक और तड़का लगाकर हवनकुण्ड को थोड़ा और सुलगाया। इसका एक स्पष्ट अभिप्रेत भी है और कुनबे के लिए मुट्ठियां बाँध स्वाहा-स्वाहा का कोरस शुरू करने का संकेत भी है। यह संदेश भी है कि रात बाकी है, बात बाकी है। भक्तवृंद अब आलाप को मद्धम और उसके बाद तीव्र से तीव्रतर तक पहुंचाएं – बहुत हो गया संघ शाखा में प्रार्थना के बाद गाये जाने वाले एकात्मता स्तोत्र में “ महात्मा गांधी विनायक दामोदर सावरकरः। रमणो महर्षिः श्री अरविन्दो रवीन्द्रनाथ टागोरः" का गान – अब अपने असली काम पर लगो जवान!!

कोलकता में ‘आर एस एस : 100’ पर व्याख्यान देते हुए संघ सुप्रीमो मोहन भागवत ने कहा कि "चरखा चला चला कर स्वराज (आजादी) मिलेगा, ऐसा नहीं है।" साफ़ है कि यह उस स्वतन्त्रता संग्राम - जिसके साथ 100 के हुए संघ का एक दिन का भी संग नहीं है - की समीक्षा या उसका पुनरावलोकन करते हुए की गयी सरसरी टिप्पणी नहीं थी। यह चरखा, जिसे चलाने की कोशिश करने की मुद्रा में कुनबे के बड़े वाले मोदी भी तस्वीर उतरवा चुके हैं, यह जिनका प्रतीक है, उन गांधी पर उपालम्भ है। इस रौ में भागवत जी ने, बिना पलक झपकाए, बिना मुंडी झुकाए, आजादी की उस अनूठी और दुर्घर्ष माने जा रहे आधिपत्यकारी के खिलाफ लड़ाई के कई आयाम गिना दिए, जिसमे उनके संघ की पल-क्षण भर की भी हिस्सेदारी नहीं थी। अपनी उस भूमिका के बारे में कुछ भी ग्लानि या पश्चाताप किये बिना ही वे, जिन्होंने सोयी जनता को जगाकर अंग्रेजों की खटिया ऐसी खड़ी की कि बाद में न कभी सीधी हो पायी, न कभी बिछ पाई, उस महान स्वतंत्रता संग्राम की शल्यक्रिया करने बैठ गये।

बिलाशक इसमें अनेक धाराएं थीं – चरखा भी था, मुट्ठी भर नमक भी था, पार्लियामेंट में धमाका करने वाला बम भी था, फांसी के फंदों पर झूले युवा भी थे : मगर इस कभी नरम-नरम, कभी गरम-गरम संग्राम में संघ के करम और धतकरम क्या थे? देश यह उम्मीद कर रहा था कि कम-से-कम 100वें साल में तो वह कुछ बताएगा। मगर बताएं तो तब, जब बताने को कुछ हो। अभी पिछले सप्ताह सावरकर प्रसंग में इस बारे में थोड़ा जिक्र किया जा चुका है, इसलिए उसे दोहरा नहीं रहे।

असल बात यह है कि जब खुद की वंशावली में अंधियारा होता है, तो उधार की रोशनी चुराने का ही रास्ता बचता है। और इस मामले में इस कुनबे का मुकाबला कोई भी शर्मदार संगठन नहीं कर सकता – कोलकता में इसी चौर्य कला का प्रदर्शन किया गया l गांधी को अपरोक्ष में धकियाया गया और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को अपनाने का झूठ नए तरीके से गढ़ा गया।

भागवत जी ने कहा कि “नेताजी सुभाष चंद्र बोस और आरएसएस का अंतिम लक्ष्य एक ही था — भारत को महान और शक्तिशाली बनाना। परिस्थितियाँ और समय के अनुसार मार्ग अलग हो सकते हैं, लेकिन गंतव्य सदैव समान रहा है।” उन्होंने नेताजी को 'आधुनिक भारत के शिल्पकारों' में से एक बताया और कहा कि देश की स्वतंत्रता में उनके द्वारा किए गए सशस्त्र संघर्ष के योगदान को केवल कृतज्ञता के लिए ही नहीं, बल्कि उनके राष्ट्रवाद के गुणों को आत्मसात करने के लिए भी याद रखना चाहिए। ऐसा करते-करते उन्होंने वर्तमान पीढ़ी से आह्वान किया कि वह नेताजी के आदर्शों, सिद्धांतों और 'राष्ट्रवाद की भावना' को अपने भीतर उतारें ताकि उनके संकल्पों को सिद्ध किया जा सके।

सुभाषचन्द्र बोस के राष्ट्रवाद की बात करते-करते भागवत जी ने भारत को हिन्दू राष्ट्र ही ‘घोषित’ कर दिया। उन्होंने दावा किया कि “भारत पहले से ही हिंदू राष्ट्र है और इसके लिए भारतीय संविधान से किसी मंजूरी की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह "सत्य" संविधान को ठेंगा दिखाने के अंदाज में वे बोले कि "सूर्य पूर्व में उगता है ; हमें नहीं पता कि यह कब से हो रहा है। क्या इसके लिए भी संवैधानिक मंजूरी चाहिए? हिंदुस्तान हिंदू राष्ट्र है। जो कोई भी भारत को अपनी मातृभूमि मानता है और भारतीय संस्कृति की सराहना करता है, हिंदुस्तान की भूमि पर पूर्वजों की गौरवगाथा में विश्वास करने वाला और उसे संजोने वाला कम से कम एक व्यक्ति जीवित रहते तक भारत हिंदू राष्ट्र है।"

लगभग धमकी देने के अंदाज में उन्होंने आगे कहा कि आरएसएस, जो हिंदुत्व की विचारधारा पर दृढ़ता से विश्वास रखता है, इस बात की परवाह नहीं करता कि संसद संविधान में संशोधन करके भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करे या नहीं। "अगर संसद कभी संविधान में संशोधन करके वह शब्द जोड़ने का फैसला करती है, तो करें या न करें, ठीक है। हमें उस शब्द की परवाह नहीं है क्योंकि हम हिंदू हैं, और हमारा राष्ट्र हिंदू राष्ट्र है। यही सत्य है।“ इसे गले उतारने की मंशा से उन्होंने यह असत्य भी गढ़ा कि “जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था हिंदुत्व की विशेषता नहीं है।"

जिन नेताजी सुभाष की आभा में वे अपने इस कलुषित विचार को परोस रहे थे वे किस कदर इस विचारधारा और इनके पुरखों के खिलाफ थे, यह बात बंगाल, देश और दुनिया का हर वह शख्स जानता है, जो नेताजी को जानता है l मगर इसके बाद भी धड़ल्ले से कुछ भी दावा ठोंकने की इतनी ढीठ दीदादिलेरी सिर्फ इसी कुनबे में पायी जाती है।

जिस हिन्दू साम्प्रदायिकता का संघ आज सबसे बड़ा कार्टेल, कॉर्पोरेट और गाढ़ा जहरीला घोल बना हुआ है, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस हमेशा उसके सख्त खिलाफ रहे। इसके उदाहरण इतने हैं कि इनसे भारत सरकार द्वारा आधिकारिक रूप से संकलित और प्रकाशित किया गया नेताजी का समूचा वांग्मय भरा पड़ा है। यहाँ इनमे से एक-दो पर ही नजर डाल लेते हैं।

इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण उनका वह भाषण है, जो भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित नेताजी संपूर्ण वाङ्मय में ‘भारत की मूलभूत समस्याएँ’ शीर्षक से छापा गया है। नेताजी ने यह व्याख्यान नवंबर 1944 में टोक्यो विश्वविद्यालय के शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच दिया था। इसका विषय ठीक वही ‘मेरे सपनों के भारत का ख़ाक़ा’ था, जिसके साथ एकरूपता और एक एकमंतव्यता का दावा संघ प्रमुख कोलकता में कर रहे थे।

इस भाषण में नेताजी ने कहा था कि "भारत में कई धर्म हैं। अत: आज़ाद भारत की सरकार का रुख सभी धर्मो के प्रति पूरी तरह तटस्थ और निष्पक्ष होना चाहिए और उसे यह चुनाव प्रत्येक व्यक्ति पर छोड़ देना चाहिए कि वह किस धर्म को मानता है।”

यह सिर्फ 1944 भर के एक भाषण की बात नहीं है, अपने जीवन भर नेताजी सुभाष इसी सोच पर चलते रहे और दोनों तरह की साम्प्रदायिकता से लड़ते रहे। एक समय तक कांग्रेस के न सिर्फ दरवाजे हिन्दू महासभाईयों और मुस्लिम लीगियों दोनों के लिए खुले रहते थे, बल्कि वे इन दलों के सदस्य और पदाधिकारी रहते हुए भी कांग्रेस में भी पदाधिकारी बना करते थे। जब 1937 में सावरकर हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने और हिन्दू-मुस्लिमों के दो अलग राष्ट्र का प्रस्ताव पारित करवाकर भारत के दो टुकड़े कराने की आधारशिला रखी और हिन्दू महासभा ने एक तरफ अपने को हिंसक और कट्टर साम्प्रदायिक दिशा में मोड़ दिया, दूसरी तरफ खुलेआम सीधे-सीधे अंग्रेज़ों से मेल-जोल करके स्वाधीनता के लिए चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन का विरोध में अपनी नीति अपना ली, तब ये सुभाषचंद्र बोस थे, जिन्होंने न सिर्फ सावरकर की अंग्रेजपरस्ती की खुली आलोचना की, बल्कि काँग्रेस का अध्यक्ष बनते ही 16 दिसंबर 1938 को एक प्रस्ताव के जरिये काँग्रेस के संविधान में संशोधन करवा कर हिंदू महासभा तथा मुस्लिम लीग के सदस्यों के काँग्रेस की समितियों में चुने जाने पर रोक लगाने का पक्का प्रावधान कर दिया। इस तरह इन दोनों विषाणुओं के लिए सारे खिड़की-दरवाजे बंद कर दिए।

इन तत्वों के प्रति नेताजी कितने सख्त और स्पष्ट थे, यह बात किसी और ने नहीं, स्वयं भाजपा के पूर्व-अवतार जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष और इनके पितृपुरुष, तब के बंगाल में हिन्दू महासभा के सबसे बड़े नेता डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने ही हाथों से अपनी डायरी में लिखी है। डॉ. मुखर्जी लिखते हैं कि “एक बार बोस उनसे मिले थे और उन्होंने यह कहा था कि यदि आप हिन्दू महासभा को एक राजनीतिक दल के रूप में गठित करते हैं, तो मैं देखूंगा कि आप उसका राजनैतिक गठन कैसे करते हैं? यदि आवश्यकता पड़ी, तो मैं उस कदम के विरुद्ध बल प्रयोग करूँगा और यदि यह सच में गठित होती भी है, तो मैं इसे लड़ कर भी तोडूंगा।”

पूरे भारत को एक दिन वाम भारत बनने का सपना देखने वाले जिन नेताजी के काँधे पर सवार होने की आरएसएस प्रमुख असफल कोशिश कर रहे थे, उनके प्रति द्वेष, द्रोह और उनके संघर्ष के प्रति गद्दारी के दस्तावेजी सबूत भी कम नहीं है। राष्ट्रीय अभिलेखागार संघ, सावरकर और हिन्दू महासभा के ऐसे कारनामों से भरा पड़ा है।

आजाद हिन्द फ़ौज जब बर्मा के रास्ते आगे बढ़ रही थी, तब मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की साझी सरकार के उप-मुख्यमंत्री ने नेताजी की इस फ़ौज को रोकने के लिए एक लम्बी-चौड़ी योजना अंग्रेज सरकार के गवर्नर को सौंपी थी : ये उपमुख्यमंत्री महाशय कोई और नहीं, स्वयं श्रीमान डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी थे, वे ही जो संघ के सर्वकालिक पूज्यों में शामिल हैं। इसे पहले ही लिखा जा चुका है कि किस तरह इस कुनबे के पूज्य सावरकर, नेताजी की आईएनए से लड़ने के लिए एक लाख से अधिक हिन्दू युवाओं को अंग्रेज फ़ौज में भर्ती करवाने के ‘पुण्य काम’ में जुटे हुए थे।

नेताजी से आरएसएस ने शुरू से ही कैसी दूरी बनाई थी, इसकी कथा डॉ. हेडगेवार के सरसंघचालकत्व में गठन के साथ बने पहले सरकार्यवाह – महासचिव – बालाजी हुद्दार ने अपनी किताब में दर्ज की है। वे बताते हैं कि जब वे नेताजी सुभाष की मुलाक़ात का संदेश लेकर डॉ. हेडगेवार के पास गए, तो उन्होंने बीमारी का बहाना बनाकर उनसे मिलने से इंकार कर दिया। जब बालाजी ने जोर दिया, तो वे सचमुच बीमार दिखने का अभिनय करते हुए पलंग पर लेट गए। बालाजी बताते हैं कि जैसे ही वे उनसे मिलकर बाहर निकले, वैसे ही उनके कमरे से हंसी-ठट्ठा की आवाजें फिर शुरू हो गयीं। असल बात यह थी कि नेताजी से मिलकर हेडगेवार अंग्रेजों को नाखुश नहीं करना चाहते थे।

राजनीति में धर्म का इस्तेमाल किये जाने को लेकर नेताजी सुभाष का गुस्सा कितना तीखा था, यह 14 मई 1940 की आनंद बाजार पत्रिका में छपी खबर से स्पष्ट हो जाता है। इसमें दो दिन पहले झाड़ग्राम की सभा का समाचार है, जिसमें नेताजी ने कहा कि “हिंदू महासभा ने त्रिशूलधारी संन्यासी और संन्यासिनों को वोट माँगने के लिए जुटा दिया है। त्रिशूल और भगवा लबादा देखते ही हिंदू सम्मान में सिर झुका देते हैं। धर्म का फ़ायदा उठाकर उसे अपवित्र करते हुए हिंदू महासभा ने राजनीति में प्रवेश किया है। सभी हिंदुओं का कर्तव्य है कि इसकी निंदा करें। ऐसे गद्दारों को राष्ट्रीय जीवन से निकाल फेंकें। उनकी बातों पर कान न दें।“ नेताजी के इस सीधे-सीधे तिरस्कार, धिक्कार और बहिष्कार के आह्वानों को लीपने का काम जितना आसान भागवत जी समझ रहे है, उतना आसान नहीं है।

बहरहाल नेताजी अभी बंगाल चुनाव को देखते हुए याद आ रहे हैं, चुनाव निबटते ही वैसे ही बिसरा दिए जायँगे, जैसे 2014 के चुनाव के बाद उनकी फाइल्स सार्वजनिक किये जाने का वादा भुला दिया गया था। असल सिलसिला गांधी को लेकर शुरू किया गया है और इसका आगाज़ कोलकता से एक पखवाड़े पहले इन्हीं मोहन भागवत ने नागपुर में दिए एक व्याख्यान से कर दिया था। नागपुर में उन्होंने कहा कि “गांधीजी ने अपनी पुस्तक हिंद स्वराज में लिखा है कि अंग्रेजों के आने से पहले हम एकजुट नहीं थे, लेकिन यह उनके द्वारा हमें सिखाई गई झूठी कहानी है।” इसके विस्तार में जाते हुए उन्होंने अनेक राजाओं के अंग्रेजों के साथ हुए झगड़ों का हवाला दिया। वे कैसी एकता बताना चाहते थे, ये तो वे ही जाने, किन्तु यह जरूर साफ़ हो जाता है कि गाँधी के प्रति उनका रुख उन्हें मारने-मरवाने के बाद भी नहीं बदला है। भले मजबूरी में 1960 एकात्मता स्त्रोत में – सो भी सावरकर के साथ - नासेमजद करना पड़ा, मगर इस बीच गोडसे महिमागान के साथ इरादे ताजे बनाए रखे जाते रहे।

गांधी की धारणाओं और उनके किये के लिए अभी तक नेहरू-भंजन किया जाता रहा है : अब लुकाछुपी छोड़ सीधे गांधी हत्थे पर चढ़ाए जायेंगे। मनरेगा के साथ जुड़े उनके नाम की छुट्टी कर उसे ‘जी राम जी’ बना दिया जाना इसी का हिस्सा है। इधर एक भुजा ने उनका नाम हटाया है, उधर दूसरी भुजा उनके कहे को मुद्दा बना रही है। कईयों का मानना है कि अंततः यह एन राम जी – नाथूराम गोडसे – रोजगार योजना में बदल जाए, तो ताज्जुब नहीं होगा।

गांधी इनके लिए और अनेक वजहों से साथ इसलिए और ज्यादा ख़तरनाक हैं, क्योंकि वे जितने कट्टर हिन्दू थे, उतने ही पक्के सनातनी भी थे ; यह सब होते हुए भी वे जी जान से हिन्दू राष्ट्र की कायमी के विरुद्ध थे। उनका कहना था कि “किसी देश में यदि सौ की सौ आबादी एक ही धर्म को मानने वाली हो, तब भी उसे धर्म के आधार पर नहीं चलाया जाना चाहिए। राजनीति में धर्म को सख्ती और कड़ाई के साथ प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए।“ उनकी यही समझ हिंदू राष्ट्र की अ-भारतीय मांग करने वालों के हाथों उनकी हत्या का कारण बनी। आज भी गाँधी उनके लिए बाधा ही हैं : 1948 की 30 जनवरी के बाद भी जो गाँधी को खत्म नहीं कर पाए, वे अब अपनी 100वें साल में उनका उद्यापन करना चाहते हैं।

(लेखक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)

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