पितृसत्ता में कैद आरएसएस

(आलेख : सवेरा, अनुवाद : संजय पराते)
हाल ही में, अपनी संस्था की स्थापना के सौ साल पूरे होने पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत उसकी छवि सुधारने की कोशिश में लगे हुए हैं। वह 'पढ़े-लिखे' या 'जाने-माने' लोगों की सभाओं में – जिनमें ज़्यादातर आरएसएस के समर्थक होते हैं – लंबे-लंबे भाषण दे रहे हैं, जिसमें वे आरएसएस की विचारधारा समझा रहे हैं। इसका मकसद आरएसएस को एक राष्ट्रवादी संगठन के तौर पर दिखाना है, जो हिंदुत्व या सनातन धर्म के सिद्धांतों पर चलकर सद्भाव और भाईचारा फैलाने के लिए प्रतिबद्ध है। इस प्रक्रिया में उन्होंने आरएसएस की एक धोखा देने वाली छद्म छवि बनाने की कोशिश की है, यह दावा करते हुए कि जो भी मातृभूमि से प्यार करते हैं, वे सभी हिंदू हैं, चाहे वे किसी भी तरह से पूजा करते हों या कोई भी रीति-रिवाज मानते हों, कि भारत/इंडिया सोच और भौतिक समृद्धि दोनों में दुनिया का नेतृत्व करेगा, आदि-इत्यादि। हाल ही में उन्होंने जिन मुद्दों पर बात की थी, उनमें से एक था महिलाओं के बारे में आरएसएस का नज़रिया। यह ज़रूरी था, क्योंकि आरएसएस पूरी तरह से पुरुषों का संगठन है, जिसमें इसकी प्रतिनिधि सभा (पूरे भारत के प्रतिनिधियों की संस्था) में कुछ ही महिलाएं सहयोगी संगठनों से आती हैं, लेकिन आरएसएस की प्राथमिक सदस्यता में या इसकी शाखाओं (सदस्यों की रोज़ाना की बैठकें) में महिलाओं को शामिल होने की इजाज़त नहीं है। पुरुषों और लड़कों को इस तरह से संगठित करने का यह तरीका, जिनसे उम्मीद की जाती है कि वे सभी हिंदुओं को फिर से जगाएंगे और पूरी दुनिया को बदल देंगे, अगर काल्पनिक नहीं, तो पुराना ज़रूर लगता है। भागवत ने यह ज़ोर देकर कहा है कि समस्या समाज में है – लोग महिलाओं को देवी की तरह पूजते हैं, लेकिन उन्हें वहीं रोक देते हैं, जबकि असल दुनिया में वे महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और शोषण करते हैं। यह हिंदू समाज का एक अच्छा वर्णन लग सकता है, लेकिन यह आसानी से इस सवाल से बच जाता है : हिंदुओं के घोषित संगठनकर्ता और पुनर्जागरण करने वाले आरएसएस ने पिछले 100 सालों में इस बारे में क्या किया है? उसने महिलाओं को संगठित करने का काम राष्ट्रीय सेविका समिति नाम के एक सहायक संगठन पर क्यों छोड़ दिया है, लेकिन पैतृक आरएसएस में महिलाओं को कभी इजाज़त क्यों नहीं दी? आरएसएस ने दहेज और दुल्हन को जलाने ; बेटे की चाहत और गिरते लिंग अनुपात ; घरों और समाज में महिलाओं के खिलाफ हिंसा ; महिलाओं को देखभाल के काम के लिए घरों तक सीमित रखने ; और समाज पर पितृसत्तात्मक सोच की पकड़ के ऐसे ही अन्य संकेतकों जैसे मुद्दों को कभी क्यों नहीं उठाया?
इसकी जड़ पितृसत्ता में है
आरएसएस हिंदुत्व या सनातन धर्म (जैसा कि वे इसे कहने लगे हैं) के लिए प्रतिबद्ध है, जो पितृसत्ता के पिछड़े और घिनौने विचारों से भरा हुआ है। इसका कुछ अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अलग-अलग हिंदू धार्मिक ग्रंथ महिलाओं के बारे में क्या कहते हैं। यहाँ पूरी तरह से विश्लेषण करना संभव नहीं है, लेकिन एक उदाहरण काफी होगा। नीचे दिए गए अंश दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व शिक्षिका मीना गुप्ता द्वारा प्राचीन ग्रंथों पर किए गए शोध पर आधारित हैं।
ऋग्वेद कहता है कि किसी महिला की बुद्धि का ज़्यादा महत्व नहीं होता। हालांकि ऋग्वेद मानता है कि लड़की को अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार है, लेकिन अथर्ववेद कहता है कि पति के प्रति समर्पण पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। वेद बार-बार बेटों को ज़्यादा अहमियत देते हैं और मानते हैं कि संपत्ति का अधिकार पुरुषों में निहित होता है, महिलाओं में नहीं। वेद विधवाओं को दोबारा शादी करने की इजाज़त देते हैं।
रामायण कहती है कि महिलाएं स्वभाव से टेढ़ी, चंचल और धार्मिक ज्ञान से रहित होती हैं। यह कहती है कि पति उसके लिए भगवान और मालिक होता है। हालाँकि औरतों का परित्याग एक क्रूर काम माना जाता है, लेकिन सीता का उनकी पवित्रता पर सवाल उठने के बाद परित्याग कर दिया जाता है। राम कथा के एक लोकप्रिय संस्करण, रामचरितमानस में, जिसे 1600 ईस्वी में लिखा गया था, तुलसीदास ने बदनाम तरीके से लिखा है कि महिलाओं को उसी तरह पीटने की जरूरत है, जिस तरह ढोल, असभ्य लोगों, नीची जाति के लोगों और जानवरों को पीटने की ज़रूरत होती है।
महाभारत कहता है कि किसी महिला से ज़्यादा पापी कोई जीव नहीं है, वह ज़हर है, साँप है ; वे व्यवहार में झूठी होती हैं ; वे आज़ादी के लायक नहीं हैं ; उन्हें सेक्स बहुत पसंद होता है। यह कहता है कि महिलाओं को पति के बाद अपना भोजन करना चाहिए ; पति का जूठन खाना चाहिए ; जब वह खड़ा हो, तो वह भी खड़ी हों ; उसके सोने के बाद बिस्तर पर जाएं ; उसका नाम न लें ; पीटे जाने पर भी विनम्र रहें ; उसके साथ बदतमीज़ी न करें ; अपने पति को जवाब न दें ; उसकी बात तुरंत मानें। यह विधवा पुनर्विवाह पर रोक लगाता है, लेकिन अगर पहली शादी पूरी नहीं हुई थी, तो पति के छोटे भाई से पुनर्विवाह की इजाज़त देता है। महाभारत की पूरी कहानी द्रौपदी के अपमान के इर्द-गिर्द घूमती है। यह कहता है कि जब पत्नी गलती करे, तो उसे रस्सी या फटे बांस से पीटना चाहिए। भगवद गीता कहती है कि महिलाएं पतन की शिकार होती हैं और उन्हें सुरक्षा की ज़रूरत होती है।
अर्थशास्त्र कहता है कि महिलाओं पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए, वे लापरवाह, झूठी, धोखेबाज़, बेवकूफ, लालची, अधर्मी और क्रूर होती हैं ; महिला का दिल बँटा हुआ होता है ; महिलाएं सभी घरेलू झगड़ों, युद्धों और पापी कृत्यों की जड़ होती हैं ; महिला की असली जगह चारदीवारी के अंदर है। यह भी कहता है कि पति के बिना महिला अधूरी है, कि वह अपने पति के पैर धोने से निकले पानी को पीकर खुद को पवित्र कर सकती है। विधवा पुनर्विवाह मना है। यह पत्नी की पिटाई को सही ठहराता है।
मनुस्मृति नींद, वासना, गुस्सा, बेईमानी, द्वेष और बुरे व्यवहार को महिलाओं से जोड़ती है ; उन्हें बेरहम और बेवफ़ा कहती है और कहती है कि उनकी रखवाली करनी चाहिए ; कि उन्हें आज़ादी नहीं देनी चाहिए, नहीं तो वे सामाजिक ढाँचे को बिगाड़ देंगी ; वे चंचल होती हैं। इसमें कहा गया है कि एक आदमी अपनी पत्नी को छोड़ सकता है, गिरवी रख सकता है या बेच सकता है। एक पत्नी को कभी भी अपने पति को नाराज़ नहीं करना चाहिए। एक लड़की अपना पति नहीं चुन सकती। हालाँकि इसमें कहा गया है कि बेटे और बेटियाँ दोनों बराबर हैं, लेकिन यह भी कहा गया है कि अगर पत्नी सिर्फ़ बेटियाँ पैदा करती है, तो ग्यारहवें साल में उसे छोड़ा जा सकता है। यह महिलाओं को संपत्ति का अधिकार नहीं देती है। यह विधवा पुनर्विवाह को हतोत्साहित करती है, हालाँकि कुछ अपवाद भी हैं। मनुस्मृति पत्नी की गलतियों के लिए उसे पीटने को सही ठहराती है।
शिव पुराण में महिलाओं का अपमान करने के लिए एक पूरा अध्याय समर्पित है, जिसमें उन्हें पापी, असभ्य, दोषों से भरी और माया का प्रतीक बताया गया है। देवी भागवत पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण, भगवद पुराण कहते हैं कि महिलाओं के प्राकृतिक गुण झूठ, चालाकी, अधीरता, लालच, दंड से मुक्ति, कठोरता, धोखेबाजी, क्रूरता हैं। नारद पुराण कहता है कि जो महिलाएं अपनी मर्ज़ी से काम करती हैं, वे नरक में जाएंगी। गरुड़ पुराण कहता है कि महिला वेश्या, व्यभिचारिणी, अशुभ, झगड़ालू होती है, और उसमें पवित्रता की कमी होती है। अग्नि पुराण, मत्स्य पुराण, ब्राह्मण पुराण सभी कहते हैं कि महिलाएं वेदों का अध्ययन करने के योग्य नहीं हैं। पुराण इस बात पर भी ज़ोर देते हैं कि एक महिला का शाश्वत कर्तव्य अपने पति की सेवा करना है, चाहे वह पापी हो या संत। शिव पुराण पत्नी के उन कर्तव्यों को दोहराता है, जो महाभारत में बताया गया है। बेटे को प्राथमिकता दी जाती है, यह कहते हुए कि अगर किसी पुरुष का बेटा नहीं, है तो वह स्वर्ग नहीं जा सकता। श्रीमद् भागवत पुराण में उत्तराधिकार सिर्फ बेटों के लिए है। विधवा पुनर्विवाह की अनुमति है, अगर पिछली शादी पूरी नहीं हुई थी, लेकिन विधवाओं के लिए कठोर नियम हैं, जिनमें सती या सिर मुंडवाना, ज़मीन पर सोना, सिर्फ उबले चावल खाना, आईना न देखना आदि शामिल हैं।
पुरुषों की श्रेष्ठता और महिलाओं को संपत्ति समझने की ये बातें, हालांकि ये हिंदुत्व या भारतीय समाज के लिए बिल्कुल भी अनोखी नहीं हैं, वर्तमान समाज में बड़े पैमाने पर फैली हुई हैं, इसके बावजूद कि सामाजिक बुराइयों को कम करने के लिए कई कानून बने हुए हैं। आरएसएस ने कभी भी इस पितृसत्तात्मक सोच को गंभीरता से चुनौती नहीं दी है या इसके खिलाफ लोगों को लामबंद नहीं किया है। असल में, जैसा कि हम देखेंगे, यह हिंदुत्व में महिलाओं की ऊँची स्थिति की सिर्फ़ बातें करता है, जबकि अभी भी वह यही कहता है कि उनकी मुख्य भूमिका घर में ही है।
गोलवलकर और मातृत्व
आरएसएस के सबसे प्रभावशाली विचारक, एम.एस. गोलवलकर उर्फ गुरुजी के अनुसार, एक महिला की तीन भूमिकाएँ होती हैं – घर के अंदर माँ के रूप में, अपने समाज में माँ के रूप में, और समाज को संगठित करने वाली माँ के रूप में। वह महिलाओं को 'मातृशक्ति' कहते थे, यह प्रथा आज भी आरएसएस के लोगों में जारी है।
घर में, वह उन माताओं की तारीफ़ करते हैं, जो सुबह उठकर भजन गाती हैं, और वह अपने बचपन को याद करते हैं, जब सुबह अपनी माँ के सुरीले गाने सुनकर उठा करते थे। वह माताओं को बच्चों को देवताओं की तरह कपड़े पहनाकर तैयार करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जैसा कि उनकी माँ करती थीं, क्योंकि इससे बच्चे में भक्ति की भावना आती है। वह महिलाओं से ऐसे 'नायक (हीरो)' पैदा करने का आग्रह करते हैं, जो देश की शान के लिए काम करेंगे।
यह मानते हुए कि ज़्यादातर महिलाओं को बाहर जाकर समाज में बहुत ज्यादा काम करने का समय नहीं मिलेगा, गोलवलकर सलाह देते हैं कि कम-से-कम महिलाएं पड़ोस में परेशान महिलाओं की मदद कर सकती हैं या 'उपयोगी संपर्क' बना सकती हैं। "हमारी महिलाओं में हमें हीन भावना या लाचारी की भावना पैदा नहीं होने देनी चाहिए। उन्हें सिखाया जाना चाहिए कि वे पराशक्ति की जीती-जागती प्रतीक हैं," वे लिखते हैं। वह यह भी सलाह देते हैं कि महिलाएं अपने पड़ोस के बच्चों की देखभाल कर सकती हैं और उनमें अच्छे संस्कार डाल सकती हैं। यह सब समाज में 'मातृशक्ति' का काम होगा।
समाज को संगठित करने के लिए, गुरुजी के पास बहुत कम सलाह है। वह बार-बार कहते हैं कि महिलाओं को अपना रास्ता खुद खोजना होगा – इसे वे उनके मामलों में 'दखल न देना' बताते हैं। वह मानते हैं कि परिवार पहले आता है और न केवल परिवार की देखभाल करने में, बल्कि बच्चों की परवरिश करने और उन्हें नेक और धार्मिक बनाने में भी महिलाओं की अहम भूमिका होती है। उसके बाद, यह उन पर निर्भर करता है कि वे समाज में काम करने के लिए समय और ऊर्जा कैसे निकालती हैं। इसका व्यावहारिक मतलब यही है कि असल में महिलाएं ज़्यादा कुछ नहीं कर सकतीं।
आरएसएस के आनुषांगिक संगठनों में महिलाएं
जब भी आरएसएस या उससे जुड़े संगठनों के साथ महिलाओं का सवाल उठाया जाता है, तो जवाब आता है कि हमारे पास राष्ट्रीय सेविका समिति है, जो पूरी तरह से महिलाओं का संगठन है। आरएसएस के संस्थापक के.बी. हेडगेवार की खास इजाज़त से 1936 में लक्ष्मीबाई केलकर ने इसकी स्थापना की थी। यह समिति मुख्य रूप से आत्मरक्षा के लिए शारीरिक प्रशिक्षण, विभिन्न तरह की व्यावसायिक कुशलता और सांस्कृतिक (धार्मिक) प्रशिक्षण देने का काम करती है। यह मुख्य रूप से आरएसएस के मॉडल पर आधारित है, जिसकी मुखिया एक प्रमुख संचालिका (चीफ डायरेक्टर) होती हैं और सदस्यों को 'सेविका' कहा जाता है। दावा किया जाता है कि समिति के चार लाख सदस्य 4000 से ज़्यादा जगहों पर फैले हुए हैं।
लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह समिति आरएसएस का सिर्फ़ एक सहयोगी संगठन है, जो कई संगठनों में से एक है। इसके पदाधिकारी प्रतिनिधि सभा के सदस्य हैं, जिसकी अध्यक्षता आरएसएस के सरसंघचालक (सुप्रीम लीडर) और उनके डिप्टी, सरकार्यवाह करते हैं। यह समिति एक सहायक संगठन है, जिसका मकसद आरएसएस के एजेंडे के लिए महिलाओं को जुटाना है। उदाहरण के लिए, अभी यह संगठन आरएसएस की शताब्दी मनाने के लिए उसके दूसरे सहयोगी संगठनों के साथ मिलकर मातृत्व सम्मेलन (मदरहुड कॉन्फ्रेंस) आयोजित कर रही है। मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार, इन सम्मेलनों में, हिंदू राष्ट्र के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले नायकों को गढ़ने में माताओं की भूमिका के पुराने सिद्धांतों का ही प्रचार किया जा रहा है और उन पर ज़ोर दिया जा रहा है।
इस समिति के अलावा, दुर्गा वाहिनी नाम का एक और संगठन है, जो विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) की महिला शाखा है। यह आरएसएस से जुड़ा एक प्रमुख संगठन है, जो हिंदू हितों की रक्षा करने, हिंदू पहचान को फिर से स्थापित करने, हिंदू पवित्र स्थानों को संरक्षित करने आदि के लिए समर्पित है। दुर्गा वाहिनी की सदस्य, जिनमें ज़्यादातर युवा महिलाएं होती हैं, उन्हें लव जिहाद, मस्जिद विवाद जैसे ज़्यादा उग्र या आक्रामक कामों की ओर निर्देशित किया जाता है।
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (आरएसएस की छात्र शाखा) या भारतीय मजदूर संघ (आरएसएस द्वारा संचालित ट्रेड यूनियन) जैसे दूसरे संगठनों में भी महिला नेता और सदस्य हैं। छात्रा सदस्यों को भी आरएसएस के विचारों से प्रशिक्षित किया जाता है और बाद में उन्हें भाजपा में जगह मिल सकती है, जैसे दिल्ली की मुख्यमंत्री को मिली। लेकिन, जैसा कि उनके मामले में हुआ, विचारधारा की सीमाएं और आम लोगों की समस्याओं को हल करने में असमर्थता उनके लिए एक बड़ी रुकावट बनी रहती है। बीएमएस में महिला कार्यकर्ताओं को टकराव या वर्ग संघर्ष से बचने और मौजूदा मोदी सरकार के समय में, शासकों के साथ सक्रिय रूप से सहयोग करने के बारे में सिखाया जाता है।
महिलाओं के मामले में नाकाम है आरएसएस
मोदी सरकार के दौर में, महिला मतदाताओं की बढ़ती अहमियत के साथ, महिलाओं को सरकार में और ज़्यादा अहमियत मिली है। लेकिन महिलाओं के बारे में अपनी पिछड़ी सोच की वजह से आरएसएस महिलाओं के बड़े तबके को अपने साथ जोड़ने के लिए तैयार नहीं है, या उन्हें वैचारिक रूप से प्रभावित करने में सक्षम नहीं है, जो उन्हें ज़्यादा सशक्त भागीदारी से रोकती है। आज भी, आरएसएस महिलाओं की ज़्यादा ज़रूरी समस्याओं का समाधान करने में नाकाम है, जिनमें बेहतर रोज़गार के मौके, पितृसत्तात्मक उत्पीड़न के पिंजरे से आज़ादी, हिंसा का खात्मा, समान अधिकार और गरिमापूर्ण जीवन शामिल हैं।
यह भी उल्लेखनीय है कि पितृसत्ता के कई क्रूर और बहुत अमानवीय रूप हैं, जिनमें दहेज और दुल्हन को जलाना, सती, बाल विवाह और महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा शामिल हैं, आरएसएस के एजेंडे में नहीं हैं। सच तो यह है कि इन्हें परोक्ष रूप से सही ठहराया जाता है या कम से कम प्राचीन प्रथाओं से जुड़ा होने के कारण बर्दाश्त किया जाता है, हालांकि आम तौर पर आरएसएस के नेता महिलाओं का सम्मान करने और उन्हें देवी मानने की बात करते हैं। यही वह रास्ता है, जिसके जरिए आरएसएस अपने लिए मुश्किल मुद्दों से निपटता है – धोखेबाजी और दोहरी बातों से।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)




