मेहनतकश विजयी होंगे

(आलेख : एम ए बेबी)
पूरी दुनिया के मजदूरों के आंदोलन का इतिहास मेहनतकश लोगों की असाधारण हिम्मत और कुर्बानी से जुड़ा है। इन संघर्षों ने कभी खत्म न होने वाली उत्पीड़न की ज़ंजीरों को तोड़ दिया और मज़दूरों को अधिकार मिले, जिसमें 8 घंटे का कार्यदिवस और सामूहिक सौदेबाजी का अधिकार भी शामिल है। इस विरासत, जिस पर गर्व किया जा सकता है, की जड़ें 1893 की शिकागो हड़ताल और हे-मार्केट स्क्वायर की घटनाओं में हैं, जहाँ ‘काम के लिए आठ घंटे, आराम के लिए आठ घंटे, और अपनी मर्ज़ी के लिए आठ घंटे’ की मांग करने वाले मज़दूरों को भयंकर दमन का सामना करना पड़ा, लेकिन आखिरकार इसने एक वैश्विक आंदोलन भड़का दिया। भारत में भी, लाखों ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता और मज़दूर इस अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष का हिस्सा बने। भारतीय मज़दूर भी हमारे शानदार उपनिवेशवाद विरोधी स्वाधीनता संघर्ष में पूरी तरह से शामिल थे। मज़दूरों ने बड़े पैमाने पर एकजुट होकर और कुर्बानी देकर अपने अधिकार हासिल किए, जिससे उपनिवेशवादी शासकों और स्वतंत्र भारत में सरकारों को कानूनी सुरक्षा लागू करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
श्रम कानून बनाम श्रम संहिता
कड़े संघर्षों के बाद मज़दूरों द्वारा जीते गए अधिकारों को 29 कानूनों के ज़रिए भारतीय श्रम क्षेत्र के ताने-बाने में शामिल किया गया है। इनमें वेतन, औद्योगिक विवाद, सामाजिक सुरक्षा, सुरक्षा, काम करने की शर्तें, मुआवज़ा, प्रसव लाभ, बाल मज़दूरी जैसे ज़रूरी क्षेत्र और बहुत कुछ शामिल थे। कारखाना अधिनियम, न्यूनतम वेतन कानून, वेतन भुगतान अधिनियम, कर्मचारी राज्य बीमा कानून, औद्योगिक विवाद अधिनियम और ट्रेड यूनियन अधिनियम जैसे कानूनों ने मिलकर दशकों तक मज़दूरों के अधिकारों, सुरक्षा और सम्मान को परिभाषित किया। इन कानूनों ने विवाद सुलझाने, सामाजिक सुरक्षा, सीमित छंटनी और तालाबंदी करने, सामूहिक सौदेबाजी करने, 4 के ज़रूरी घंटे, वेतन सुरक्षा, लिंग-संवेदी सुरक्षा उपाय, स्वास्थ्य देखभाल और यूनियन बनाने या उसमें शामिल होने के अधिकार के लिए ठोस नियामक तंत्र बनाया। इन कानूनों को ठीक से लागू न किए जाने के बावजूद, वे पूरी तरह से शोषण और मनमानी शक्तियों के खिलाफ एक मज़बूत दीवार की तरह खड़े रहे।
‘सरलीकरण' और ‘व्यापार करने में आसानी' के नाम पर, केंद्र सरकार ने इन 29 कानूनों को चार संहिताओं में सीमित कर दिया है। मजदूरी पर संहिता (2019) कथित तौर पर मजदूरी के मानदंडों, न्यूनतम मजदूरी, भुगतान की समय सीमा और संबंधित लाभों का मानकीकरण करने की कोशिश करता है। औद्योगिक संबंध संहिता (2020) विवाद सुलझाने, हड़ताल, तालाबंदी, छंटनी को पुनर्परिभाषित करता है और ट्रेड यूनियनों के अधिकारों में कटौती करता है। सामाजिक सुरक्षा पर संहिता (2020) का मकसद प्रोविडेंट फंड, ईएसआई, भविष्य निधि, और कल्याण कोष से जुड़े कई मौजूदा सामाजिक सुरक्षा कानूनों को मिलाना है। पेशेगत सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम की परिस्थितियों पर संहिता (2020) अलग-अलग जगहों पर स्वास्थ्य, सुरक्षा, काम की परिस्थितियों और कल्याणकारी प्रावधानों को कवर करता है।
सरकार का दावा है कि इस पुनर्गठन का मकसद कुछ फायदों को युक्तिसंगत बनाना, आधुनिक बनाना, मॉडर्न बनाना है और यहां तक कि कुछ लाभों का विस्तार करना भी है – जैसे एक साल काम करने के बाद भविष्य निधि की पात्रता और सामाजिक सुरक्षा के तहत ‘गिग मजदूरों' को शामिल करना। जो लोग इस आधिकारिक उद्धरण को दोहराते हैं, वे सालाना स्वास्थ्य जांच और महिलाओं के रात में काम करने के प्रावधान को प्रगतिशील उपाय बताते हैं। लेकिन छानबीन करने पर ये घोषणाएं खोखली लगती हैं। असलियत यह है कि 90 प्रतिशत भारतीय मजदूर – जो असंगठित क्षेत्र में हैं, वे ठेके पर काम करने वाले और अस्थाई मजदूर हैं, घरों में काम करने वाली महिला मजदूर हैं, स्व रोजगार में लगे मजदूर हैं, प्रवासी (पलायन करने वाले) मजदूर हैं, गिग मजदूर हैं – ये सब इन संहिताओं के असरदार कवरेज से बाहर हैं, या असल में इससे बाहर रखे गए हैं। इसलिए, असल में, ये श्रम संहिताएं एनडीए सरकार की कॉर्पोरेट हितों के प्रति गुलामी को दिखाते हैं, जैसा कि अधिकारों, सुरक्षा और नियामक निरीक्षण में बड़े पैमाने पर कटौती से पता चलता है।
संहिता के इस खंड पर गौर करें कि जिन कंपनियों में 300 तक मजदूर हैं, उन्हें कर्मचारियों को निकालने या काम बंद करने से पहले सरकार से इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं है। पहले यह सीमा 100 मजदूरों की थी। इसका मतलब है कि ज़्यादातर भारतीय कंपनियाँ – यानी जिनमें 300 से कम मजदूर हैं, अब श्रम अधिकारियों की जाँच से बाहर काम करेंगी। इन जगहों पर काम करने वाले मजदूरों को नौकरी से निकाला जा सकता है, उन्हें वेतन और कल्याण से दूर रखा जा सकता है, या उन्हें मालिक की तरफ से बिना किसी सज़ा के मनमाने नियम मानने के लिए मजबूर किया जा सकता है। इस तरह की छूट से कॉर्पोरेशन और व्यापारिक घरानों का फ़ायदा होता है, जबकि मज़दूर वर्ग द्वारा जीती गई न्यूनतम कानूनी गारंटी ध्वस्त हो जाती है। सरकार की सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा' का आख्यान संहिता द्वारा दी गई असल छूट और प्रक्रियागत व्यवस्था के कमज़ोर होने से झूठा साबित हो जाता है – जिससे मजदूरों के लिए यूनियन बनाना मुश्किल हो गया है, सामूहिक कार्यवाही का आपराधिकरण किया जा रहा है, निरीक्षण को कमज़ोर किया जा रहा है और जवाबदेही से बचने के लिए अनुपालन का डिजिटलीकरण किया जा रहा है।
ज़्यादा काम, कम आराम
भारत के कार्यबल को ‘आधुनिक’ बनाने के कथित इरादे ने पूंजी के समर्थकों को बढ़ावा दिया है। मिसाल के तौर पर, इंफ़ोसिस के नारायण मूर्ति उस वक्त बदनाम हुए थे, जब उन्होंने सप्ताह में 70 घंटे के काम करने का समर्थन किया था। उनका यह तर्क था कि देश को आगे बढ़ाने के लिए भारत के युवाओं को ज़्यादा मेहनत करनी चाहिए। यह श्रम संहिता के पीछे की सोच को दिखाता है : ज़्यादा काम को सामान्य बनाना, आठ घंटे के मानक को खत्म करना और हर कार्यशील व्यक्ति से बिना किसी मुआवज़े या आराम के ज़्यादा निचोड़ना। ये संहिताएंं लंबी कार्यावधि, लचीली समयावधि और महिलाओं का रात में काम करने को भी कानूनी मान्यता देते हैं – बिना सुरक्षा कवच के या सामूहिक सौदेबाजी के तरीकों को मज़बूत किए बिना। चयन और लचीलेपन के नाम पर बनाए गए ये नियम असल में कॉर्पोरेटों की सुविधा के लिए हैं, मजदूरों की भलाई के लिए नहीं। हफ़्ते में काम के घंटों की बहस से जो बात सामने आती है, वह इनका विशुद्ध कॉर्पोरेट एजेंडा है।
इस सरकार का एजेंडा साफ़ है : देश के दो सबसे बड़े उत्पादक वर्गों -- मज़दूर और किसान -- पर लगातार हमला हो रहा है। कालक्रम पर ध्यान दें। जैसे मोदी सरकार ने खेती को बड़ी पूंजी के हवाले करने के लिए तीन किसान-विरोधी फार्म विधेयक लाया था, वैसे ही अब वह सामाजिक एकजुटता और संवैधानिक गारंटी को कमज़ोर करते हुए चार नए श्रम संहिताओं के साथ मज़दूरों के अधिकारों पर बुलडोज़र चला रही है। यह हमला देश के असली उत्पादकों पर है। किसान आंदोलन ने अपनी एकता और पक्के इरादे से सरकार को ऐतिहासिक हार दी थी। 2020 के आखिर से 2021 के आखिर तक, एक साल से ज़्यादा समय तक, मज़दूरों और यूनियनों के साथ मिलकर किसानों ने सरकारी दमन, निरंतर दुष्प्रचार और कोविड-19 महामारी के खतरों का सामना किया। 700 से ज़्यादा किसान शहीद हो गए, अपनी रोज़ी-रोटी की रक्षा के लिए और सरकार के अहंकार के खिलाफ़ प्रतिरोध करते हुए उन्होंने अपनी जान दे दी।
श्रम संहिता का पारित होना, कृषि विधेयकों के पारित होने जैसा ही था। इन्हें सितंबर 2020 में संसद में बिना किसी चर्चा के, विपक्षी पार्टियों और ट्रेड यूनियनों को नज़रअंदाज़ करके, और मज़दूरों के प्रतिनिधियों या राज्य सरकारों के साथ तीन-तरफ़ा सलाह-मशविरा किए बिना, ज़बरदस्ती पारित कर दिया गया था। इसके लिए बिना किसी जांच के सुरक्षा को खत्म करने के लिए महामारी का इस्तेमाल एक आड़ के तौर पर किया गया था ; सभी आपत्तियों, संशोधनों और विशेषज्ञों की सलाह को दरकिनार कर दिया गया। बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों से प्रेरित होकर और भारतीय अर्थव्यवस्था, जो लगातार केंद्र सरकारों द्वारा निर्धारित नव-उदारवादी रास्ते पर जा रही है, के अंदर बढ़ते संकट के बीच, चुनाव-पश्चात इन संहिताओं की अधिसूचना जारी करना, लोकतांत्रिक नियमों और संघीय विचार-विमर्श के ख़िलाफ़ है।
मज़दूर विरोध करेंगे
लेकिन मज़दूर चुप नहीं हैं। श्रम संहिताओं की अधिसूचना का पहले ही विरोध शुरू हो गया है। सभी मुख्य केंद्रीय ट्रेड यूनियनों और कई क्षेत्रीय फेडरेशनों समेत ट्रेड यूनियनों ने मिलकर कार्रवाई करने की अपील की है। 26 नवंबर को देश भर में हुई हड़ताल और प्रदर्शन भारतीय मज़दूरों की ताकत और उनकी यूनियनें क्या कर सकती हैं, इसका सबूत हैं। इन संघर्षों में फैक्ट्री क्लस्टर से लेकर असंगठित बस्तियों तक राज्यों के दसियों हज़ार लोगों ने हिस्सा लिया है। सड़कों पर विरोध प्रदर्शन, आम सभाएं, कानूनी चुनौतियाँ और बड़े पैमाने पर अभियान ज़ोर पकड़ रहे हैं। मज़दूर जानते हैं कि एकता और संघर्ष ही उनकी कड़ी मेहनत से हासिल किए गए अधिकारों की रक्षा करने और आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका है। संसद में भी, विपक्षी सांसद इन मजदूर -विरोधी संहिता का विरोध करने के लिए एक साथ आए हैं।
माकपा देश के मेहनतकशों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर श्रम संहिता को थोपने की पूरी तरह से निंदा करती है। वे भारतीय मज़दूरों की कई पीढ़ियों के पसीने, खून और कुर्बानी के साथ धोखा कर रहे हैं, उनके अधिकारों को मुनाफ़े और कॉर्पोरेट ताकत के अधीन कर रहे हैं। लेकिन जैसे एकजुट संघर्ष के सामने कृषि विधेयक वापस लिए गए थे, वैसे ही श्रम संहिताओं को भी वापस लेना होगा। सीपीआई(एम) मज़दूर वर्ग को अपना पूरा और पक्का समर्थन देने का वादा करती है। आगे बढ़ने का एकमा जुझारू प्रतिरोध है। दुनिया की कोई भी ताकत मेहनतकश लोगों की ऐतिहासिक जीत को मिटा नहीं सकती। इतिहास साबित करेगा कि लोगों की एकजुटता, संघर्ष और कुर्बानी से पूंजी पर मज़दूर जीत हासिल करेंगे।
(लेखक माकपा के महासचिव और पूर्व सांसद हैं।)




