Janta Ki Awaz
लेख

बिहार चुनाव : बिगड़े सुर, बेसुरी तान, अटपटे बोल, सन्निपात में एनडीए!

बिहार चुनाव : बिगड़े सुर, बेसुरी तान, अटपटे बोल, सन्निपात में एनडीए!
X


(आलेख : बादल सरोज)

बिहार विधानसभा के लिए दो चरणों में होने वाले मतदान के पहले चरण का अभियान पूरा हो चुका है। यूं तो पिछले कोई तीन दशक से बिहार के चुनाव किसी-न-किसी नयेपन के लिए देश का ध्यान आकर्षित करते रहे हैं, मगर इस बार कुछ ज्यादा ही नया दिखाई दे रहा है। यदि देखा जाए, तो बिहार की 18वीं विधानसभा का चुनाव वह पहला चुनाव है, जिसमे अभियान चलाने के लिए सबसे कम समय मिला और उसमें भी इसे फक्त दो चरणों तक महदूद कर दिया गया। यह अनायास नहीं था।

चुनाव आयोग ने सोच समझकर, लगभग चौंकाते हुए अचानक ही चुनाव की तारीखों का एलान अपार संसाधनों से लदी-फदी भाजपा की, सब कुछ फटाफट मैनेज करने की शक्ति और सामर्थ्य को आंकते हुए और विपक्षी गठबंधन की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए किया था। मगर बिहार के माहौल और मोदी-नितीश के एनडीए में हर बदलते दिन के साथ मुखर और नुमायां हो रही बेचैनी और घबराहट, बदहवासी और झल्लाहट को देखते हुए लगता नहीं है कि इस सरप्राईज की चतुराई का कोई फायदा सत्तारूढ़ गठबंधन को हुआ है।

पूरी तरह नेताविहीन एनडीए के लिए खुद के उसके भीतर और मतदाताओं के बीच न उत्साह है, न उमंग है, न दिशा है, न तरंग है और जैसे इबारत दीवार पर साफ़-साफ़ लिखे नजर आ रहे हैं, उसे देखते हुए लगता है कि कुनबे को ज्ञानेश कुमार वाले केंचुआ की काबिलियत भी संदिग्ध लग रही है। यही वजह है कि सुर बिगड़े हुए हैं, तान बेसुरी हुई जा रही है, बोल अटपटे हुए पड़े हैं।

अगुआई यहाँ भी मोदी ने संभाली हुई है, जिसका सीधा मतलब यह है कि मुख्य मुद्दों से ध्यान हटाने खाली गाल बजाना ही सत्तारूढ़ गठबंधन के अभियान की धुरी है। बिहार की सबसे बड़ी समस्या लगातार बढ़ती बेरोजगारी और उसके चलते होने वाला पलायन है। लोकतंत्र में यह उम्मीद की जाती है कि कम-से-कम चुनाव के दौरान तो ऐसी समस्याओं के बारे में बोला जाएगा, कुछ उपलब्धियां गिनाई जाएँगी, किये गए काम बताये जायेंगे, आने वाले समय के लिए ठोस योजनायें लायी जाएँगी। ख़ासतौर से तब तो यह और जरूरी हो जाता है, जब कुछ महीने के अन्तराल को छोड़कर लगातार बीस साल से बिहार की सरकार में भाजपा शामिल हो, केंद्र में भी 11 साल से अधिक हो चुके हों। लेकिन जब दिखाने को कुछ भी नहीं होता, तो बजाने के लिए मखानो का ही सहारा लेना पड़ता है। वही हो रहा है।

यह किसी भी प्रदेश का पहला चुनाव बन गया है, जहां सत्तासीन पार्टी बिना किसी रिपोर्ट कार्ड के दोबारा जनादेश मांग रही हो। ऐसे में बतोलेबाजी ही एकमात्र जरिया बचती है, वही की जा रही है। 10 साल पहले जिस दरभंगा में एम्स के बनने का दावा किया गया था, वह नहीं बना, तो भाजपा प्रचारतंत्र प्रायोजित खबरों में उस मैदान के मुहाने पर बने गेट की चार कॉलम की तस्वीरें छापकर उसकी ‘अद्भुत’ डिजाइन का गुणगान कर रहा है। कुछ सड़कें, कुछ पुल बनाने की दुहाई दी जा रही है, बिना यह बताये कि पिछली बरस उनमें से कितने पुल धड़ाधड़ गिरकर गिरने का एक रिकॉर्ड बना चुके हैं।

झूठे और निराधार जुमलों की हद यह है कि जिस बिहार को पिछले पांच वर्षों में दो हजार करोड़ का भी निवेश नहीं मिला, उसमें उससे ढाई हजार गुना मतलब 50 लाख करोड़ का निवेश लाने का ढपोरशंख बजाया जा रहा है। बाढ़मुक्त बना देने का जो झुनझुना दस साल पहले असम को पकड़ाकर भूल गए थे, वही अब मिथिलांचल को थमाया जा रहा है। गडकरी, यह जानते हुए भी कि उन्ही की सरकार है, जो दिल्ली से 11 और पटना से चार पंचवर्षीय राज कर चुकी है, अब अमरीका जैसी सड़कें बनवाने की ढपली बजा रहे हैं।

मोदी, जिन्होंने जनवरी 2018 में पकौड़ा बनाने को रोजगार सम्भावनाओं में शुमार करके देश को चौंकाया था, वे अक्टूबर 2025 में बिहार में उससे भी आगे बढ़ कर अपनी सरकार द्वारा मुहैया किये रोजगार अवसरों में रील बनाने के काम को भी शामिल कर युवाओं से इसका अधिक से अधिक लाभ उठाने का आव्हान कर रहे हैं।

जब इनसे भी बात नहीं बनती दिख रही, तो प्रधानमंत्री सड़कों पर झुनझुने और घुनगुने बजाते हुए रोड शो करने, मोबाइल की फ़्लैश लाइट जलाने बुझाने का करतब दिखाने और विदेशी नेताओं को भर-भर डब्बा मिथिलांचल का मखाना भेंट करने को उपलब्धि बताते घूम रहे हैं। मध्यप्रदेश के उनके मुख्यमंत्री मधुबनी को सीता मैया की ननिहाल बताते हुए भाजपा को छोड़ बाकी सारी पार्टियों से वहां से अपने प्रत्याशी वापस लेने को ऐसे कह रहे हैं, जैसे सीता अपनी ननिहाल इन्हें डिठौना लगाते में मिठाई की एवज में दे गयी हों ।

मोदी-नितीश जोट पर लग रही चोट से उपजी भड़भड़ाहट और बढ़ जाने की एक बड़ी वजह राष्ट्रीय जनता दल की अगुआई और वामपंथ की असरदार भागीदारी वाले महागठबंधन का चुनाव घोषणापत्र है, जो बेरोजगारी और पलायन, भयानक गरीबी और पिछड़ेपन के सांड को सीधे सींग से पकड़ता है और हर परिवार में एक सरकारी नौकरी से लेकर बिजली, रसोई गैस, महिलाओं को सिर्फ चुनाव के समय घूस नहीं, हर महीने राहत राशि देने सहित अनेक ठोस और समय सीमा में पूरे किये जाने वाले वायदे करता है। उसके वायदों की साख है क्योंकि पिछली बीस वर्षों में एक छोटे से वक्फे - 17 महीने - के लिए रही गैर-भाजपा सरकार के दौर में 5 लाख से ज्यादा सरकारी नौकरियों की बहाली करके एक उदाहरण प्रस्तुत किया जा चुका है और बिहार के युवाओं को यह आज भी याद है। महागठबंधन की लगभग पूर्ण एकता और उसका सामाजिक न्याय पर टिका संतुलन भी मोदी मंडली की घबराहट का कारण है।

दूबरे के दो आषाढ़ यह हैं कि खुल्लमखुल्ला जहरीला अभियान अभी तक – कम-से-कम पहले दौर तक – तो नहीं चलाया जा सका है। हालांकि इसका कारण संपोलों का शाकाहारी होना नहीं, नितीश का अल्पसंख्यकों और अति-पिछड़ों के वोट पाने का मुगालता है, जो इस बार पूरा नहीं होने जा रहा है।

एक और वजह कथित रूप से घुसपैठियों को निकाल बाहर करने के लिए की गयी मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण का फुस्स हो जाना और लगभग एक भी बाहरी या विदेशी का न पाया जाना है। अमित शाह ने अपनी रैलियों में शुरू में ‘घुसपैठियों’ का ज़िक्र किया। मगर फिर चुप लगा गए, क्योंकि जिन बंगलादेशी और रोहिन्गियाओं की भरमार का तूमार उन्होंने खडा किया था, वह एक भी नहीं निकला। ‘द वायर’ द्वारा अंतिम मतदाता सूची के विश्लेषण से पता चला है कि अयोग्य घोषित मतदाताओं की संख्या कुल मतदाताओं का केवल 0.012% है। इनमें से भी 85% से अधिक नेपाल की सीमा से लगे चार जिलों - सुपौल, किशनगंज, पश्चिम चंपारण और पूर्वी चंपारण - में केंद्रित थे ।

इसमें और गहराई में जाने पर यह तथ्य भी निकल कर सामने आया कि सुपौल में, अयोग्य घोषित की गईं लगभग सभी मतदाता नेपाली महिलाएँ थीं, जो शादी के बाद बिहार में बस गईं। इनमें से कई ने पिछले चुनावों में मतदान भी किया था और उनके पास आधार कार्ड, राशन कार्ड और निवास प्रमाण पत्र जैसे दस्तावेज़ भी थे। इसलिए एसआईआर का नाम भी नहीं लिया जा रहा, जबकि इसकी प्रतिक्रिया में आम मतदाताओं में उठा वोट चोरी का नारा अभी भी ताजा है और चारो ओर गूँज रहा है।

जाहिर है कि जब मुद्दे और तर्क दोनों ही न हों, तो शब्द गायब हो जाते हैं और सड़क छाप टपोरी भाषा वर्तनी बन जाती है, जिसमें यह कुनबा पूरी तरह सिद्ध है। इसे ही वापरते हुए प्रधानमंत्री कनपट्टी पर कट्टा लगाकर तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री घोषित करवाने और उनके बौने संस्करण योगी पप्पू, टप्पू, अप्पू की तुकबंदियों वाले अललटप्पू भाषण दिए जा रहे हैं। बंदरों की याद दिला रहे हैं। अमित शाह कवि रामधारी सिंह दिनकर को जे पी आन्दोलन का हिस्सा बता रहे हैं। योगी हाथ में माइक लेकर 60 मिनट के रोड शो में 260 बार जय श्रीराम और 70 बार मां जानकी के नारे लगा रहे है। इस तरह असल मुद्दों पर मुंह खोलने से कतरा रहे हैं।

बिहार में भाजपा गठबंधन के लिए संकट राजनीतिक है। नेताविहीन एनडीए सर कटे मुर्गे की तरह हो गया है। नितीश मुख्यमंत्री हैं भी, नहीं भी हैं। प्रधानमंत्री के रोड शो से गायब हैं, अब तो चुनाव अभियानों की होर्डिंग्स और पोस्टरों में भी या तो सिरे से गुम हैं या हैं भी, तो तैंतीस कोटि देवताओं में लघुतर से लघुतम तस्वीरों में पंक्तिबद्ध चिपके हुए हैं। दुर्गत इस कदर है कि घोषणापत्र जारी किये जाने के लिए हुई एक मिनट से भी कम की प्रेस कांफ्रेंस में भी उन्हें एक शब्द बोलने से पहले ही चलता कर दिया गया। खुद भाजपा के पास भी कोई कद्दावर नेता नहीं है। जिन सम्राट चौधरी को मोदी-शाह अपने कन्धों पर उचकाकर मेला दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, वे खुद अपनी सीट पर घिरे दिखाई दे रहे हैं।

वैसे पैमानों के हिसाब से मोदी कुनबे की योग्यता देखा जाए, तो इनमें वे सारी अ-योग्यताएं हैं, जो नॉन-बायोलॉजिकल होने के लिए जरूरी हैं। डिग्री - मैट्रिक पास का सर्टिफिकेट - फर्जी है, नाम भी राकेश कुमार से सम्राट कुमार से होते हुए सम्राट चौधरी तक संदिग्ध है, उम्र के बारे में भी वे कम करामाती नहीं हैं । मोदी सिर्फ दो जन्मतिथियों के साथ द्विज बने होने की ख्याति पाए हैं, तो ये श्रीमान जम्प लगाकर एकदम से बड़े होने की फ़िराक में हैं। वर्ष 2010 के चुनाव में 28 के थे, महज 15 वर्षों में 28 और जोड़कर इस चुनाव में खुद को 56 का हुआ बता रहे हैं। उम्र की इसी घटा-बढ़ी का जादू दिखाकर सात हत्याओं के अभियुक्त होने के बावजूद जमानत पा चुके हैं।

ऐसे हालात में सिर्फ निर्लज्जता ही है, जो काम आ सकती है। लिहाजा लगातार बीस साल से बिहार में सत्ता में रहने के बाद भी पूरी बेशर्मी से बिहार को ‘जंगल राज’ से मुक्त कराने का शोर मचाया जा रहा है। इधर जंगल राज से मुक्ति की बात की जा रही है, उधर इन्ही का गुंडा उम्मीदवार अनंत सिंह बीच अभियान में अपने विरोधी की हत्या करवाके उनकी लाश पर भी जीप चढाने का कारनामा अंजाम दे रहा है। खोब खातिर और मान-मनौवल कराने के बाद गिरफ्तारी दे रहा है, तो सीधे मोदी के रोड शो में उनकी सरकार का एक माफिया मंत्री ललन सिंह उस गुंडे का चुनाव अभियान अपने हाथ में लेकर सबके सामने विरोधियों को मतदान केन्द्रों तक न पहुंचने देने के आव्हान कर रहा है।

मोदी और उनका कुनबा, भद्रलोक द्विजों से भरा मीडिया इस सबको जंगल राज नहीं मानता। उसके हिसाब से यह वैदिकी कर्मकांड हैं – इन मनुजायों के लिए जंगल राज तभी होता है, जब दबे-कुचले इनका कहा मानने से इंकार करने लगें और सदियों से चले आ रहे जुल्म, दमन, यंत्रणा, प्रताड़ना के खिलाफ आवाज उठाने लगें, प्रतिरोध में खड़े हो जाएँ और चीत्कार या विलाप की जगह हुंकार लगाने लगें।

बहरहाल वे भूल रहे हैं कि बिहार सामाजिक न्याय के संघर्षो का कुरुक्षेत्र है। जिसे जातियों का ऐसा जुरासिक पार्क बनाकर रखा गया था, जहां सिर्फ महाकाय हिंसक और आदमखोर डायनासोरों का ही राज था, वहां अब सामाजिक रूप से वंचित, शोषित, उत्पीडित समुदायों के बीच जगार की बहार है। और यह जगार रातों-रात नहीं आई है। इसे लाने के लिए अनगिनत भूमि संघर्ष हुए हैं, जिनमें सैकड़ों की शहादतें हुई है। इन शहादतों के बीच जहां सामाजिक न्याय की राजनीति मजबूत हुई है, वहीँ वामपंथ भी एक बड़ी राजनीतिक शक्ति के रूप में सामने आया है। इन दोनों तरह के संघर्षों ने मिलकर जिस राजनीतिक माहौल को तैयार किया है, वह कार्पोरेटी हिंदुत्व की रग-रग को पहचानने की काबिलियत रखता है।

उसने अवाम – खासकर सामाजिक और आर्थिक दोनों तरह से शोषित अवाम – की चेतना को कम-से-कम इस स्तर तक तो पहुंचा ही दिया है, जहां वह यह समझ सके कि भागलपुर में मात्र एक रुपया प्रति एकड़ के किराए पर एक हजार एकड़ जमीन अडानी को देने से शुरू हुई बात अगर यहीं नहीं रोकी गयी, तो फिर कहाँ तक जायेगी।

बिहार को पता है कि ये चुनाव सिर्फ बिहार की विधानसभा के लिए होने वाले चुनाव नहीं हैं। उसे पता है कि इसके नतीजे 14 नवम्बर के बाद पटना में बैठने वाली सरकार भर का फैसला नहीं करने वाले, वे पूरे देश की राजनीति को गुणात्मक रूप से प्रभावित करने वाले हैं। वह लोकतंत्र आधारित, संविधान सम्मत रास्ते पर चलते रहने वाला देश रहेगा कि नहीं, इसका निर्णय करने वाले हैं।

(लेखक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)

Next Story
Share it