पटना रोड शो: एनडीए के लिए तीन बुरी खबरें

(आलेख : राजेंद्र शर्मा)
राजधानी पटना में प्रधानमंत्री के बहुप्रचारित रोड शो को अगर, बिहार के विधानसभाई चुनाव के रुझान का संकेतक माना जा सकता है, तो यह दर्ज किया जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री के रोड शो की चर्चा सबसे ज्यादा तीन ऐसी चीजों के लिए हो रही है, जो इस रोड शो के आयोजकों के लिए अच्छी खबर नहीं देती हैं। इनमें पहली है, इस रोड शो के लिए जिस तरह से पटना के करीब-करीब सभी मुख्य मार्गों को घंटों बंद रखा गया था और इसकी वजह से इस रोड शो से दूर-दूर तक के इलाकों में भी लोगों को घंटों सडक़ों पर जाम में फंसे रहना पड़ा था, उस पर खुलकर सामने आयी आम लोगों की बड़ी संख्या की मुखर नाराजगी। बेशक, चूंकि रोड शो करने को प्रधानमंत्री के चुनाव प्रचार का एक प्रमुख तरीका ही बना लिया गया है, हैरानी की बात नहीं है कि इससे पहले अन्य राज्यों के दूसरे प्रमुख शहरों में भी प्रधानमंत्री के चुनाव प्रचार के इस तरीके से हुई व्यापक असुविधा पर लोगों के बीच नाराजगी पैदा हुई हो और यह नाराजगी जाहिर भी हुई हो। फिर भी मुख्यधारा के मीडिया पर सत्ताधारी संघ-भाजपा के लगभग पूर्ण नियंत्रण के चलते, इससे पहले शायद ही कभी यह नाराजगी उस तरह दर्ज हुई होगी, जिस तरह पटना रोड शो के मामले में, खासतौर पर सोशल मीडिया के जरिए सामने आयी है। इस नाराजगी को, दूसरी ओर इस रोड शो के रास्ते पर लोगों की उत्साहहीन तथा मामूली उपस्थिति के साथ जोडक़र देखा जाए, तो इसका कुछ अंदाजा तो लग ही जाता है कि बिहार की जनता का मूड क्या है? जाहिर है कि सब कुछ के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी, इस चुनाव में भी भाजपा का ही नहीं, एनडीए का भी सबसे बड़ा तुरुप का पत्ता हैं। इस पत्ते का चुनावी बाजी में वजन घटता जाना, जिसकी पुष्टि चुनाव क्षेत्र से आ रही दूसरी अनेक रिपोर्टों से भी होती है, सत्ताधारी गठजोड़ के लिए अच्छी खबर नहीं है।
सत्ताधारी गठजोड़ के लिए इससे भी बड़ी बुरी खबर है, इस रोड शो के संंबंध में बहुत व्यापक रूप से दर्ज हुई, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की नामौजूदगी। बेशक, नीतीश कुमार की नामौजूदगी को ढांपने के लिए, रोड शो में प्रधानमंत्री का साथ देने के लिए ललन सिंह को लाया गया, जिन्हें जदयू के शीर्ष नेताओं में माना जाता है। लेकिन, ललन सिंह को नीतीश कुमार का काफी सस्ता स्थानापन्न ही माना जा सकता है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। सचाई यह है कि इस रोड शो में ललन सिंह की मौजूदगी ही नहीं, खुद प्रधानमंत्री के रोड शो की भी उतनी चर्चा नहीं हो रही है, जितनी चर्चा इस रोड शो से नीतीश कुमार की नामौजूदगी की है। बिहार की राजनीति पर जरा भी नजर रखने वाले भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि इस नामौजूदगी के पीछे नीतीश कुमार की अन्य व्यस्तताओं से लेकर, उनकी स्वास्थ्य संबंधी असमर्थताओं जैसी कोई वजह हो सकती है। उल्टे जानकारों का तो कहना है कि इस तरह के संभव बहानों का निराकरण करने के लिए रोड शो को छोटा करने से लेकर, रोड शो में नीतीश कुमार के चेहरा दिखाने भर के लिए कुछ समय के लिए ही शामिल होने तक के सभी विकल्पों पर भी चर्चा हुई थी। लेकिन, नीतीश कुमार अपनी अनुपस्थिति के जरिए, गठजोड़ की संचालक बनने की कोशिश कर रही भाजपा को, अपनी नाखुशी का स्पष्ट संदेश देना चाहते थे और वह संदेश उन्होंने जोरदार तरीके से दिया है।
और नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही चुनाव लड़े जाने का मंत्रजाप करने के बावजूद, नीतीश कुमार की पार्टी के ठीक बराबर सीटों पर चुनाव लडऩे के बाद, व्यवहार में सत्ताधारी गठजोड़ की संचालक बनने की कोशिश कर रही भाजपा को, नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री के रोड शो से दूर रहने के जरिए क्या संदेश दिया है? संदेश यही है कि चुनाव के बाद एनडीए सरकार बनने की सूरत में मुख्यमंत्री कौन होगा, इस मुद्दे पर भाजपा जिस तरह की अस्पष्टता जान-बूझकर पैदा कर रही है, वह जाहिर है कि नीतीश कुमार को मंजूर नहीं है। उनकी मांग है कि अगले पांच साल के लिए एनडीए के मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार के नाम की साफ तौर पर घोषणा की जानी चाहिए और वह भी भाजपा के शीर्ष नेतृत्व यानी खुद प्रधानमंत्री मोदी के मुंह से यह घोषणा होनी चाहिए। याद रहे कि रालोसपा, हम आदि ही नहीं, चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी तक सार्वजनिक रूप से ऐसी घोषणा कर चुकी है, लेकिन उसे पर्याप्त नहीं समझा जा रहा है।
और ऐसा सबसे बढक़र इसलिए है कि मोदी के बाद, उनकी भाजपा में दो नंबर माने जाने वाले अमित शाह खुद अपने इस प्रकार के बयानों से कि मुख्यमंत्री का चुनाव, चुनकर आए विधायकों द्वारा किया जाता है, भाजपा की नीयत और इरादों के संबंध में नीतीश कुमार के संदेहों को हवा देते रहे हैं। इतना ही नहीं, चुनाव प्रचार के दौरान अमित शाह अपने मुंह से, भाजपायी उप-मुख्यमंत्री, साम्राट चौधुरी को मोदी जी द्वारा ‘बहुत बड़ा आदमी’ बनाए जाने की घोषणा ही नहीं कर चुके हैं, एनडीए का चुनाव घोषणापत्र जारी करने के लिए आयोजित हास्यास्पद प्रैस कान्फ्रेंस में चंद सैकेंड में नीतीश कुमार समेत सभी नेताओं के चलता कर दिए जाने के बाद, अकेले साम्राट चौधरी द्वारा घोषणापत्र के संबंध में पत्रकारों को संबोधित कराए जाने के जरिए, उनके भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद का दावेदार होने की पुष्टि भी की जा चुकी है।
दूसरी ओर, कहने की जरूरत नहीं है कि महाराष्ट्र में, कथित रूप से पिछली गठजोड़ सरकार के मुख्यमंत्री शिंदे के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की घोषणाओं के बाद, जिस तरह भाजपा ने बिना किसी बहाने के अपने नेता फ़ड़नवीस को मुख्यमंत्री के पद पर बैठा दिया और शिंदे को दो उप-मुख्यमंत्रियों में से एक के स्टूल पर बैठा दिया, नीतीश कुमार के समर्थक उसे भूले नहीं हैं। इसमें इतना और जोड़ लीजिए कि नीतीश कुमार के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य से भी ज्यादा खराब, नीतीश कुमार की पार्टी का सांगठनिक स्वास्थ्य है। व्यापक रूप से यह माना जाना निराधार ही नहीं है कि जदयू में शीर्ष नेतृत्व तक, भाजपा ने गहरी सुरंगें बना ली हैं, जिसने भाजपा के पैंतरों के सामने नीतीश कुमार को और वेध्य बना दिया है। नीतीश कुमार अच्छी तरह जानते हैं कि चुनाव के बाद मुख्यमंत्री के पद के फैसले तक अगर वह अगर इंतजार करते हैं, तो शायद बहुत देर हो जाएगी। कहने की जरूरत नहीं है कि सत्ताधारी गठजोड़ में जारी इस रस्साकशी की खबरों के नुकसान की भरपाई, प्रधानमंत्री के इसके दावों से शायद ही हो सकती है कि प्रतिद्वंद्वी महागठबंधन में ‘राजद और कांग्रेस एक-दूसरे के बाद नोंच रहे हैं’ या ‘कनपटी पर कट्टा रखकर राजद ने कांग्रेस से तेजस्वी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करा लिया है। नीतीश कुमार के समर्थक आधार के सक्रिय समर्थन के बिना, भाजपा चुनावी मुकाबले में कहीं नहीं टिक पाएगी।
सत्ताधारी गठजोड़ के पहले ही काफी भौंथरे नजर आ रहे वृहत्तर चुनाव नैरेटिव के लिए, इतनी ही बुरी खबर इस रोड शो में एक और चर्चित नामौजूदगी में छिपी थी। यह नामौजूदगी थी, मोकामा से जदयू के उम्मीदवार, बाहुबली/ माफिया अनंत सिंह की। और यह नामौजूदगी सुनिश्चित की गयी थी, रोड शो से ठीक पहले की रात में अनंत सिंह की, चुनाव प्रचार के ही दौरान अपने राजनीतिक विरोधी, दुलारचंद यादव की दिन दहाड़े हत्या के सिलसिले में गिरफ्तारी के जरिए। बेशक, यह गिरफ्तारी सबसे बढ़कर, सत्ताधारी गठजोड़ के ‘‘जंगलराज बनाम सुशासन’’ की लड़ाई के नैरेटिव को पूरी तरह से ध्वस्त होने से बचाने के लिए और सबसे बढक़र प्रधानमंत्री के दामन को इस कथित सुशासन के दामन पर लगे खून के छींटों से सुरक्षित रखने के लिए, बहुत सोच-विचार कर की गयी थी। लेकिन, चुनाव के बीचो-बीच हत्या कर सकने वाले माफिया से दूरी बनाने के इस नाटक के पीछे की यह सचाई किसी से छुपी नहीं रही है कि बिहार में शासन-प्रशासन ने अनंत सिंह का चुनाव प्रचार तक तब तक जारी रहने दिया था, जब तक सत्ताधारी गठजोड़ के पटना के गिर्द के विधानसभा उम्मीदवारों के हिस्से के तौर पर, उसके प्रधानमंत्री के रोड शो के काफिले में शामिल होने का ही खतरा पैदा नहीं हो गया। इसके बावजूद, बाकायदा अनंत सिंह को वार्ताओं के जरिए सरेंडर करने के लिए तैयार किया गया और सरेंडर करने के बाद सीधे जेल भेज दिया गया, क्योंकि पुलिस ने रिमांड की मांग तक नहीं की थी। इससे पहले नीतीश कुमार के सुशासन की पुलिस और प्रशासन ने मृतक को ही अपराधी घोषित कर, इसका साफ तौर पर एलान कर दिया था कि उनका सुशासन किस के साथ खड़ा है।
लेकिन, मरहम-पट्टी की इस तमाम कोशिश के बाद भी, अनंत सिंह प्रकरण और उस पर सत्ताधारी गठजोड़ की प्रतिक्रिया ने, लालू राज को जंगल राज बताकर, नीतीश-भाजपा राज को सुशासन बनाने के उस पूरे नैरेटिव को तार-तार कर दिया है, जो मुख्यधारा के मीडिया के सहारे, अति-प्रचार के बल पर और जातिवादी-सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों के सहारे, वर्षों में खड़ा किया गया था और जिसका बिहार के हरेक चुनाव में पिछले दो दशक से ज्यादा से लगातार इस्तेमाल किया जाता रहा था। यह पूर्वाग्रहों का सहारा लेकर, अति-प्रचार के जरिए, मीडिया के बल पर किसी भी झूठ को, सच मनवाने की संघ-भाजपा के गोयबल्सीय कार्यनीति का, प्रगति के गुजरात मॉडल से भी पुराना उदाहरण है। इस नैरेटिव का यथार्थ से कुछ लेना-देना नहीं है। वर्ना सचाई यह है कि एनसीआरबी के आंकड़ों के हिसाब से हत्या, हत्या की कोशिश, अपहरण, बलात्कार आदि गंभीर अपराधों के मामले में, नीतीश कुमार के सुशासन में 2023 में, जिसके लिए आखिरी आंकड़े उपलब्ध हैं, बिहार देश के सबसे अपराधग्रस्त राज्यों में चौथे नंबर पर था। और उसका चौथा स्थान, अपराधों की कुल संख्या के लिहाज से नहीं, प्रति एक लाख आबादी के आंकड़े के हिसाब से है। सुशासन बाबू के बिहार के लिए यह आंकड़ा, 41 है जो कि 30 से 35 तक के राष्ट्रीय औसत से काफी ऊपर है। और बिहार के अपराधों में अपहरण तथा अगवा करने की वारदातों का हिस्सा कुछ गंभीर अपराधों में 40 से 50 फीसद तक है। 2023 में बिहार में इस श्रेणी के 13,392 अपराध दर्ज हुए थे, जो 2022 के 11,822 के आंकड़े से पूरे 13 फीसद की बढ़ोतरी को दिखाता था।
इतना ही नहीं, लालू-राबड़ी राज (1990-2005) और नीतीश राज के बीच, एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार ही अपराध दर में कमी नहीं, बढ़ोतरी ही हुई है। लालू-राबड़ी राज के आखिरी वर्ष, 2004 में कुल अपराध दर हर एक लाख की आबादी पर 122.4 थी, जबकि नितीश राज में (2005-23) यह दर 2014 में 150 हो गयी, जो 2019 में और बढ़कर 164.8 और 2023 तक बढ़कर, 200 हो गयी। कुल संख्या में 2004 के 1,15,216 से दोगुने होकर अपराध 2019 में 269,096 पर पहुंच गए। महिलाओं और दलितों पर अपराधों के मामले में तो वास्तव में नीतीश राज ही असली जंगल राज है। मोदी के पटना रोड शो ने नीतीश कुमार के सुशासन को भी बेपर्दा करने काम किया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक 'लोकलहर' के संपादक हैं।)




