गठबंधन का बॉस कौन ...मायावती, हर जगह बड़ी नेता की तरह व्यवहार करतीं नजर आईं

Update: 2019-04-21 01:04 GMT

तीन अलग-अलग दल। तीनों के अलग-अलग मुखिया, लेकिन 100 से भी कम दिन में सपा-बसपा और रालोद गठबंधन की निर्विवाद नेता बसपा सुप्रीमो मायावती बन गईं हैं। मायावती ने अपना दायरा यूपी के बाहर भी बढ़ाया है, जिसका संदेश बार-बार देने की कोशिश की है।

मायावती के नेतृत्व को न सिर्फ उनसे कम उम्र, बल्कि आज के दिन में ज्यादा सियासी हैसियत तथा बराबर की साझेदारी रखने वाले सपा मुखिया अखिलेश यादव ने सबसे पहले और बार-बार उनके घर जाकर स्वीकार किया। सियासत के ज्यादा अनुभवी और राजनीतिक यात्रा में ज्यादा वजन रखने वाले सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने भी मैनपुरी में मंच साझा कर इसे स्वीकार कर लिया। मुलायम ने तो अपना आखिरी चुनाव बताकर मायावती के प्रति एहसान जताते हुए एक तरह से खुद को प्रधानमंत्री पद की दावेदारी तक से पीछे कर लिया। हालांकि अखिलेश देश को नया प्रधानमंत्री देने की बात करने के बावजूद इस पद के लिए मायावती का नाम अभी भी खुलकर नहीं लेते हैं। मैनपुरी की जनसभा में मायावती ने अपना भाषण खत्म करने के बाद खराब मौसम और आगे की जनसभा का हवाला देकर अखिलेश को जल्द से जल्द भाषण खत्म करने को कहा। माना जा रहा है कि अखिलेश के मंच और मुलायम के मैदान से मायावती ने जिस अंदाज में यह बात कही उसके अपने स्पष्ट संदेश हैं।

संदेश का मनोविज्ञान

समझदारी के रिश्ते का संदेश देने के लिए मायावती अखिलेश के साथ बेहद सहज नजर आईं। यह इसलिए भी ताकि दोनों पार्टियों के मतदाताओं में कोई गलतफहमी न रहे। यह संदेश भी दिया कि एक तरह से गठबंधन में भी सुप्रीमो की भूमिका में हैं।

सीटों का बंटवारा इस तरह सामने आया जिसमें पहली नजर में ही समझ आता है कि इसमें मायावती ने जैसा तय कर दिया वैसा हुआ।

मुलायम के लिए वोट मांगते वक्त यह बताना नहीं भूलीं कि उन्होंने राष्ट्रहित व जनहित को ध्यान में रखकर गेस्ट हाउस कांड को नजरंदाज किया है। मतलब, उन्होंने बताया कि सब कुछ वह अपनी शर्तों पर कर रही हैं।

आज की सियासी पावर

मायावती

यूपी में बसपा के 19 विधायक, 8 एमएलसी और 4 राज्यसभा सांसद।

अखिलेश यादव

प्रदेश से 48 विधायक, 55 एमएलसी और 13 राज्यसभा सांसद।

अजित सिंह

एक भी विधायक या एमएलसी नहीं। खुद केंद्र मे कई बार मंत्री रहे।

अजित ने भी समझी जमीनी हकीकत

रालोद मुखिया चौधरी अजित सिंह पहले ही मायावती को अपना नेता मान चुके हैं। देवबंद में हुई गठबंधन की पहली रैली में अखिलेश के साथ उम्रदराज अजित भी माया को पूरी तवज्जो देते नजर आए। शायद समय और उम्र के साथ अजित ने सियासी जमीन की हकीकत समझ ली है। इसीलिए 2009 में भाजपा से 7 और 2014 में कांग्रेस से 8 सीट लेकर गठबंधन करने वाले अजित तीन सीटों के साथ भी संतुष्ट नजर आ रहे हैं।

सियासी श्रेष्ठता कमजोर नहीं होने दिया

लोकसभा में एक भी सांसद न होने के बाजवूद माया ने सियासी श्रेष्ठता के कमजोर होने का संदेश नहीं जाने दिया। गठबंधन का तब तक कोई संकेत नहीं किया, जब तक अखिलेश गोरखपुर व फूलपुर उपचुनाव में जीत का आभार जताने उनके घर नहीं पहुंच गए। आंध्र व तेलंगाना में जनसेना पार्टी के मुखिया पवन कल्याण से गठबंधन का फैसला किया भी तो एलान की जगह लखनऊ ही तय की। पवन तो एलान के वक्त मायावती के पीएम पद की दावेदारी की खुलकर पैरोकारी करते नजर आए। छत्तीसगढ़ में जनता कांग्रेस से गठबंधन हुआ तो अजित जोगी को लखनऊ आना पड़ा।

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