कवि मरते नहीं, बस गुजर जाते हैं...

Update: 2018-03-20 11:49 GMT
प्रकृत कवि को मार ही नहीं सकती।
जब लम्बे और बोझिल विमर्शों के बाद सभागार में केवल जूते दिखाई देने लगें,
तो किसी न किसी को केदारनाथ होना पड़ता है।
अपने हक के लिए धुँआधार लड़ते समय में
दूसरा कौन करेगा फूल, गन्ध, बादल या सड़क के हक की बात?
भोंपू से कटते किसानों की पीर कोई कवि ही समझ पाता है न...
फिर कैसे मार सकती है प्रकृत कवि को?
चढ़ते बैसाख की भोर में
महुआ के मुलायम गात से लिपट कर टपकेगी जब कोई ओस की बून्द,
या जब दिल्ली में साहेब बन कर बैठे बेटे के लिए
झोले के कोने में भरुआ मरिचा गठियाते समय मुस्कुरा उठेगी कोई भोजपुरिया माँ,
या जब कोई 'पुरबिहा' पोंछेगा अपने अंगौछे से बहता खून,
वह केदार हो जाएगा।
कवि मरता नहीं, बस गुजर जाता है।
प्रकृत भी तो जानती है
कि 'जाना सबसे खौफनाक क्रिया है'

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

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