खेत की ओर निगाह उठते ही रामकबूतर बो का मियाज झनक गया। मने इतना भी कहीं अनेत होता है? पूरा कट्ठा भर सरसो बकरी चर गयी है। आँख में अंगार भर के इधर उधर देखी कबूतर बो तो खस्सी को हाँकती चनरमा बो पर नजर पड़ी। चनरमा बो और कबूतर बो दोनो सखी है, पर खेत का जियान देख कर सखियारो भूल गयी कबूतर बो और बरस पड़ी- क्यों रे हरजाई, ई खोंसी पोसी है कि अपने माई का भतार पोसी है? दूसरे का खेत जियान कराते लाज नही आती का रे?  				  			
चनरमा बो डरते डरते बोली- जानती हो सखी, हम इसको खूँटी में बाँधे थे, पर जाने कब तुड़ा के इधर घुस गया।
कबूतर बो का मन झौंझिआया हुआ था, बोली- अरे तो जब खोंसी से एतना पेयार हुआ है तो घर में ही रखो न, काहें अपने बाप को इधर उधर खुला छोड़ती हो।
चनरमा बो को अब खींस बरने लगा, पर दबा कर बोली- अरे सखी! अब तो गलती हो गयी। अब गाली देने से का फैदा?
कबूतर बो पिनक उठी- अरे चुप कर भतरकाटी, मेरा खेत चरा के कहती है कि गाली न दो, अरे तुम्हारे बाप के यहां से सरसो आएगा का रे भतरचबौनी?
चनरमा बो के मन में आग तो लग ही गयी थी, पर सखी का नाता निबाह रही थी। पर भतार की गारी लग गयी उसके कलेजे में। एकाएक गरज उठी- अरे चुप पुतकाटी! हम लिहाज कर सह रहे हैं तो एकदम मुड़ी पर चढ़ी जा रही है? ज्यादा बोली तो तेरे भतार का मुड़ी ममोर के चूल्हे में जोर देंगे हरजाई! और जा! रोज चरायेंगे तेरा खेत, जो करना हो कर ले।
- आय हाय हाय! हइ न देखो राज महारानी का... अरे आलोक पाण्डेय के बल पर एतना न उतरा रे करलुट्ठी, खेत तेरे खसम का नही है जो चराते फिरेगी।
आलोक पाण्डेय के नाम से ही जल गयी चनरमा बो। कुछ दिन पहले बोझा ढोते समय चनरमा बो के गोड़ में काँट गड़ गया था, तो बेचारे आलोक ने उसका गोड़ हाथ में लेकर काँटा निकाल दिया था। तबसे गांव की मेहरारुओं ने दोनों का नाम जोड़ कर कहानी बना दिया था। जल कर बोली- अरे चुप कर निर्लज्ज! काहे बेचारे पंडीजी को दाग लगाती है। उ तो तेलाहवा बाबा नियर पवित्तर हैं। अरे तेरा खिस्सा तो पूरा जिल्ला जानता है चोट्टी, आधी आधी रात को अरबीन सिंघवा तेरे पिछवारे रहरियासेम तुरने क्यों आता है ई कौन नही जानता है रे मरदखोर? ढेर बोलेगी तो मार के तेरा मुह फार देंगे। हम करलुट्ठी हैं तो तें कौन हेमा मलिन है रे? पाड़ा नियर मुह ले के हीरोइन बनते लाज नही आती?
- अरे चुप भतरकाटी, अरबीन बाबू का नाम भी लेगी तो तेरे पेट में खुरपी घोंप देंगे। अरे उ तो देवता हैं देवता। तेरे दुआर पर आजकल सुभाष सरमा का बीस लखिया कार रोज क्यों पंचर हो जाता है हम जानते ही नही हैं? बड़का सती बिहुला की मौसीआउत बहिन बनती है रे...
- राम राम! भगवान से भी डर मुहझौंसी। उ हमारे ससुर लगते हैं।
काफी देर से खेत के मेड़ बैठ कर झगड़ा का आनंद लेते महंथ जी को टिभोली सूझती है। खंखार कर बोलते हैं- अरे कबूतर भाई बो, काहे बुजुर्ग आदमी को नाश रही हो, अरे भौजी को गारिये देना है तो हमारा नाम लगा के दो न।
दोनों एक ही साथ झरझरा के बरस पड़ती हैं- चुप भगठेल! मेहरारू के हाथ से रोज थुराते रहते हैं, और झूठ मुठ में बड़ा संत बनते फिरते हैं।
महंत जी मुस्किया रहे हैं। 
अचानक चनरमा बो के पीठ पर एक जोर का मुक्का लगा और वह ढिमला गयी। दोनों ने मुह घुमा कर देखा तो पाया, दिलबिटोरन बो तमतमाई हुई गारी शुरू कर चुकी है। क्यों रे हरामजादी, अपने खोंसु से मेरा गेहूँ क्यों चरा दी रे?
ढिमलायी चनरमा बो के मुह में से तो आवाज न निकली, पर टपक पड़ी कबूतर बो- क्यों रे हरजाई, इसको काहें मारी रे?
दिलबिटोरन बो बोली- अरे इसका खोंसी मेरा गेहूँ चर गया है, मारे क्यों नही?
- अरे चुप भतारकाटी! इसका खोंसु तो डेढ़ घंटा से मेरे खेत में था। तेरे खेत में कब घुस गया रे छहँतरी?
-अरे इसका नही तो किसका खोंसी चरेगा? मैं तो आज इसका सारा गर्मी निकाल कर ही रहूँगी।
दिलबिटोरन बो ने लपक कर जमीन पर गिरी चनरमा बो का झोंटा पकड़ा। चनरमा बो चिल्ला उठी- अरे पुतखौकी जान निकाल दी रे...
अचानक कबूतर बो ने दिलबिटोरन बो के थुथुर पर एक घूंसा लगाया,और गरजी- रुक बेट्टागाड़ी, अभी तेरा सारा गर्मी निकालती हूँ। थोड़ा सा रगड़ा क्या हो गया, समझने लगी कि मेरे ही सामने मेरी सखी को मार देगी। तेरा मुह न झोंकार दूंगी रे निर्लज्ज।
कबूतर बो के हाथ से दस घूंसा खाने के बाद गारी देते भागी दिलबिटोरन बो- अरे ई दोनों भतरकाटी राय कर के झगड़ा करती है हो दादा। अरे मार के नकलोल फोर दिया रे... अरे एकरा हाथ में कोढ़ फुट जाय तो हो बरम-बाबा...
कबूतर बो ने मुस्किया के देखा चनरमा बो की ओर। चल सखिया, और इस खोंसी को तनिक बांध के रख। समझी न..
चनरमा बो भी मुस्किया उठी। ऐसे, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
महंथ जी मन ही मन मुस्किया उठे हैं। यही है गांव, यही था भारत... यह विकास का राक्षस सब खा गया।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।