दिल्ली मेट्रो के एक सौ छप्पन स्टेशनों में से
किन दो बिंदुओं के बीच दौड़ती होगी तुम्हारी रेलगाड़ी
किन रेखाओं को काटते जोड़ते किन त्रिज्याओं को
किस धूप किस अंधेरे के व्यूह से जुड़ते मुड़ते!
"धौलाकुंआ" या "वैशाली"?
"साकेत" या "करोलबाग"?
"मंडी हाउस" या "प्रगति मैदान"?
मेट्रो रेल के ठंडे धात्विक उजाले से भरे पैसेज,
कॉरिडोर, सीटों पर कभी खड़ी कभी बैठीं तुम
क्या करती होंगी सोचती होंगी क्या कुछ
कानों में पहने ईयरफ़ोन का कर्णफूल?
बड़ी सुबह जाती हो जब
भोर की धूप भी नर्म, उनींदी, उन्मन
बालों में नहान का शीत लिए देह में गंध
टिफ़िन जिसमें कलेवा पर्स जिसमें दर्पण
स्कर्ट जिस पर सिलवटें!
शाम लौट आती होगी उसी रास्ते से
जैसे लौट आते हैं पाखी
संतोष की भाषा में रचे वाक्य सी सुडौल
सुंदर, सहज, अनमनी।
खिड़की से बाहर देखती एकटक
दीठ में ग्रीष्म के नभ-सी रिक्ति लिए!
अकसर सोचता हूं कि क्या सोचती होंगी तुम
दिल्ली मेट्रो के उन एक सौ छप्पन स्टेशनों में से
तुम्हारे गंतव्य और प्रस्थान के दो बिंदुओं के बीच
चलते और लौटते लौटते और चलते
हर दिन हफ़्ते के दिन पांच।
तुमसे कभी मांगूंगा कोई भेंट तो यही कि --
बैठना है तुम्हारे पास उसी मेट्रो में
जिससे लौटती हो घर!
और सुनना है तुम्हारी सांसें
देखना है वह सब जिसे नहीं देखतीं देखकर भी
और तुम्हारे "क्लचर" से खेलना है
जब संझा की प्रभामयी दीप्ति में
लहराएं तुम्हारे निर्बन्ध बाल!
*
[ सुनो, सिल्वर रंग वाले तुम्हारे पर्स में जो आईफ़ोन है उसकी स्क्रीन को स्वाइप करो और पढ़ो वो मैसेज जो सुबह से वहां रखा है. तुम वहां उस नीली गाड़ी पर पीठ टिकाए इतनी दिलक़श लगती हो कि जी करता है तुम्हारे सामने घुटनों पर झुककर तुम्हें गुड़हल का लाल फूल दूं, जिसका रंग ठीक तुम्हारे लिप ग्लॉस से मिलता है, लेकिन नहीं, मैसेज में यह नहीं कुछ और लिखा है, पढ़ लेना! ]
सुशोभित सिंह सक्तावत