"तेरे नाम से शुरू, तेरे नाम पे ख़तम"

Update: 2017-08-23 14:45 GMT
कुछ चीजें यहाँ सबको पता चल चुकी हैं, फिर भी मैं अपनी कई पोस्टों में अक्सर डाल देता हूँ 'स्क्रिप्ट की डिमांड' टाइप वाले बहाने की तरह। मैं कह भी देता हूँ कि ऐसी बातें सिर्फ मैं पोस्ट में ग्लैमर डालने के लिए घुसा देता हूँ। हाँ तो, आज वो लाइन है कि मैं अजीब हूँ, या यूँ भी आप कह सकते हैं कि अजीबोगरीब हूँ। 

ऐसा मैं बचपन से ही हूँ। दुनिया भर के लोगों को अमिताभ बच्चन की बड़ाई करते देख मैं चिढ जाता था, और अक्सर कह ही देता था कि "अबे काहे का हीरो बे, जब पुनीत इस्सर के एक घूंसे ने कोमा में पहुंचा दिया उसको।" मतलब कुल मिलाकर ये कि लोग चलेंगे ईरघाट तो मैं बीरघाट की पगडंडियों की खूबसूरती की बड़ाई करने लग जाता हूँ। 

ऐसी ही एक प्रथा है 'अपना नाम अमर कर जाने की' !! अब चूँकि मैं आध्यात्मिक टाइप का इंसान मानता हूँ खुद को (आप चाहें तो आप भी ऐसा मुझे मान सकते हैं), तो अध्यात्म में अक्सर ये बात आती है कि 'ये दुनिया एक मोह माया है, मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए परम सत्ता में विलीन हो जाने का। ऐसा कर्म करना चाहिए कि इस जीवन मरण के कष्टकारी चक्र से मुक्ति मिल जाए।' ....लेकिन नहीं, लोग इसी बारे में परेशान रहते हैं कि उनका नाम/ यश कैसे फैले। उनका नाम कैसे अमर हो, कैसे वो प्रशंसा/ आदर के पात्र बने रहें,.. जीवन में भी और जीवन के बाद भी, बिलकुल LIC के स्लोगन की तरह। 

महात्मा गाँधी जी भी 'मेरी नजर' में ऐसी ही सख्सियत के मालिक थे। उनको अपना आभामंडल बरकरार रखना था, भले ही उसके लिए पूरे देश को मूल्य चुकाना पड़ जाए। बताता चलूँ, लिखित दस्तावेज हैं कि 'गाँधी जी के त्याग, सरल जीवन इत्यादि को 'कायम' रखने के लिए अपरिमित धन लगता था। सुनने में ये भी आया है कि अपनी सरल छवि को दुनिया भर में दिखाने के मोह में गाँधी जी अपनी पालतू बकरी को भी शाही आयोजन, शाही मीटिंग्स में लेकर जाते थे,. हाँ जी, सात समुन्दर पार भी। 
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ये तो हुई महान लोगों की बात, अब जरा कुछ अन्य महानों की बात करें। कुछ महान ऐसे भी होते हैं, कि पेंड़ पर अपना नाम (और अपनी लैला का भी) खुरच देते हैं, ऐतिहासिक इमारतों पर खुरच आते हैं, बस ट्रेन स्कूल अस्पताल इत्यादि की दीवार पर भी अपना खुरच देते हैं। मानसिकता वही है, दुनिया में उनका नाम अमर हो जाय। जब तक ये इमारतें रहें, जब तक ये पेंड़ पौधे रहें,.. इनका नाम अमर रहे। ट्रेन जहाँ भी जाए, हर जगह इनका नाम अमर हो जाय। 

मने,. अगर ऐसे सूतिये अन्तरिक्ष में भी पहुँच जाएँ कभी, तो पहला काम ग्रहों पर अपनी लैला का नाम खोदने की ही करेंगे !! ये नारा भी ऐसी मानसिकता से निकला होगा,.. "जब तक सूरज चाँद रहेगा, इंदिरा तेरा नाम रहेगा !! जाहिर है कि ऐसी प्रथा से भी मुझे चिढ थी/ है, और वो भी कच्ची उमर से।
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मुझे याद आता है, शायद आठवीं या सातवीं में था मैं। मेरी क्लास में एक लड़की थी, उसको अपना नाम हर जगह लिख देने का शौक था। वो ब्लैक बोर्ड पर भी लिख मारती थी। अब चूँकि मैं मॉनिटर था, तो माटसाब के आने से पहले बोर्ड साफ़ रहने की जिम्मेदारी मेरी ही होती थी। इसलिए मुझे और चिढ होती थी। एक दिन मेरे दिमाग का बल्ब जला,.. देखा उसने बोर्ड पर अपना नाम लिखा हुआ था "KAMINI" !! मैं उठा और उसके नाम के आगे तीर बना कर हिंदी में लिख दिया "कमीनी" !! वो भड़क उठी, झगडा करने मारपीट पर उतावली। तो मैंने कहा,. "हे ज्ञानसुंदरी, जरा 'कमीनी' की स्पेल्लिंग लिख कर दिखाओ मुझे। मेरे ख्याल से तो यही सही है। 'कामिनी' की सही स्पेलिंग तो 'KAAMINEE' होना चाहिए।"

लाल लाल आँखों से कई दिन तक घूरी मुझे वो, लेकिन मेरी इस हरकत से दो काम हुए। एक तो उसने पब्लिक प्लेस पर अपना नाम लिखना छोड़ दी। छोड़ क्या दी, जहाँ पहले का लिखा देखती उसको खुद दौड़ कर मिटा देती। और दूसरे,.. उसने अपने नाम की स्पेलिंग ही बदलवा डाला। माटसाब, माँ बाप सबसे लड़ झगड़ कर। 

एक और घटना है मेरे इंजीनियरिंग कोलेज की। एक सहपाठी थे, जो अंग्रेजी की कर्सिव राइटिंग बहुत ही अच्छा उकेरते थे। मने ओवरआल राइटिंग में हमसे पीछे ही थे, लेकिन कुछ खास चीजों को कलाकारी से लिखना हो तो, हमसे ज्यादा मास्टर आदमी थे वो। अब इस कलाकारी का बाईप्रोडक्ट ये था कि उनको भी अपना नाम जगह जगह, पूरी कलात्मकता से लिखने की आदत थी। नाम था ताराचंद झा। अब एक दिन फिर मेरे दिमाग का बल्ब जला। बोर्ड पर मैंने उनके नाम में उसी कलात्मकता से 'T' जोड़ दिया। फिर इधर उधर दीवार, टेबल कुर्सी, जहाँ भी मैंने उनका नाम पाया, यही किया। जहाँ हिंदी की कलाकारी दिखी वहां मैंने 'ट' जोड़ दिया। हद तो तब हो गई, जब मैंने कैंटीन में खाना खाते हुए, दूर दीवार पर उसका नाम लिखा देखा। मैंने रोटी छोड़ा थाली में, एक इंट का नरम टुकड़ा तलाशा और भाग के गया दीवार तक 'झा' में 'ट' जोड़ने। 
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अंत पन्त रिजल्ट यही रहा कि उस बन्दे को भी अपना नाम अमर करवाने की आदत छूट गई। जहाँ जहाँ लिखा भी था, खुद ही दौड़ कर मिटाने लगा। आजतक कम से कम 8-10 लोगों को मैंने जीवन का अध्यात्म सिखा दिया, उनको समझा दिया कि इस तरह नाम अमर कर जाने की लालसा अक्सर किसी काण्ड पर ही ख़त्म होगी। 

मुझे बचपन से ही सिर्फ 'ॐ' लिखने और 'स्वास्तिक' बनाने की आदत थी/ है, अलग अलग नए डिजाइन में। थर्मोकोल से मैंने यही दो चीज बनाया आजतक, और हाँ कृष्ण जन्माष्टमी पर एक बार कान्हा का कारागार भी बनाया था गाँव में, दूर दूर से लोग देखने आये थे। किसी को भरोसा ही नहीं हो रहा था कि किसी सातवीं आठवीं के 'गाँव' के गँवार लड़के ने ये बनाया है बिना किसी मदद के। मेरे घरवाले, मेरे जानने वाले इन बातों की गवाही बेहिचक दे देंगे। 

आपने कितनों को ऐसा अध्यात्म सिखाया, इसका जिक्र जरुर करें। ऊ का है न कि हमको नए नए आइडीये बहुत प्रिय हैं, और अपने देश में सूतिये बहुत ज्यादा हैं। 

इं. प्रदीप शुक्ला
गोरखपुर

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