उन दिनों मैं स्नातक गणित का छात्र था पर साहित्य में अभिरूचि रखता था।डीनर के बाद अपने सहपाठियों के साथ छात्रावास के बाहर बागीचे में चाँदनी रात का आनंद ले रहा था।चर्चा एक सद्य प्रकाशित नोवेल पर हो रही थी,तभी एक मित्र से रहा न गया व उसने प्रश्न किया,"आखिर साहित्य है क्या ?"
तभी सड़क से लगे दरख्त से आवाज आयी, "साहित्य समाज का दर्पण है।"
हम सब ने आगे पीछा देखा,परखा पर वहाँ कोई नहीं था।भूत-प्रेत के डर से हम सभी मित्र मिल्खा सिंह हो गये।तकरीबन आधे घंटे बाद हम पुनः वहाँ आकर देखा कुछ नहीं,कोई नहीं।तभी उसने पुनः सवाल किया,"साहित्य क्या है ?"
इस बार भी दरख्त से वहीं जबाब,"साहित्य समाज का दर्पण है।"
तभी एक दूसरे मित्र ने सवाल कर दिया,"कविता क्या है ?"
आवाज आयी, "उँ •••ऽऽ ! कहकर दरख्त निःशब्द हो गया।
तभी पीछे से तीसरे मित्र ने सवाल कर दिया, "काव्य क्या है ?" जबाब आया,"वाक्यम् रसात्मकम् काव्यः।"जबाब सुनकर हम स्तब्ध रह गये।
धीरे-धीरे पूरे युनिवर्सिटी में चर्चा होने लगी कि दरख्त बातचीत कर रहे हैं।फिजिक्स के शर्मा सर, जो कि विज्ञान के अतिरिक्त अन्य किसी तथ्य को अंधविश्वास समझते थे,के पास भी यह खबर पहुँची।बस क्या था कैम्पस में बवाल हो गया।सभी के साथ शर्मा जी भी पार्क में आकर दहाड़े,बताओ तो "काव्य क्या है।
"फिर वहीं सधा सा जबाबः"वाक्यम् रसात्मकम् काव्यः।"
शर्मा सर झल्लाते हुए बोले आखिर तुम हो कौन ?कोई जबाब नहीं इस प्रश्न का।
पुनः अगला प्रश्न:-"प्रगतिवाद क्या है?"
जबाब आया, जी,हिन्दी की नवीनतम् प्रवृति।
पुनः अगला प्रश्न कि छायावाद क्या है ?
जबाबः-स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह।
किसी ने पीछे से पूछा कि भई ! ये प्रयोगवाद क्या है ?
जबाब मिलाः- उँह•••• ऽऽ !
पर शर्माजी अभी भी मानने को तैयार नहीं कि दरख्त जबाब दे रहा हैं।उन्होंने हमें बताया कि देखो मैं इस दरख्त को तकरीबन चार दशकों से जानता हूँ, जब यह अभी पौधा था।उन दिनों बगल की ब्लिडिंग में युनिवर्सिटी का प्रेस था।प्रेस से हमेशा साहित्य,दर्शन,विज्ञान वगरैह बिषयों पर किताबें,शोध पत्रादि छपते थे,जिसका कचड़ा यहीं फेंका जाता था,हो सकता है कि उन्हीं कागजातों के बीच हुए रसायनिक प्रतिकिया से सीख समझकर यह दरख्त विद्वान हो गया है।एक छात्र ने तपाक से प्रतिप्रश्न किया कि सर तो फिर यह दरख्त बोलता क्यों है?अरे भई ! जब पेट में किताब हो तो दिमाग में बुद्धि होगी ही और जब बुद्धि होगी तो लोग बक बक करेंगे ही।चुप थोड़े ना रहेंगे।
तभी किसी जिज्ञासु ने पूछा,
हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कृति ?
"कामायनी।"
सर्वश्रेष्ठ नाटककार ?
"भारतेन्दु।"
उनके बाद ?
"प्रसाद जी।"
उनके बाद ?
"उँऽऽऽ••••"
प्रेमचंद के बारे में कुछ ?
"ग्राम्य जीवन के चतुर चितेरे।"
सूर और तुलसी में श्रेष्ठ कौन ?
"सूर सूर तुलसी शशि उडगन केसवदास,••••••!
अगला प्रश्न थाः जी एच डगलस को जानते हैं।
"ऊँहूँऽऽऽ••••
शर्माजी ने बताया कि दरख्त मात्र व मात्र कलासिक्ल सवालों का जानकार है अन्यथा आर्वाचीन सवालों का जबाब भी देता। प्राचीन शास्त्रीय साहित्य इसके जड़ के आसपास संचित रहे हैं जिसका रसपान कर यह दरख्त विद्वता प्राप्त किया हुआ है।
अगले दिन वैज्ञानिक शर्मा जी के नेतृत्व में तय हुआ कि क्यों नहीं नये व आर्वाचीन साहित्य की किताबों को दरख्त के जड़ में रखा जाए ताकि यह अपडेट हो सके।दरख्त के इर्द गिर्द दो फीट गढ़ा खोद किताबें शोध पत्र,पत्र पत्रिकाएँ रख कर मिट्टी डाल दी गई।दो-तीन रोज बाद हम फिर दरख्त के पास सवाल करने गये।पर वह जबाब नहीं दे पाया।तीसरे,चौथे,पाँचवे•••••दिन भी गये पर दरख्त चुप्पी साधे हुए था।
लगा शायद आधुनिक साहित्य को पचा न पा रहा है बुढ़ा दरख्त।
हमने रात में कुदाल लेकर जड़ के पास रखे किताबों को निकालना चाहा ताकि बुढ़े दरख्त के स्मृति व वक्तृत्व को पुनः लौटाया जा सके।पर ऐसा हो न पाया और दरख्त जमीन पर गिर कर धाराशायी हो गया। हमे लगा कि जाने अनजाने में हमने शास्त्रीय व प्राचीन साहित्य की जानकारी रखनेवाले एक पुराने विरासत की हत्या अपने ही हाथों कर दी है।शर्मा जी के वैज्ञानिक व आर्वाचीन चिन्तन ने साहित्य के एक युग को समाप्त कर दिया।यद्यपि ठीक ही हुआ अन्यथा शर्मा जी का विज्ञान व आर्वाचीन विचार एकदम से साहित्य पर हावी हो जाते व ना जाने कितने धरहरों को नेस्तनाबूद करते।
अगली सुबह हमने पार्क में एक शोक सभा रखी और तय किया कि आगे हम कभी भी आधुनिकता के फेरे में या वैज्ञानिक सोच के चक्कर अपने किसी पुराने दरख्त को कतई नहीं मरने देंगे।
Amrendra Kumar Singh