महेंदर पांडे की बेरोजगारी..... : अतुल शुक्ला

Update: 2017-07-18 11:27 GMT
तीन-चार साल पहले जबकि महेंदर पांडे पूरी तरह बेरोजगार थे , उसी समय शहर में एक मल्टीलेवल टाइप मार्केटिंग का एक नया व्यवसाय विकसित हुआ..। आप एक तयशुदा रकम दो.. फिर आप चार और सदस्य जोड़ दो तो आपका दिया हुआ धन वापस... आगे वो चार सदस्य जिन सदस्यों को जोड़ते उनसे मिलने वाले धन में से आपको कुछ अंश प्राप्त होता रहता था..। महेंदर व्यवहार के धनी थे , जिससे मिलते उसे झट से अपना बना लेते.. बस लग गये इसी बिजनेस में..। इसी दौरान उनकी मुलाकात एक ऑटो गैरेज के मालिक नज़ीर भाई से हुयी..। नज़ीर भाई ने पढाई तो खास न की थी लेकिन अपनी विधा के महारथी थे... निहायत ही बातूनी और मिलनसार व्यक्तित्व के..,। नज़ीर भाई जब इस चेन बिजनेस में आ गए तो कुछ ऐसे रमे कि अपने पुराने व्यवसाय को लगभग भूल से गये..। कालांतर में कुछ महीनों बाद वो मार्केटिंग कंपनी तो अपने निवेशकों को चूना लगाकर निकल गयी लेकिन महेंदर पांडे और और नज़ीर मियां के रिश्ते बहुत मधुर हो गये..। चूँकि गरज महेंद्र को थी तो नज़ीर के घर कई दफे जाना भी होता था । नजीर का पेशा , समाज जिसको कितनी ही हकीर निगाह से देखता हो लेकिन नज़ीर अपने धंधे के बेताज बादशाह थे... दिन भर गैराज में मोबिल फांकते लेकिन मजाल है कि हाथ पर कभी कालिख की एक बिंदी भी दिखती हो..! महेंदर को उनका रहन-सहन बहुत पसंद आता था.. घर में तीन-तीन एसी लगे हुए थे और घर एकदम साफ़-शफ्फाक दिखता था... भाभी भी खूब सुंदर सी थीं और तीनो बच्चे भी एकदम मासूम और प्यारे.. । भाभी को देखकर महेंदर को अपनी एक ममेरी बहन की याद आती थी जिनका बियाह तभी हो गया था जब महेंदर सातवीं क्लास में फेल हुए थे और बाऊजी उनको बियाह में शामिल होने अपने ननिहाल जाने नही दे रहे थे.. फिर उसके बाद उन दीदी को महेंदर ने दोबारा एकाध बार ही देखा था..।   

एकाध बार महेंदर को भाभी ने खाने की पेशकश की थी लेकिन महेंदर ने विनम्रता से इनकार करके चाय पर हामी भर दी थी । महेंदर के दोस्तों ने उनको बहुत पहिले ही समझा दिया था कि 'ये मुसल्ले ससुरे बहुत बदमास होते हैं... ऊपर से कितना भी प्यार दिखाएँ लेकिन अंदर इनके नफरत कूट-कूटकर भरी होती है... इनके यहां भूलकर भी खाना पीना नही चाहिये वर्ना ये उसमे 'गंडझमझम' का पानी मिलाकर धर्म भ्रष्ट कर देते हैं... मटन में बड़े का गोश्त मिलाकर विधर्मी बना देते हैं..।' महेंदर ने जब गंडझमझम के बारे में पूछा तो एक समझदार मित्र ने बताया कि 'इनके यहां जब किसी की मौत होती है तो उसका पिछवाड़ा इसी पानी से धोया जाता है... और उसी पानी को ये बोतलों में बंद करके रख लेते हैं..। इसको ये आबे जमजम बोलते हैं... वही हैं गंडझमझम...।' महेंदर कभी कभार ऐसे टाइम उनके यहां पहुंच जाते और इतनी देर बैठे रह जाते कि उनको सच में भूख लग आती.. तब भाभी उनसे यदि पूछ लेतीं खाने के लिये तो वो गौर से उनके भोले भाले वात्सल्यमय चेहरे की ओर देखकर सोचने लगते कि "क्या भाभी उनके खाने में गंडझमझम मिला देंगी..?" फिर उनको अपने दोस्तों की बात याद आ जाती.... "मुसल्लों का प्यार बस दिखावा है !"  
 अबकी होली के दसेक दिन पहले महेंदर की बोलेरो एक्सिडेंट कर गयी थी... महिंद्रा एजेंसी ने बताया कि गाड़ी को पूरा होने में कम से कम डेढ़ दो महीने लगेंगे... और खर्च सवा लाख से कम भी न आयेगा..। पैसे की तो कोई खास फ़िक्र न थी क्योंकि गाड़ी अभी फर्स्ट इंश्योरेंस में थी लेकिन समस्या ये थी कि उनकी गाडी सिंचाई विभाग के कार्यालय में अनुबंधित थी... और एक्सीडेंट के वक्त गाडी कार्यालय के कार्य पर नही थी अपितु ड्राइवर उसे अपनी ससुराल ले गया था...। बीसेक दिन बाद अप्रैल आ जाता तो एग्रीमेंट का एनुअल रिनीवल कराना था... । अंत में तय हुआ कि गाड़ी बाहर बनवाया जाएँ और रिनीवल की डेट तक विभाग में खड़ी करवा दिया जायें । नज़ीर भाई से इन दो ढाई सालों में कोई खास मुलाकात न हुयी थी.. बस फोन वगैरह से ही बात हुयी थी.. जिनमे उन्ही के फोन ज्यादा थे , होली दीवाली पर बधाई वाले.... महेंदर को तो कभी ईद मुबारक बोलना भी याद न आया..। खैर महेंदर गैराज पर पहुंचे तो नजीर भाई खिल से उठे.. महेंदर ने अपनी व्यथा कथा सुनाई तो नज़ीर भाई ने कहा - "यार मुंह काहें पपीता की तरह लटका रहे हो..? गाडी तो हम तूरी बीस रोज में ही तैयार कर देंगे.. और लाख रूपये के अंदर तैयार कर देंगे..।" महेंदर ने अपने हाथ तंग होने की परेशानी बताई तो नज़ीर भाई ने हाथ में हाथ लेकर कहा- "अबे फिर लटका लिए मुंह.. गाड़ी में काम काफी है.. डेन्टर पेंटर सीट रिपेरर वायरिंग सब लेबर्स का काम है... सामान वामान हम ले आएंगे और जब इनश्योरेन्स क्लेम बनेगा तब अदायगी हो जायेगी...। बस तू दस पंद्रह हजार का इंतजाम कर लो ताकि लेबरों की इन बीस रोज में रोजी-रोटी न मरे..!" महेंदर ने कृतज्ञ होकर उनका हाथ अपने हाथों में जोर से भींच लिया । 
 होली का दिन है... पत्नी और बच्चे बाऊजी की आज्ञा पर गांव पहुंचा दिए गए थे चार दिन पहले ही.. नज़ीर भाई ने पांच हजार बोले थे भिजवाने को लेकिन महेंदर ने सोचा कि अब त्यौहार बाद देंगे..। आज पार्टी का दिन है महेंदर और उनके चार पांच यार बैठे हैं... सामने मेज पर शराब चिखना और सिगरेट के टोटे बिखरे हैं..। सुबह से कार्यक्रम चालू है.. तीसरे पहर दरवाजे पर दस्तक हुयी तो दरवाजा खोलने पर देखा कि नज़ीर भाई खड़े हैं.... नहा धोकर साफ़ हो गए हैं लेकिन कानों पर अभी रंग सही से छूट नही पाया है । महेंदर सुबह से फटी बुश्शर्ट नही बदल पाये नहाना तो दूर की बात है..। थोडा अचकचा गये... "भैया माफ़ करियेगा पैसा था नही... त्यौहार बाद भेजेंगे..।"  
 नज़ीर भाई ठठाकर हंसे-" अबे पैसा तो हम लेबरों को अपने पास से दे दिये.. तू का जानते हो पईसे के खातिर आये हैं..? जाकर कपडा पहिनो और ई कूड़ा कबाड़ा साफ करो मेज पर से.... बाहर गाडी में तुम्हरी भौजाई और भतीजे भतीजी बैठे हैं... होली नही मिलोगे उनसे ??" ...... उफ़ ये कमबख्त हंसी...! नजीर भाई के चेहरे से ऐसी चिपकी है कि छोड़ती ही नही उनको... ! 

अबकी ईद पर महेंदर नज़ीर भाई के घर जरूर जायेंगे... उनको भरोसा है कि भाभी उनके खाने में कत्तई गंडझमझम नही मिलायेगी ।


अतुल शुक्ला
गोरखपुर

Similar News

गुलाब!