आत्मकथा लिखना कठिन होता है, कारण कि इसमें कल्पना का समावेश नहीं किया जाता। और आत्मकथा कभी कभी समाजिक व्यवस्था, शैक्षणिक व्यवस्था के नाजुक अंगों पर प्रहार कर बैठती है। यही नहीं, कभी कभी तो यह सच्चाई स्वयं आपको भी असफल रुप में चित्रित कर जाती है। लेकिन क्या इसी डर से आत्मकथा न लिखी जाए कि यह लेखक के विपरीत जा सकती है? यह तो लेखन के विरुद्ध हो गया। नहीं! मुझे लिखना ही होगा।
इधर मैंने एम ए प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था उधर कस्बे के एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में मेरी नियुक्ति वरिष्ठ अध्यापक के पद पर हुई। कस्बे का वह क्षेत्र शैक्षणिक वातावरण के एकदम विपरीत था। कुछ दिनों पहले ही एक अध्यापक को विद्यालय के छात्रों ने ही गेट पर बुरी तरह मारा था। विद्यालय प्रबंधन ने जबरदस्ती उनका त्यागपत्र ले लिया था। उनके जाने के बाद जो पद रिक्त हुआ उसी पर मेरी नियुक्ति हुई। मेरी कुल योग्यता यही थी कि मैं हिन्दी पढा लेता था। बी एड तक नहीं था मैं उस समय। लेकिन स्ववित्तपोषित विद्यालय के लिए इतनी ही योग्यता बहुत होती है कि, अध्यापक की कुर्सी खाली नहीं है।वहाँ बच्चे एकदम अनियंत्रित और लापरवाह थे । अभिभावक भी बच्चों को स्कूल भेजकर यही सोचने वाले कि चलो बला टली।अध्यापक गण भी आपस में अजीब अजीब मजाक करने वाले।अध्यापिकाएं खुद में ही उलझी हुई। मैंने पहले ही दिन से सख्ती की। बस दो चीजें मन से किया एक पढाना और दूसरा पीटना। रोज मुहल्ले के लड़के हाकी डंडा लिए आते मेरे लिए। मेरी पुरानी आवारागर्दी काम आई। कुछ दादा लोगों को प्यार से समझाया कुछ के लिए उनसे भी बड़ा दादा बनना पड़ा। पन्द्रह जुलाई से जो हाईस्कूल को पढाना शुरू किया, तो छठ पूजा के दिन ही अवकाश किया एक दिन का। बीच में चार महीने रविवार, शनिवार, बरसात, आंधी सबमें लगातार क्लास। इसमें गणित के अध्यापक श्री संजय जी का भरपूर सहयोग मिला।
परिणाम यह हुआ कि पढ़ने वाले बच्चे पढ़ने लगे और न पढने वाले स्कूल छोड़ गए। मेरी चर्चा पूरे कस्बे में होने लगी। लेकिन सख्ती भी बहुत करता था मैं। शायद एक कारण यह भी था कि मुझे 'टीचिंग मैथड' का पूरा ज्ञान नहीं था। एक बार तो मैंने प्रधानाचार्य के पाल्य और विद्यालय प्रबंधन के सह अध्यक्ष के पुत्र को ही गिलास तोड़ने पर पीटा भी, और उनके अभिभावकों को गिलास का मूल्य देने के लिए चिट्ठी भी भेज दी। सहयोगी अध्यापक आश्चर्य से कहने लगे कि आप प्रिसिंपल और मैनेजिंग कमेटी पर चार्ज लगाएंगे। मैंने कहा कि हां कक्षा दस की गिलास टूटी है, मैं क्लास टीचर हूँ। बच्चों के अभिभावक को अर्थदंड देना ही होगा। और प्रिसिंपल साहब ने सहृदयतापूर्वक शुल्क वहन भी किया।
कक्षा नौ के क्लास टीचर संजय जी थे। इनकी क्लास में एक लड़का था नवरत्न। उद्दंड स्वभाव का हफ्ते में दो तीन दिन राजाओं की तरह आने वाला। उसकी किताबें दूसरे लाते थे। अध्यापकों में भी उसकी दहशत थी। मेरी तीन कक्षाएं नौ में थीं। मैं उसको पीटने का मौका ढूंढ ही रहा था कि एक दिन नवरत्न खुद संजय जी से बदतमीजी कर बैठा। संजय जी ने प्रिंसिपल से शिकायत कर दी। प्रिंसिपल सर ने मुझे बुला कर पूछा कि असित जी क्या किया जाए इस बच्चे का? मैं तो परेशान था ही इन शैतानों से। गोलमोल जवाब दे दिया कि - आप देख लीजिए क्या करना है। नवरत्न को विद्यालय से निकाल दिया गया।
दिन पर दिन मेरी प्रसिद्धि बढती जा रही थी।दसवीं की परीक्षा में मेरे विद्यालय का अच्छा प्रदर्शन था। हिंदी में तो कमाल हो गया। रौशनी वर्मा के अंठानबे नंबर थे। सुधांशु महेंद्र या चंदा अणिमा सीमा पिंकी तो खैर अच्छे थे ही। अब सरकारी विद्यालयों के अध्यापक मुझसे टिप्स लेने लगे। यह चमत्कार ही था। बंजर जमीन में फूल खिले थे।
इधर नवरत्न आवारागर्दी करते हुए कभी कभी दिख जाता था।वो धीरे से नमस्ते कहता मैं उसका जवाब दे देता बस। अधिक संबंध क्या रखना उससे। खूब तेज बाईक चलाना सिगरेट पीना लडकियों से छेड़छाड़ करना आम बात थी उसके लिए । कभी कभी मुझे देखकर भी अनदेखा कर देता था । खैर मुझे क्या, मुझे कस्बे की एक संस्था ने सर्वश्रेष्ठ अध्यापक का पुरस्कार भी दे दिया। मैं अब असित सर हो गया था।
सन 2014का फरवरी महीना था।मैं बलिया जीप स्टैंड पर खड़ा था। अचानक एक दुबला-पतला लड़का दिखा जिसके दोनों हाथों में हथकड़ी लगी थी और दोनों ओर से एक एक सिपाहियों ने पकड़ रखा था। मैं लडके को देखकर सोच ही रहा था कि कितने कम उम्र का बड़ा अपराधी है। तब तक उसने कहा - प्रणाम सर।ओह!! मेरी जिंदगी का सबसे बुरा क्षण।अब नवरत्न के इस अभिवादन का जवाब नही दे पाया मैं। मैंने फोन से पता किया तो मालूम हुआ कि नवरत्न पर मारपीट और हत्या के प्रयास का आरोप है।
वो रात मेरी जागते हुए बीती। किसी अध्यापक के लिए इससे बुरी स्थिति क्या है कि उसका बच्चा जेल चला गया। मैं भी दोषी हूँ उसके इस हाल के लिए। अगर उस दिन प्रिंसिपल से मैंने कह दिया होता कि सर इस बच्चे को स्कूल से न निकाला जाए। इसके सुधार की संभावना खत्म हो जाएगी तो शायद नवरत्न भी आज प्रवीण की तरह मर्चेंट नेवी में होता या सुधांशु की तरह एम एससी कर रहा होता।पीतल पर लिखे 'सर्वश्रेष्ठ अध्यापक असित कुमार मिश्र' नामक स्मृति
चिन्ह को कब का तोड़ कर फेंक चुका हूं।और आज अगर भगवान् मुझसे एक वरदान मांगने को कहें तो मैं मांगूंगा कि मुझे उसी डेट में आफिस में खड़ा कर दो जब प्रिसिंपल मुझसे पूछ रहे थे - असित जी इस बच्चे का क्या किया जाए? तो मैं गोद में छुपा लेता नवरत्न को और कहता कि नहीं सर! इसे शैक्षिक उपचार की आवश्यकता है जो एक अध्यापक और विद्यालय ही दे सकता है। स्कूल से निकालना उपाय कैसे हो सकता है? जाहिर है कमियां हैं। तो उसे सुधारने के लिए ही तो हम हैं। अगर सर्वगुण संपन्न होता कोई भी विद्यार्थी, तो विद्यालय में आता ही क्यों? जैसे ही हम किसी बच्चे को विद्यालय से निकालते हैं उसके सुधार की सारी संभावनाएं खत्म हो जातीं हैं...
नवरत्न आजकल जमानत पर रिहा है लेकिन मुझे आज भी 'अपराधबोध' से जमानत नहीं मिली। शायद जिन्दगी भर न मिले। लेकिन मैं अपनी गलती स्वीकार करने की हिम्मत तो रखता हूं।सफाई में लिखूंगा भी नहीं कि तब मेरे पास शैक्षिक प्रशिक्षण नहीं था । उम्र कम थी अनुभव कम था। आज बड़े बड़े विचारकों डाक्टरों और प्रोफेसरों के विद्यार्थी संगीन आरोप में जेल जा रहे हैं। क्या आप भी स्वीकार कर सकते हैं अपनी गलती? आपके पास बड़ी बड़ी डिग्रियां भी हैं उम्र भी ज्यादा, अनुभव भी बहुत। क्या मेरी तरह उसके अपराध अपने सर ले सकते हैं? नहीं न! इसीलिये मैं कहता हूँ कि डॉक्टर प्रोफेसर 'बनना' दूसरी बात है अध्यापक 'होना' दूसरी बात।
असित कुमार मिश्र
बलिया