अरे! कौआ कान ले गया....

Update: 2017-07-12 13:38 GMT
बचपन में बड़े पापा जब भी यह कहते थे मुझसे, मैं बाहर पीपल के पेड़ पर देखने लगता था। सब खूब हंसते थे। मैं बेवकूफ़ बन जाता था। आज वक्त बदल गया है। मैंने सारिका चौधरी जी की पोस्ट शेयर कर दी है लोग व्यथित हो गये। कौए के पीछे दौड़ पड़े हैं। असितवा संघी हो गया नारी शिक्षा विरोधी है। स्त्री के बारे में क्या क्या सोचता है वगैरह वगैरह... 
        दोस्त मैं किसी भी चीज़ को अपनी तरह देखता हूं। संघी हूँ या कांग्रेसी या आपिया यह तो मेरा निजी विषय है। लेकिन एक बात हमेशा से कहता आया हूँ फिर कहूंगा कि नेता की एक जाति होती है और जनता की एक जाति। मैं नेता नहीं हूं। और हाँ, मैं उस नारी शिक्षा का विरोधी हूँ जो सिगरेट शराब पीने को प्रगतिशीलता समझती हो। मैं उस शिक्षा को बंद करने का हिमायती हूँ जहाँ प्रगतिशील होने के नाम पर गर्लफ्रेंड की अदला-बदली होती है।जहां इस तर्क पर दैहिक संबंध बनाए जाते हों कि एक पुरुष भी यही करता है- मैं इसकी निंदा करता हूं।यह शिक्षा ग्रहण करने वाला लड़का है या लड़की यह मेरा विषय नहीं। क्योंकि शिक्षार्थी न पुल्लिंग है न स्त्रीलिंग। मैं शिक्षार्थी के दृष्टिकोण से ही देखता हूं लड़का लड़की के हिसाब से नहीं। 
और जेएनयू में जो भी हुआ उस पर मेरी सोच यह नहीं है कि लडके लडकियों को सजा दो। क्योंकि एक अध्यापक जानता है कि जेएनयू शिक्षण संस्थान है और शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में शिक्षार्थी का दोष होता ही नहीं। 
      मैं तो गाँव में ही रह गया जेएनयू कभी देखा भी नहीं। आप ही बताइए कि प्रवेश परीक्षा के साथ एक पेपर वामपंथ का भी पास करना पड़ता है क्या ? नहीं न! मतलब वो बीए एम ए करने वाले बच्चे हमारे आपके बच्चों की तरह ही नार्मल हैं। फिर कैसे यह घटना हुई? कारण महत्वपूर्ण यही है कि कौन सी शिक्षा दी जा रही है उन्हें।एक अध्यापक चाहे तो शिक्षार्थी को वैज्ञानिक बना दे डाक्टर बना दे या हिन्दुस्तान मुर्दाबाद करने वाला बना दे। 
           इधर लखीमपुर खीरी की एक महिला जिसका चार साल का एक बेटा भी है वो अपनी किडनी देने की बात कर रही है उधर सीमा पर ऋण पैंतालीस डिग्री तापमान में शहीद होने वालों में एक नाम मुसलमान का भी शामिल है। और आप कैसे उनका पक्ष ले रहे हैं जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने सजा दी । जानते हैं हमारे गांवो में एक रिवाज आज भी है कि गांव का कोई व्यक्ति (भले ही खाना पीना न हो दयादी पट्टीदारी न हो) मर जाता है तो उस साल गांव में कोई भी त्योहार नहीं मनाया जाता। आप कौन सी किताब पढ रहे हैं कि जवानों की शहादत का त्योहार छोड़ कर नारों का त्योहार मनाने लगे। 
निश्चित ही आपके भी अपने तर्क होंगे।अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होगी। लेकिन मैं बस एक ही बात कहूंगा जब सारा देश हनुमन्नथप्पा के लिए सजदे में था ...तो अभी आपको यह कदम नहीं उठाना था। आपके इस कथित प्रगतिशील होने से लाख गुना अच्छे मेरे गांव के रूढ़िवादी अनपढ़ लड़के-लड़कियां हैं। उस जुलूस में लड़की लड़का नहीं मेरी बहन बेटी भी होती तो यही लिखता।हां आप अब भी चाहे तो कान के पीछे दौड़ते रहिए ।शोध करते रहिए कि असित कौन जात का है? पुरुषवादी है कि स्त्रीवादी? दक्षिणपंथी है कि वामपंथी? 
 मुझे खुद को साबित करने की आवश्यकता न थी, न है, न होगी। 
लांसनायक हनुमन्नथप्पा के साथ साथ सभी शहीदों को अश्रुपूरित विदाई। हमें फिर आपकी प्रतीक्षा रहेगी। 
असित कुमार मिश्र 
बलिया

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