यह घटना, रामपाल सिंह और नागपाल सिंह, दो भाईयों के परिवार की है। रामपाल सिंह प्रायमरी के अध्यापक थे और नागपाल डाक मुंशी थे। परिवार संयुक्त था और दोनों भाईयों में परिवार के हर मुद्दों को लेकर बेहतरीन सामन्जस्य भी।
रामपाल माट्साब को घर की रोटी-दाल और दूध, मट्ठे से मतलब था। चौराहे पर अखबार और रोज एक बंडल बीड़ी के सहारे पूरे मौज से कट रही थी माट्साब की जिन्दगी। कमोबेश नागपाल जी भी ऐसी जिन्दगी जी रहे थे बस बीड़ी की संख्या में कम-बेशी रहा होगा।
दोनों भाईयों की तनख्वाह तो अच्छी थी लेकिन वे अपनी तनख्वाह का उतना हिस्सा ही पाते थे जिनता दस लोगों के परिवार में उनके हिस्से की रोटी। कुल मिलाकर गाड़ी समतल पर झकाझक दौड़ रही थी।
दोनों लोगों की पत्नियों से सामन्जस्य कुछ ऐसा था जैसे बैलगाड़ी से नधे दो बैल, जो चलते तो अपने ही मन से हैं लेकिन गाड़ी अपने आप खींच कर मुकाम पर पंहुच जाती है। हाँ बैलगाड़ी से छटकने के बाद कभी-कभार सींघ भी लड़ जाये तो कोई आश्चर्य नहीं था।
वैसे भाईयों में समर्पण इतना गहरा था कि परिवार के अन्य कलपुर्जे की आवाज़ इस समर्पण की गहराई में नजरअंदाज हो जाती थी। मतलब बाहर तक नहीं पंहुचती थी।
एक बार परिवार में दूध की किल्लत आई तो दोनों भाईयों के सहमति से एक उन्नत नस्ल वाली मुर्रा भैंस लायी गई। कुल नगद बत्तीस हजार भुगतान करके ! वह भी लगभग दस वर्ष पहले की बात बता रहा हूँ।
घर में नये मेहमान की सेवा और देखरेख के लिये दोनों भाईयों की पत्नियाँ लग गयीं। उसमे भी भैंस सेवा और दुग्ध उपभोग को लेकर एक विवाद पनपने लगा। माट्साब की पत्नी कहतीं कि मैं अधिक काम करती हूँ लेकिन तुम दूध ज्यादा उठा ले जाती हो तो डाकमुंशी की पत्नी अपने काम को ज्यादा गिना कर रोब झाड़तीं और दूध, दही में बड़ा हिस्सा मांगती
धीरे-धीरे दूध दो परिवारों में कश्मीर विवाद की तरह बढ़ने लगा। दूध के पार्श्व प्रभाव ने परिवार को रणक्षेत्र बना दिया। रोज कि हौं-हौं, कचकच से तंग आकर, एक दिन रामपाल माट्साब अपनी पत्नी को बहुत बुरा भला बोल गये। पता नहीं मस्टराइन को कौन सी बात चुभ गई कि वह रातो-रात गेंहूँ रक्षक सल्फास की गोली निगल कर जिन्दगी के पद से इस्तीफ़ा दे गयीं।
माहौल गमगीन हो गया मस्टराइन के मौत के बाद नागपाल जी की पत्नी पूरे परिवार के निशाने पर आयीं। पूरा गाँव-जवार इनको मस्टराइन के मौत का ताना देने लगा। आरोपों की ग्लानि में एक सप्ताह के भीतर डाक मुंशी की पत्नी ने घर की रक्षक, लाइसेंसी बंदूक से खुद को दाग लिया और इस तरह जिंदगी का दूसरा इस्तीफ़ा दोनों भाईयों को विधुर बना गया।
अब घर में दो आरोपी बचे एक हत्यारी भैस और दूसरी हत्यारी बंदूक। भैंस को तुरन्त बरखास्त करके जंगल का राह दिखाया गया और बंदूक बरखास्तगी के बाद थाने चली गयी।
सब कुछ उजड़ने के बाद माट्साब और मुंशी जी की खटिया बाहर आ गयी। वे, बिना एक दूसरे से शिकायत किये, अपनी-अपनी मच्छरदानी पकड़ लेते। माट्साब बीड़ी सुलगाते और डाकमुंशी रेडियो बजाते और सोने से पहले मन ही मन दो सौ गाली बेचारी भैस और बंदूक को परोसते।
किसी कुनबे में छोटी-छोटी महत्वाकांक्षाएँ, ऐसे ही आग लगा कर तमाशा देखती हैं और आप सबकुछ लुटाकर,बेबस बीड़ी फूंकते रह जाते हैं।
अब आप यह जानें कि कुनबे में आग लगाने के लिये भैंस और दूध ही पर्याप्त है, राजसत्ता, पद और जलवा तो बहुत बड़ी चीज हो गई साहब.....बहुत बड़ी।
रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर