प्रवासन अध्ययन विभाग में दीक्षित हुए शुकुल जीपीएच में बतौर अप्रवासी बन कर रहे हैं। विदर्भ के मौसम की मार ने उनके चेहरे को पका दिया है। शुकुल की आँखों में भोलेपन का मिश्रित प्रभाव झलकता है।
शक्ल-ओ-सूरत से जहीन और तमीजदार शुकुल बचपन से ही फेंकने और हाँकने में माहिर हैं।
संचारशास्त्री मार्शल मैक्लुहान ने शुकुल के ही गाँव को देखकर शायद 'ग्लोबल- विलेज की अवधारणा को प्रस्तुत किया। विश्व की कोई भी घटना हो, वह हबहू शुकुल के गांव में घटित हो गई होती है।
अभी कल ही भारत-चीन-भूटान सीमा विवाद को लेकर बात चली तो शुकुल ने बताया कि इ विवाद भी कवनो विवाद हौ, कसमकस तो हमरे गांव में हुई थी। ऊ का भया पड़ोस गांव वाले हमरे गांव के सीमा में चकरोड बान्ह रहे थे, हम लोग मना किये मगर ऊ पीछे नाहीं हटे... लाठी-डंटा-फरसा-तलवार भंजाये लगा बाद में सीएम साहेब आयें तो मामला शांत हुआ।
अपने मित्र-मंडली में 'फोकस' नाम से ख्यात शुकुल के घर पूर्वजों की दी हुई एक धोकड़ी (झोला) है जिसमें जब हाथ डालते हैं आवश्यकता अनुसार लक्ष्मी जी निकल आती हैं।
वे यह भी दावा करते हैं कि उनके खेत में लगी सरसो की फसल 'टांगी' से काटी जाती है। और तो और उनके यहाँ अरहर के पेड़ पर बच्चे दोला-पाती खेलते हैं। शुकुल के साथ रहने वाले उनके स्वभाव से परिचित है कि वे बड़ी लंबी-लंबी फेंकते हैं।
#जीपीएच के मेस की दाल, बाढ़ के पानी की तरह होती है... हर बंधन को तोड़ने को तैयार। एक दिन संयोग से मेस की दाल थोड़ी पतली थी। मेस में शुकुल की टेबल पर उनके जुनियर बैठे थे। उन्होंने इंपरेशन जमाने के लिए कहा कि दाल भी कोई पीने की चीज है हमरे यहाँ तो ऐसी दाल बनती है जिसे चम्मच से काट कर खाया जाता है...
पास में ही बैठे शुकुल के रूम पाटनर रहे बाऊ साहेब को शुकुल का इतना फेंकना रास नहीं आया- उन्होंने गरियाते हुए कहा ए शुकुल काहें इतना फेंक रहो, हमसे तोहार हकीकत छुपी है का बे? कहने वाले तो ये भी कहते हैं कि शुकुल की बेलगाम फेंकाई की लगाम बाऊ साहेब के हाथ में है...
शुकुल के चड्ढी-फ्रेंड बताते हैं, भारत की अमेरिकी नीति के स्वघोषित विशेषज्ञ शुकुल अमेरिका जाने के लिए व्यग्र हो गए हैं... बीते राष्ट्रपति चुनाव के दौरान शुकुल अपने परचिताह संगठनों के माध्यम से हेलरी के पक्ष में माहौल बनाये थे मगर संयोगे खराब था कि वे हार गईं। वरना शुकुल जी अबतक एनआरआई बन गए होते....
देवेंद्र नाथ तिवारी