साँझ हो आयी थी। खेत की मेड़ पर खुरपी चलाती राजमतिया को जैसे कुछ याद आया, वह झट से गर्ही गयी घास को खैंची में उठा कर माथे पर लादे घर की ओर चल पड़ी। तेज क़दमों से झटक कर चलती इस घसवाहीन के माथे से सरक कर तीन चार बार थोड़ी थोड़ी घास गिरी, पर उसने उठाने में समय बर्बाद नही किया। वह जल्द से जल्द घर चहुँपना चाहती थी।
घर पहुची रजमतिया तो दुआर पर पंच बैठ चुके थे। उसने जल्दी से सर का बोझ पटका, और घर में घुसी। आँचल में बंधे आज की बनिहारी से मिले तीस रूपये निकाल कर उसने मन ही मन हिसाब लगाया और बड़की कजली को थमा कर कहा- दस रूपये का आलू, पांच रूपये का करुआ तेल, पांच रूपये का जीरा-मरीच, पांच रूपये का माटी तेल ले लेना। दवाई के दुकान से एक खोराक घाव का दवाई और अगर कुछ बचा तो उसका मिठाई किन लेना। जा जल्दी से आ...
कजली ने मुख्यमन्त्री साईकिल योजना वाली साईकिल निकाली और फुर्र हो गयी।
झटक कर बाहर निकली रजमतिया तो पंच बैठ कर उसका ही इंतजार कर रहे थे। उसके आते ही जादो जी बोले- क्यों रजमातो, देवर का हक दबा कर कब तक बैठी रहोगी? दे क्यों नही देती बुढ़िया के गहनों में से उसका हिस्सा....
राजमतिया ने आँचल से मुह पोंछ कर देखा रामअवतार की ओर, छः महीना पहले तक उसको माँ का दर्जा देने वाला देवर आज पंचायत में माँ के गहनों में हिस्सा मांग रहा था। वे गहने, जिन्हें सुनार के यहां गए वर्षों हो गए थे।
जादो जी ने फिर याद दिलाया, क्यों रजमतिया बोलती क्यों नही? कब देगी उसका हिस्सा?
पिनक कर बोल पड़ी- कौन से गहने सरपंच साहेब? अरे सीधे सीधे क्यों नही कहते कि चुनाव में मैंने आपको भोट नही दिया तो उसी का बैर साधना है। अपना बैर निकालने के लिए मेरे लछुमन जइसे देवर को चढ़ा कर पंचायत बटोरवाते हो, भगवान से भी डर भय नही है का?
सरपंच साहब जैसे तिलमिला गए। गरज कर बोले- सनक गयी है का रे छिनार, मारेंगे एक झांपड़ कि मुह फट जायेगा। हम काहे चढ़ाएंगे रे? खुद हिस्सा मार के बैठी है और पंचो को दोष देती है?
- अरे मार खाना तो गरीब की किस्मत में लिखा ही है सरपंच साहेब, बाकिर मैं अगर हिस्सा मार के बैठी हूँ तो हिस्सा वाला खुद अपना मुह क्यों नही खोलता? जो गहने इसके मरते भाई की बीमारी में भी नही बिके वे पिछले साल इसकी मलेरिया की बीमारी में बिक गए, ई बात यह नही जानता का? और अगर ई नही जानता तो नगीना सोनार तो मर नही गए, उनसे पूछ लो।
रामअवतार ने अब मुह खोला- मेरी बीमारी का बात मत करो भउजी, अगर गहने तुम्हारे पास नही है तो बेटे का किरिया खा कर कहो, मैं मान जाऊंगा।
- आ हा हा, मुह खोलते शरम नही आती रे मउगा? जा मैं नही खाती किरिया। तू ही मेरे बेटे के माथे पर हाथ रख कर कह दे कि भउजी के पास गहने हैं, मैं मान लुंगी और पंचायत का सब सजाय भी भोगने को तैयार हो जाउंगी।
- तू झूठ बोल रही है तो कैसे किरिया खायेगी भउजी, पर हमे कवन डर है? देख लो...
रामावतार झटक कर उठा और भतीजे के पास किरिया खाने पहुच गया, पर भतीजे के सर पर हाथ रखते रखते खीच लिया। उसके हाथ कांप रहे थे। बोला- जा मैं क्यों खाऊं किरिया? झूठ बोले तू और अपने भतीजे को खतरा में मैं डालूं? मैं नही खाऊंगा...
- अरे जा झूठे, बोलते शरम नही आती तुमको। अरे कब तक इन लोगों के फेर में पड़ कर घर को तबाह करेगा रे....
झल्लाते रामअवतार ने पंचो की ओर मुह कर के कहा- माफ़ कीजिये पंचो, हमको कवनो पंचायत नही करानी, आपलोग जाइये।
लाल लाल आँखों से अंगार फेकते सरपंच साहेब ने कहा- अरे तो जब तुम देवर भौजाई को रसलीला करना था तो हमको काहे बुलाया रामअवतार! अरे चलो जी......
सरपंच साहेब चले गए।
रामअवतार की ओर एक दुखी निगाह डाल कर जब राजमतिया आँचल से आँख पोंछती घर में घुस गयी तो रामअवतार के मुह से निकला- ई चुनाव जो न कराये। गांव का भलाई हो न हो, घर घर में अलगा बिलगी जरूर हो गया।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।