बकरी की छाँह.....

Update: 2017-07-04 02:30 GMT
इधर कुछ दिनों से जिन्दगी जैसे 'मोदी' हो गई है। दौड़ना भागना दुनिया भर का और हासिल कुछ भी नहीं। इसीलिए इधर 'मनमोहन' टाइप हो गया था।इधर बरसात ने भी 'प्रियंका गांधी' की तरह दस्तक दे ही दी है उत्तर प्रदेश में। सच कहूं तो समाजवाद रुपी धूप में जलने के बाद प्रियंका जी गांधी हैं या चोपड़ा यह कौन सोचता है! 
सच यही है कि साहित्यकार बनने में लगा था। और साहित्यकार बनने की अनिवार्यता है फूल पौधे लगाना। पंडित विद्यानिवास मिश्र निबंधकार हैं इनका प्रथम निबंध संग्रह था - छितवन की छाँह। मतलब इन्होंने भी छितवन लगाया होगा। पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'अशोक के फूल' लिखा ही था। 'शिरीष के फूल' भी हिंदी में है ही। यहाँ तक कि प्रसिद्ध नवगीतकार पंडित माहेश्वर तिवारी ने 'हरसिंगार के फूल' लिखा।पंत और बच्चन जी ने मिलकर 'खादी के फूल' लिखा था। एक कवि सम्राट को कोई और फूल नहीं मिला तो उन्होंने 'दुपहरिया के फूल' लिख दिया। हमारे पड़ोसी विवेकी राय जी तो फूल पौधों से इतने गहरे जुड़े कि अपने गाजीपुर के पैतृक निवास का नाम ही रख दिया 'गंवई गंध गुलाब' । 
              यही सब देख सुन कर विगत दिनों हमारे भीतर के कवि हृदय ने करुण क्रंदन किया था - "हाय! कैसे कवि हो तुम्हारे पतित हाथों से एक पौधा तक न लग सका"! 
बस उसी दिन हमने तय किया कि दरवाजे पर छितवन लगाया जाए।नजदीकी वन विभाग केन्द्र से एक- एक डाॅलर में दो पौधे आ गए। इधर जबसे गाय बेचकर लैपटॉप खरीदने का चलन चला है तबसे गोबर की खाद केवल गूगल से डाउनलोड होने लगी है। इन विकट परिस्थितियों में पौधरोपण कार्यक्रम जैसे - तैसे संपन्न हुआ। 
इधर हम छितवन की छाँह के तलबगार होने लगे उधर गाँव की आवारा बकरियों ने हमारे छितवन पर 'बुरी नजर' डालनी शुरू कर दी। हमने फेसबुक - ब्लॉग छोड़कर छितवन की पहरेदारी में दिन रात एक कर दिया उधर बकरियों की नापाक और छिछोरी हरकतें बढ़ती गई।
          तीन चार दिनों में छितवन की हरी हरी पत्तियों के बीच कुछ नई पत्तियों के अंकुर फूटे इधर हमने अपने प्रथम काव्य संग्रह का नाम सोचना शुरू किया।संकेत, शब्द, अर्थ, प्रसंग, व्याख्या टाईप नाम जबसे शहर वाली आंटियों ने अपने बच्चों के लिए सुरक्षित कर लिए तबसे साहित्य में नामकरण की समस्या बढ़ गई है। लेखकों ने खीझ कर 'कोठागोई' और 'इश्क़ में शहर होना' टाइप नाम रखने शुरू कर दिये हैं। एक जमाना था जब आंटियाँ पायल, बंधन, खुशी, पलक, घुंघरू टाइप नाम रखती थीं। लेकिन जब एक ही मुहल्ले में पांच पायलें और सात पलकें पैदा होने लगीं तो मजबूरी में आंटियों ने साहित्यिक नाम ढूंढना शुरू किया।वह दिन भी दूर नहीं जब आदिकाल तिवारी के पुत्र छायावाद तिवारी के विवाह का कार्ड घर आएगा। 
      इधर छितवन में नई नई पत्तियों की हरीतिमा ने जैसे ही मुझे इशारे इशारे में बताया कि असित बाबू बधाई हो आप साहित्यकार बनने वाले हैं तभी मैंने छह सात प्लास्टिक की कुर्सियां खरीद डालीं। ताकि साहित्य सृजन के लिए छितवन के अगल बगल 'गुनीजन' बैठ सकें।बिना गुनीजनों को आदर दिए साहित्यकार नहीं बना जा सकता। रीतिकालीन कवि 'पद्माकर' ने बड़ा ही मनोरम वर्णन किया है गुनीजनों के आवभगत का - 
गुलगुली गिल में गलीचा है गुनीजन हैं। 
चांदनी है चिक है चिरागन की माला है। 
कहैं पद्माकर यौं गजक गिजा है सजी 
सेज है सुराही है सुरा है और प्याला है। 
सिसिर के पाला को व्यापत न कसाला तिन्हें 
जिनके अधीन ऐते उदित मसाला है। 
तान तुक ताला है विनोद के रसाला है 
सुबाला हैं दुसाला हैं विसाला चित्रसाला हैं।। 
कुर्सियों की व्यवस्था हो जाने के बाद हमने 'चिक' के बारे में सोचा। लेकिन जबसे नाज़नीनों ने आई ब्रो को थ्रेडिंग के जरिए इंद्रधनुषी आकार देना शुरू किया तबसे परदा या चिक की उपयोगिता खत्म होने लगी। हां सेज की समस्या नहीं हुई क्योंकि नीलकमल कंपनी ने छह कुर्सियों के साथ प्लास्टिक का एक मेज फ्री कर दिया है। लेकिन सुराही को ढूंढते ढूंढते बाजार की अष्टकोणीय परिक्रमा करनी पड़ी। सुरा का कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा क्योंकि पड़ोसी प्रांत बिहार के साहित्यकारों के अनुरोध पत्र आने लगे थे। 
           इधर छितवन ने पत्तियों की संख्या बढ़ानी शुरू की और उधर हमने अपने प्रथम काव्य संग्रह के लोकार्पण के लिए सोचना शुरू किया।सोचते-सोचते रात के दो बजे तय किया कि प्रख्यात समीक्षक ओम निश्चल जी के कर कमलों द्वारा लोकार्पण कराया जाए। फोन पर कार्यक्रम तय भी हो गया।अब हम चैन की नींद सो सकते थे। 
        सुबह आठ बजे बकरियों के मिमियाहट पर नींद खुली। दौड़ कर बाहर आए और देखा कि एक छितवन सिर विहीन कुछ पत्तियों के साथ खड़ा है और दूसरे छितवन की आखिरी पत्ती भी एक बकरी का ग्रास बनने ही वाली थी।'आँखे भर आना' से लेकर 'आँखे पथरा जाना' तक सभी साहित्यिक मुहावरे सजीव हो उठे। तत्काल हमने भरे दिल और खाली हाथों से एक पत्थर उठाया और कमजोर ताकत से बकरी को मारना चाहा, तभी मजबूत ताकत से कबीर दास के एक दोहे ने रोक दिया - "बकरी खाती पात है ताकी काढ्यो खाल"। 
और हमारा हाथ रुक गया... मतलब हम ही नहीं कबीर दास भी बकरी पीड़ित थे। लगता है उन्होंने भी छितवन लगाया होगा। अच्छा बकरी की चर्चा अन्य कवियों ने भी की है जैसे अष्टछाप के सर्वश्रेष्ठ कवि सूरदास ने जब दृष्टिकूट पद रचे तो उन्हें सबसे पहले बकरी का ही ख्याल आया तभी तो उन्होंने लिखा - 
अजा सहेली तासु रिपु ता जननी भरतार। 
ताके सुत के पुत्र को बंदौ बारंबार। 
        सूर ने मुझे चिंतन की एक सर्वथा नई दिशा दी। उन्होंने बताया कि फूल पौधों पर लिखकर ही नहीं, फूल पौधे खाने वाली 'बकरी' पर भी लिखकर साहित्यकार बना जा सकता है।इस तरह भले ही छितवन अब हमारे बीच नहीं है लेकिन कोई बात नहीं बकरी तो है न! अब काव्य संग्रह का शीर्षक बदल कर छितवन की छाँह से 'बकरी की छाँह' ही तो करना है। 

असित कुमार मिश्र 
बलिया

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