सुबह सुबह का वक्त कोई ऑटो वाला दिख ही नही रहा । शुभि जानती है कि भूतनाथ तक टहलकर पहुँच गयी तो कोई ऑटो जरूर दिख जायेगा , लेकिन समयाभाव है कोई रिक्शा ही कर लेगी । "ए भैया बादशाहनगर का क्या लोगे ?" .... "ख़ुशी से जो दे दीजियेगा ले लूंगा " चौंक गयी शुभि , आवाज में ढिठाई है । मन में आया एक चांटा रसीद करे लेकिन चुपचाप बैठ गयी । रिक्शे वाला ऊँची आवाज में गा रहा है । रस्ते में आने वालों से बदतमीजी कर रहा है । वो जानती है कि ये इस वक्त नर मोर है , पंख फैलाकर नाच रहा है ताकि मादा में आकर्षण जगे ।
बादशाहनगर पहुंचकर गोरखपुर का टिकट लेकर बाघ एक्सप्रेस में स्लीपर क्लास में चढ़ जाती है । कल हॉस्टल की सभी सहेलियाँ घर गयी हैं इंटरसिटी से । जाना तो उसे भी था लेकिन सार्थक ने कसम दे दी अपनी कि आज मेरे साथ मूवी चलना पड़ेगा । अब इतनी मासूम सी उसकी इच्छा का दमन करके वो महीने भर के लिये गोरखपुर नही जायेगी । पापा ने फोन किया तो बता दिया कि स्वाति के साथ कल आ जायेगी । स्वाति का नाम इसलिये लिया क्योंकि अगर नंदिता को बता देती तो भाई स्टेशन पर रिसीव करने आ जाता । वो भी नर है आखिरकार ।
पीठ पर कुछ कुछ रेंग रहा है , भीड़ काफी है वो जरा आगे खिसकने लगी । अभी सीट नही मिली .. लोग बर्थ पर पांव पसारे पड़े हैं भरसक सुबह नही हुयी इन लोगों की । अकेली लड़की खड़ी है भीड़ में , इन्हें ये भी नही दिखता । अचानक फिर कुछ रेंगने लगा पीठ पर , लेकिन अबकी बार रेंगने में एक तीखापन है... जैसे बर्र मधुमक्खी के से डंक वाले कीड़े रेंगते हैं । कीड़ा नीचे कमर की ओर बढ़ रहा है । कल मूवी देखते वक्त सार्थक ने कंधे पर हाथ रख दिया था .. उसने पलटकर देखा तो सार्थक दूसरी ओर देखने लगा और हाथ हटा लिया । वो कह नही पायी लेकिन कितना अपनापन और सुरक्षाबोध था उस स्पर्श में , लेकिन आज.... जुगुप्सा सी जग रही है इस विषैले कीड़े से । शुभि पलटी और आग उगलती आँखों से उसकी ओर देखा , तो उसने हकबकाकर हाथ हटा लिया । अरे ये तो वही है जिसने टिकट खिड़की पर कहा था "सिस्टर आप टिकट ले लीजिये पहले" जब वो महिलाओं वाली कदरन छोटी लेकिन सुस्त लाइन में खड़ी थी और इस नासपीटे का नम्बर पुरुषो वाली लाइन में एकदम तुरंत आ गया था । शायद उस टिकट का कमीशन वसूल कर रहा है ये अपनी 'सिस्टर' से ।
डिब्बे के एक कम्पार्टमेंट में एक औरत बैठी हुयी है अपने परिवार के साथ । पति और दो बच्चे हैं, एक दसेक साल और दूसरा सात-आठ साल का । औरत कुरूप और मोटी है । पति ऐसे बैठा हुआ है जैसे अभी भी अलसाया और विरक्त हो अपने परिवार से । "दीदी जरा बच्चे को खिसका लेतीं तो मैं भी बैठ जाती.. बस गोरखपुर तक जाना है" उसने यथासम्भव आवाज में बेचारगी पैदा करते हुये कहा...। "कहीं और बैठ जाओ " कर्कश आवाज में जवाब मिला । खीझ से मन भर गया शुभि का । आगे बढ़ने को उद्यत हुयी तभी सामने वाली सीट पर बैठे भद्र प्रौढ़ ने स्नेहिल आवाज में अधिकार पूर्वक कहा " यहां आकर बैठ जाइये बेटा जी " .।..खिड़की पर बैठे युवक को एक बार उन्होंने हटने को कहा तो उसने इंकार कर दिया... फिर अंकल ने खिसककर जगह बना दी ताकि परेशान सी शुभि बैठ सके । साथ में आंटी भी हैं जो कि अभी भी ऊंघ ही रही हैं । अंकल ने शुभि के पढ़ाई , कैरियर से सम्बंधित दो चार बातें की और जवाब सुनकर "वेरी नाइस , एक्सीलेंट " की सहमति भी भरते रहे । सामने वाली कुरूप महिला की आँखें खूब झगड़ालू जैसी हैं ..लेकिन शुभि जब घूरकर देखती है तो वो आँख चुराने लगती है । उसका छोटा बच्चा लगातार कुछ मांगता है और खाता जा रहा है । जब निश्चिन्तता का अहसास जगा तो शुभि को झपकी सी आ गयी । सपने में देखती है सार्थक ने पीठ पर हाथ रखा है ... अबकी बार वो सार्थक को घूरेगी नही , बेचारा डर जायेगा फिर से । वो अनजान बन गयी है ... सार्थक पीठ सहला रहा है , बगलों में उँगलियाँ पहुंचा रहा है । सार्थक के हाथ गर्म, फिर जलने से लगे हैं... अब बद्तमीज हो रहे हैं... अब उसे हिदायत देनी होगी , अपनी हद में रहने की...! सार्थक ने बगल में चुटकी सी काटी और नींद खुल गयी - "अरे ! ये कौन है..? क्या अंकल जी..?? नही नही वो कैसे होंगे आखिर आँटी भी साथ हैं , और वो हैं भी कितने भले व्यक्ति ! जरूर वो टिकट खिड़की वाला लुच्चा होगा , जो पीछा करके यहां आ गया होगा और अंकल जी से सीट मांगकर बैठ गया होगा !" शुभि जगी हुयी है , लेकिन आँखें खोलने की हिम्मत नही हो रही उसकी । 'नर मोर' को आस बंध गयी है... मादा तैयार है.... वो पंख और फैलाकर नाच रहा है । शुभि ने पलकों की झिर्री से देखा, पेट के ऊपर रेंग रहे हाथ के बाल अधपके हैं.। हाथ गुदगुदा रहा है... शुभि की आत्मा रो रही है । अब बर्दाश्त नही होता ... फफक-फफककर रो पड़ेगी... हाथ टीशर्ट जींस के बीच फासला पैदा करना चाहता है ......
आँखें खोलीं तो सामने बैठी झगड़ालू औरत उसी को देख रही थी । औरत की आँखों में करुणा के भाव हैं.... औरत दूसरी औरत की तकलीफ से एकाकार हो रही है । अपने छोटे बच्चे से कुछ कहती है , छोटा बच्चा बिस्किट खाना बंद करके उठकर उसके पास आता है और बोलता है- "दीदी आप मम्मी के पास जाकर बैठो, मैं यहां बैठता हूँ। खिडक़ी से हाथ मत निकालना , इट्स बैड मैनर "।
अब वो खिड़की वाली सीट पर है , उसी कर्कशा औरत के बगल में । सामने सीट पर अंकल का चेहरा सोने का अभिनय करते हुये भी सफेद पड़ा है ।
दोनों मादाओं ने पूरे रास्ते एक दूसरे से कोई बात नही की!
अतुल शुक्ल
गोरखपुर