पचहत्तर बरिस के बैजू साहू इलाके के नामवर सेठ हैं। घर में सुख- सुविधा में से रत्तीभर कमीं नहीं है। बड़की कोठी, दू ठो चार चक्का.. गांव में कहीं न्योता-हकारी में निकलते हैं तो इनोवा अगली सीट पर बैठ के निकलते हैं। वैसे बैजू साहू बचपने से एतना सुख- सुविधा देखें हैं कि उनके लिये गाड़ी-घोड़ा वैसे ही है जैसे मेहरारू खातिर गोड़े क बिछुआ।
आज बैजू साहू दुआर पर बाहर बैठे हैं और नाती लोग बरसों का जुटा कबाड़ तौलवा रहे हैं। कबाड़ी भी मगन कि आज बड़का सेठ के घर तराजू गिरा है।
कुंतल भर लोहा-लक्कड़ में जवन सबसे वजनदार कबाड़ है वो है बैजू सेठ की पचास बरस पुरान साइकिल। जंग लगके करिया .. बुझात न बा कि इ उहे साइकिल है कि जब इ जवार में उतरी थी तो धामिन साँप की तरह चमक रही थी। बैजू चिंता में पड़ गये , कि कैसे जवानी जंग खाकर करिखा हो जाती है । हार रे समय !
वह भी एक समय था, कि गांव क्या पूरे तहसील के अन्दर सबसे पहिली साइकिल उतारने का श्रेय बैजू साहू के नाम दर्ज हुआ था। लोग बताते हैं जब बैजू साइकिल ढुगराते हुए गांव में घुसे तो पूरा मजमा लग गया । गांव की नई दुल्हिन तक घूंघट से तब तक साइकिल निहारती रहतीं जब तक बैजू किसी मोड़ पर मुड़ नहीं जाते , या आँखो से ओझल नहीं हो जाते।
बैजू साहू का आधा परिवार कलकत्ते रहता था। बड़ा करोबार था और उससे जरूरी था कमाई को प्रमाणित करने के लिये गांव में रुतबा। खेत खरीदे गये , हवेली बनी , आठ जोड़ी बैल खरीदें गये । लेकिन जो इज्ज़त और शोहरत गांव में साइकिल उतारने पर मिली वह बीसियों एकड़ खेत खरीद कर न मिल सकी॥
बैजू साइकिल चलाना सीखे भी तो अपनी ही साइकिल से...वैसे सीखते भी कैसे? शुरुआत के एक महीना तो केवल साइकिल का हैंडल पकड़ के ढुगुराने में चरमसुख प्राप्त कर लेते। ऐसा लगता कि हाथ में नंदी गाय लेकर गांव-गांव घूम रहे हैं और गांव के लड़के भी वैसे ही पीछे दौड़ते , जैसे नंदी गाय के पीछे। बैजू, जब एक महीना साइकिल डुगुरा कर अघा गये तब साइकिल सीखने का संकल्प लिये। साइकिल ऊंचान के सामने खड़ी करके अपने ऊंचान पर खड़े हो जाते तब जाकर साइकिल पर चढ़ते और ठुकठुक करते हॉफ पैडल लेकर अपने ही दुआर पर गोल चक्कर लगाते। बैजू बहु बरामदे से ऐसा चीहां के देखती मानों, बैजू साइकिल नहीं चला रहे कोई बिगड़ैल घोड़ा साज रहे हों। वह एक बार अपने भतार को निहारती और एक बार अपने देवरानी का मुंह जोहती। मानो ताना मार रही हों कि 'देखो हमार भतार कहां पहुंच गये और तू लोग के अभी माटी घुरूच रहें हैं।'
पूरे गांव-जवार में जब पगडंडी पकड़ कर घंटी बजाती बैजू की साइकिल निकलती तो कितने जमींदारो के सीने पर सांप लोटने लगता। केतना त देखते ही भीतर चले जाते। बैल गाय तो साइकिल देखते ही हड़बड़ाकर पगहा तान खड़े हो जाते। शादी बिआह में दुल्हा तक एक चक्कर साईकिल ढुगुराने की चिरौरी कर देता। लेकिन कोई बैजू की मूँछ छू दे , कबूल लेकिन साईकिल छू दे तो फनफना जाते बैजू साहू। साईकिल का कैरियर हल्के-फुल्के और साफसुथरे बोरे के लिये आरक्षित था या बैजू बहु के लिये, आगे के डन्डे पर गमछा लपेट पर बैजू का तीन साल का लड़का एक- दो घंटे बैठकर भी कभी चूँ नहीं कसता।
बैजू बहु जब यह आश्वस्त हो गयीं कि अब बैजू साहू साईकिल को कंट्रोल कर ले रहे हैं तो उनका भी मन साइकिल पर बैठकर बाज़ार जाने के लिये हुलसने लगा। पहिली बार जब बैजू उनको साइकिल पर बिठाये तो पहिले अपनी रफ्तार बना लिये और बोले की दौड़के बैठ जा कैरियर पर! अब बैजू बहु के लिये दौड़ना, कूदना और फिर कैरियर पर साध के बैठना, कठिन हो गया । वह अपनी पहिली साइकिल यात्रा में आत्मविश्वास खोकर, आत्मघाती हो बैंठीं । दौड़ तो लीं , लेकिन कूदकर बैठने में अंदाजा बिगड़ गया .. पति और साईकिल समेत अपने दुआर पर ही छितरा गयीं। हांलाकि गिरने के बाद थोड़ी शर्मिन्दगी जरूर हुई , लेकिन साइकिल की सवारी के दिव्य सुख के समक्ष ऐसी शर्मिन्दिंगी का कितना वजन भला !
ऐसा नहीं कि बैजू बहु एक ही बार धड़ाम हुईं.. एक बार बैजू उनको बैठाकर गांव की पगडंडी पकड़े , हनहनाते जा रहे थे..तभी एक बिलार राह काट गई। बैजू हच्च से ब्रेक मारकर खड़े हो गये। अगोरने लगे कि कोई दूसरा गुजरे तो अपनी यात्रा आगे बढ़ाये। लेकिन कौन खलिहर था जो भरी दुपहिया बाज़ार जाता भला, बैजू नागरा का जूता पहिने कभी बायें से साइकिल रोकते कभी दायें से । जूता भी केवल तीन इंच का स्पोर्ट दे रहा था वह भी किसी एक तरफ ही, हांलाकि चाहिए तो यह था कि बैजू बहु कैरियर से उतर जातीं लेकिन तीन फीट पहिया के ऊपर बैठकर बिलार को गरियाने का जो सुख था वो खड़ा होने में कहाँ..! और फिर हो गया अशुभ.. बैजू अपना, साइकिल और मेहरारू का कुल मिलाकर दो कुन्तल वजन पन्द्रह मिनट नहीं थाम पाये और अगला पहिया घूमकर बिलार के राह काटने के अपशगुन को फलित कर गया!
वैसे जीवन में गिरना और उठना कोई बड़ी बात नहीं । लेकिन अपने ही गांव-सिवान में साइकिल लेकर बार-बार भहरा जाना भी ठीक नहीं। एक बार बैजू मलकिन को कैरियर पर बिठाकर बन्धा पकड़ कर आ रहे थे। उनकी धोती पेट भर हवा घोंटकर फड़फड़ा रही थी। अचानक बन्धे पर से गांव का ढलान आ गया हालांकि बैजू बहु जोर से चिल्लायीं कि "हमके रोक के उतार दीं" लेकिन बैजू आत्मविश्वास से लबरेज़ उतार दिये ढाल पर साइकिल। लेकिन ओफ्फ़! जाने कब पैडल से पांव, हवा में छितर गये कि पता न चला और साइकिल सांप के माफिक लपलप- लपलप लुढ़कती हुई नियंत्रण से बाहर.. या यूँ कहें कि बेवफा हो गई । आधे ढाल से ही मलकिन आठ फीट दूर धान के खेत में गिरीं और बैजू हैंडिल थामे ही चार कलइया खेलकर दूसरी ओर ढहे। किसी तरह उठे तो देखा की साइकिल का हैंडल अपना मुख टेढ़ा करके लेटा है ..और पहिया अभी भी नाच रहा है। जल्दी से उसको स्टैंड पर लगाकार उसका अगला पहिया अपनी दोनों टांगों में फंसाकर लगे सीधा करने । हालांकि उनके दोनों पैर हल-हल कांप रहे थे... धोती भी तीन जगह से मसक उठी थी। उधर बैजू बहु कमर पर हाथ रखकर जमीन पर बैठी थीं । कांप तो वो भी रही थी लेकिन उससे ज्यादा बैजू साहू को गरिया रहीं थी।
वैसे गिरने वाली घटना कोई देख नहीं पाया था , लेकिन आज साइकिल से आने के बाद जब बैजू बहु एक शब्द भी साइकिल का बखान नहीं कीं .. तो देवरानी पूछ बैठी "का ए दीदी ! भाईसाहब अजुओ ढाहि दिहलीं का?" गिरने पर चोट उतनी नहीं लगी थी, जितनी देवरानी के चुटकियाने पर। बैजू बहु मुंह बिचका कर बोलीं "जे उड़ी,तेही न गिरी! अरे ,हम अपने मरदे से हारल बानि की एक ठो मेहरारू नाहीं सम्भरत बा ओ दहिंजरा से।" और रोटी बेलना छोड़ तमतमा कर कमरा में चलीं गयीं।
गांव के भीतर किसी की उन्नति और उपलब्धि कैसे किसी के आँख में किरकिरी बन जाती है ये पूछना हो तो कोई बैजू साहू के करेजा से पूछे। तनिको मौका मिले नाहीं कि कवनो डाही छूच्छी खोल रवाना हो जाये .. या सुज्जा घोंप दे। बेचारे के पंचर जोड़ावे पांच कोस जाना पड़े ।
एक बार गांव के बाऊ साहब साइकिल मांग लिये ... हांलाकि बाऊसाहब चलाना नहीं जानते थे, लेकिन न जाने ढुगुराने में कौन मजा! बैजू साहू मारे डर के साइकिल दे तो दिये , लेकिन उहो साइकिल के पीछे-पीछे वैसही टहल रहे थे जैसे नयी ब्यान की गांव के पीछे दूध पीने के लिये दौड़ता बछवा। बाऊसाहब उबिया के साइकिल वापिस कर दिये ।
एक बार बैजू अपने खेत के किनारे पगडंडी पकड़ के जा रहे थे तभी उनको आभास हुआ कि कोई उनका खेत खाट रहा है बैजू गुस्से से तिलमिलाए साइकिल स्टैंड पर खड़ियाए.. और गरियाते खेत में दौड़े । लोग बताते हैं कि साईकिल का पिछला पहिया स्टैंड पर भी बैजू से तेज दौड़ रहा था..। बैजू जब तक खेत में पंहुचते शिकार हिरन हो गया और साइकिल को उसका दूसरा साथी ऐसे लेकर भागा जैसे बाबा भारती का घोड़ा ।
बैजू एक दिशा में एतना जोर और हूब लगा चुके थे कि अब उल्टा दौड़ना और उल्टा साइकिल चलाना एक ही था समझिए.। बैजू जबतक पगडंडी पर पहुंचे , साइकिल नीलगाय की तरह सिवान के बाहर चौकड़ी भर रही थी। एक बड़ी ही वजनदार मारक क्षमता वाली गारी फेंक के बैजू सिर पकड़ कर पगगंडी पर बैठ गये। बिना साइकिल के घर पहुंचने का मतलब था कि दुल्हन का डोली रोककर गहना लुटा आना ... और बैजू डोली के कहार की तरह दुआर के तख्त पर उतान गिर गये । लुटने के बाद बैजू बहु उनको ऐसे निहार रही थीं जैसे साइकिल नहीं लुटी , बैजू नपुंसक हो गये हों ! एक्के घंटा में पूरा दुआर मनई से भर गया। हालांकि एतना मनई उनके दादा के मरने पर घाट नहीं गये जेतना साइकिल हेराये पर आये। बैजू साहू दो जून निवाला नहीं खाये...अगर एक-दो रोटी खाये भी हों तो खाये का ढकेलना समझिए।
अगले दिन सवेरे चल दिये दस- बारह रसूखदारों के साथ थाने रपट लिखाने । थानेदार ने बड़ी इज्जत से बिठाया , समझ गया कि कोई धन्ना सेठ हैं। यहाँ साइकिल छूने को नसीब न है और ई साहब बिलवा के आये हैं। चाय मंगायी गयी और तसल्ली से उनके मन में उठे शुबहों में चोर तलाशने की बारीक कोशिश की गई। बैजू यह तो जानते थे कि हमरी साइकिल बहुतों की आँख का कांटा है , लेकिन इसको कौन चुरा सकता है ... ई बताना कठिन था । खैर .. ई काम तो पुलिस का है और पुलिस बारह घंटे के भीतर निनकु बेलदार के भूसौले से साइकिल बरामद कर चुकी थी । जब निनकू के उपर लाठी गिरी , निनकू दस लाठी में टूट गया .. और उगल दिया बाऊसाहब का नाम.! मचा हड़कंप !!
बाऊसाहब थाने बुलाये गये , लेकिन वो ठहरे बड़े जमींदार ... इसलिए थाने पर चाय भी पीये और हंसी-ठहाके में लीप-पोतकर फिर निनकुआ को गरियाकर दोषमुक्त होकर चलते बने। बैजू ने भी साइकिल पाकर समझौते में चुप रहना ही उचित समझा .. हालांकि अन्दर से वो कोयले की भट्ठी के माफिक धीक रहे थे।
साइकिल थाने पर पहुंचा दी गई । लेकिन साइकिल जितना कठिन ढूंढना था, उससे अधिक कठिन था थाने से निकलवाना । थानेदार साहब ने साइकिल का कागज़ कल मिलने को कहा। बेचारे बैजू आँखों के सामने साइकिल छोड़कर चले आये , जैसे कोई लाचार बाप जेल में मुलाकत के समय अपने बेटे से मिलने जाये और समय खत्म होने पर को सलाखों के पीछे छोड़कर विदा हो रहा हो। बैजू को भी पता था कि निनकुआ भले चुरा ले गया लेकिन साइकिल जितना सुरक्षित उसके घर थी शायद थाने में न रहेगी ! खैर.. बैजू बुझे मन और बोझिल कदमों से घर की तरफ रवाना हुए। दुआर पर बैजू बहू और उनकी देवरानियाँ बैजू का राह जोह रहीं थी , कि सेठ अब आवें कि तब साइकिल घड़खड़ावत..! नागरे की आवाज़ ने पुनः शंका और कौतूहल का वातारण बना दिया। बैजू बहू तो ऐसा हताश ताक रहीं हूँ कि जैसे बिटिया दहेज उत्पीड़न से त्रस्त हो .. और वो वहाँ बैजू को विदाई कराने भेजीं हों लेकिन बैजू को लड़की के ससुर ने डांट के खदेर दिया हो !
बीस कदम लम्बे से चीखीं "का भईल जी? काहें छूछ्छे हाथ.?? बैजू खिन्नता भरे भाव से सान्त्वना की एक फुंफकार मारे - "थाने पर खड़ी बा, कल दीहें पहुँना।"
"आज का भईल?" बैजू बहु गुर्राते और घूरते हुए बोलीं।
"आज पहुंना लोग अपने दीदी क तिलक चढ़ावे जइहें।" बैजू ने खिन्नता भरे स्वर में व्यंग्य कसा ।
"चलीं मिल गईल न... त आ भी जाई ! मन न छोट करीं , चलीं खाना खायीं ।" बैजू बहु ने ऐसे थपकी दीं जैसे बच्चे की आइसक्रीम गल कर चू गयी हो ।
एतना कहां आसान था कि साइकिल थाना पर खड़ी हो और निवाला घोटाये... रह-रह कर मन बैठ जाता था कि सिपहिया कहीं गश्ती पर लेकर न चला गया हो.. कही कोई अवैध समान लाद कर न घिरिया रहें हो..! ऐसा भी हो सकता है कि किसी सेंधमार या पाकिटमार को डराने के लिये तीन डंडा साइकिल पर मारते हों और दू डंडा उसको ! "हाय रे हमार साइकिलिया ...काहें हम तोहके छोड़ के अइलीं हो...!"
रात भर तकिया सीना के नीचे दबा के सोये .. कहां , नींद तो साइकिल के कैरियर में दबी थाने में जब्त थी। सुबह सवेरे दतुअन-मंजन करके साइकिल का कागज़ लेकर थाने पहुंचे लेकिन साइकिल नदारद ! थानेदार साहब को नमस्ते नहीं किये पहिले पूछे "साहब हमार सइकिलिया"
थानेदार साहब कुटिल मुस्कान बिखेरे और दातुन फांड़ के जिभछोलनी बनाकर बोले "अरे! घबरायीं न सेठ जी ! अब थनवा से न हेराई राऊर साइकिल .. बैठीं चैन से !" फिर लगे ओय-ओय जीभ माजने.। दो मिनट बाद कुल्ला करके बोले- "थाने के सिपाही राय साहब तनीं साइकिल से अपने ससुराल गये हैं , कल जा जायेंगें । लेकिन आप चार दिन बाद मिलियेगा। अब साइकिल आ गई है तो सोच रहें हैं कि लगे हाथ हमहूँ चलाना सीख लें।" बैजू को तो मानो सांप सूंघ गया । लेकिन मारे डरन कहें का ! चुपचाप उठे और बोलेे "ठीक है माईबाप, हम चार दिन बाद आयेंगे लेकिन तनि ख्याल रहे !" फिर कंधे पर गमछा टांगे बोझिल मन से पुलिस विभाग की सात पुश्तों का न्योता करते चल दिये घर की तरफ ।
इसबार का चार दिन का इंतज़ार तिहाड़ जेल के कैदी की तरह गुजरा। दाढ़ी बढ़ाये, खटिया पर लेटे ... दिनभर गुमसुम ... ऐसा लगता कि चार दिन में पृथ्वी खत्म हो जायेगी और इसी भय में जैसे-तैसे जिन्दगी कट रही है। दुकानदारी वैसे ही ठहर गई जैसे घंटों से वीराने में खड़ी कोई मालगाड़ी ।
चार दिन कैसे कटे , यह कोई बैजू से पूछे । अन्तिम दिन जब साइकिल की रिहाई का वक्त आया तो दिल बैठने लगा । सोचने लगे 'कहीँ आज फिर न कह दें कि साइकिल लेकर पिताजी को चारो धाम कराने ले जायेंगे!' इसलिए जरूरी था कि रिहाई कराने के लिये इलाके का कोई मजबूत व्यक्ति पकड़ा जाये। बैजू सुबह ही विधायक जी के बंगले पर दण्डवत् हुए और अपनी व्यथा बताये। विधायक जी बहुत जनप्रिय और सहृदयी व्यक्ति थे .. सो अपने चार चेंलो को लेकर चल दिये थाने और पहुँचते गरजे "ए दरोगा जी ! काहें न देत हंईं सेठजी की साइकिलिया?"
दरोगाजी थोड़ा असहज भाव से खिसिया कर बोले "अरे हम कब रोकें हैं नेताजी.. इन्हीँ की साइकिल है ले जायें!"
अब जाकर जान में जान आयी बैजू को । ऐसा दौड़कर साइकिल की तरफ भागे जैसे कवनो महतारी अपने एक साल-छह माह के बच्चे से चार घंटे बाद मिले और दुनिया की फिकर छोड़कर दूध पिलाने लगे ।
लेकिन विपत्ति पूरी तरह टली कहां थी ! विधायक के चेले ने विधायक जी से दो राउन्ड साइकिल चलाने की गुहार लगा दी । विधायक जी अपने चेले की बात काट न पाये और सेठ जी से बोले "ऐ सेठ , तनि दे दी न एक राउन्ड इहो मार ले!" काँपते हाथों से बैजू ने साइकिल फिर वैसे थमायी जैसे तांत्रिक के हाथ में अपना बच्चा सौंप रहे हों!
चेला एतना हूब में साइकिल पर चढ़ा , कि पांचवें पायडिल में ही साइकिल लेकर धरती पर आ गिरा और साइकिल की हैंडिल अपना मुंह मोड़कर चिचिया रही थी। सबलोग तो हँस रहे थे , लेकिन बैजू का करेजा रो रहा था। वो दौड़ कर साइकिल खड़ा किये और फिर दोनों पैरों के बीच पहिया दाबकर लगे रेखा मिलाने। खैर ... साइकिल छूटी और बैजू एक ही बैठकी में पलट कर पीछे नहीं देखे। पूरी जान झोंककर बंधा, पगडंडी पकड़े घर पहुंचकर ही रुके....
रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर