हम किसान हैं
चीरकर धरती का सीना
दाने हम उगाते हैं
फसल खिले तो खिल जाते हैं
फसल के साथ ही मुरझाते हैं
भूखे पेट हमारे हैं परंतु
दुनिया की भूख मिटाते हैं
रोता है आसमान जब भी
हमारी दुर्दशा को देखकर
तब हम खुशियां मनाते हैंं
और तभी हम मुस्कुराते हैं
कौन समझे हमारे दर्द भला
यहां सभी हमसे कतराते हैं
चुपचाप खुदकुशी कर ली कभी
तो कभी चिट्टी भी हम छोड़ जाते हैं
तोड़कर मौन मुखरित होने का
हौसला भी कभी बनाते हैं
परंतु कब सुना है
किसी ने लाचार की
हद हो गई है अब तो
अत्याचार की
हमारे सीने में बो दी गई गोलियां
लगता है कि अब लोग
अनाज नहीं खाते हैं ।।
अन्नपूर्णा यादव ''अनु''