मानव जीवन में जल का महत्व किसी से छुपा नहीं है। सुबह से उठते ही वह जल का प्रयोग करने लगता है। सुबह उठने के बाद और सोने के पहले तक उसकी जितनी क्रियाएँ हैं, सभी में जल की जरूरत होती है। इसके बावजूद मनुष्य जल संचयन की दिशा में कोई कदम नहीं उठा रहा है। तालाब, पोखरे, गड्ढे, नाले, नदियां, नद सभी धीरे –धीरे सूखते जा रहे हैं । तालाबों, पोखरों, प्रकृतिक गड्ढों को पाट कर या तो उसने घर बना लिए या उस पर खेती करने लगा। नदियों में पानी की मात्रा इतनी कम हो गई है, या वे सूख गई हैं। केवल बरसात के दिनों में ही उनमें पानी दिखाई पड़ता है। जैसे ही बारिश समाप्त होती है, वैसे ही इन नदियों का जल भी बह कर बड़ी नदियों में चला जाता है, और वे सूख जाती हैं। गावों में कुएं समाप्त हो गए। उसकी जगह हैंड पाइप ने ले लिया । जनसंख्या का दबाव दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। जिससे पानी की खपत भी बढ़ती जा रही है। इसलिए भूगर्भ स्तरीय जल का लगातार दोहन हो रहा है । आज की दुनिया अब हैंड पाइपों से भी एक कदम आगे निकल गई, अब तो शहर से लेकर गाँव तक जिसे देखों वह सबमरसिबल बोरिंग करवा रहा है। शहरों में फिर लोग सबमरसिबल का उतना ही उपयोग करते हैं, जितने पानी की जरूरत होती है। लेकिन अपने भ्रमण के दौरान मैंने पाया की गावों में तो लोग एक बार सबमरसिबल चालू करके छोड़ देते हैं, और बड़ी देर तक पानी यूं ही बहता रहता है। बिजली का बिल उन्हें देना नहीं है। भूगर्भ जल के प्रति वे जागरूक नहीं है। लेकिन अभी 2 अक्तूबर, 2019 से लेकर 30 जनबरी, 2020 तक मैंने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक ही नहीं, पूरे दक्षिण भारत की परिक्रमा की। उस दौरान मैंने पाया कि दक्षिण भारत के कई इलाके ऐसे हैं, जहां पिछले कई वर्षों से बारिश नहीं हुई। पीने के पानी के लिए उन्हें कई किलोमीटर जाना पड़ता है। या पानी खरीद कर पीना पड़ता है। पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान यात्रा के दौरान कई बार हमें कई-कई किलोमीटर तक जाने के बाद एक बोतल पानी मिलता था। नहाने की तो बात ही छोड़ दीजिये। कई बार हमें नहाने का पानी नहीं मिला। तीन-तीन दिन तक हम लोग बिना नहाये रहे। इस कारण दक्षिण भारत के लोग जल संचयन के प्रति काफी जागरूक हो गए हैं। बारिश के पानी के संचयन के लिए जगह-जगह बड़े-बड़े तालाब की खुदाई हो रही है। या हो चुकी है। कई तालाबों में कुछ पानी भी देखने को मिले । पानी का के कंजूसी के साथ उपयोग करते हैं। पीने का पानी अलग, बर्तन या हाथ धोने का पानी अलग – अलग देखा । लेकिन जब उत्तर भारत में हमने पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान के तहत पद यात्राएं, सायकिल यात्राएं और वाहन यात्राएं की, तो देखा कि यहाँ के लोग पानी के प्रति बहुत ही केयरलेस हैं। पीने के पानी से लेकर सिचाई तक के पानी में में अपव्यय देखा जा सकता है। जबकि यहाँ का हर आदमी यह अच्छी पानी का महत्त्व जानता है। हर वर्ष हो रही कम वर्षा की वजह से भूगर्भ जल के तेजी से नीचे जाने की वजह से परशन भी है। उसका कोई भी बोर तीन-चार साल से ज्यादा नहीं चलता है। दूसरा और गहरा बोर करवाने के लिए उसे काफी परिश्रम और धन भी व्यय करना पड़ता है । यात्राओं के दौरान वह 15-20 रुपए का पानी का बोतल खरीद कर अपनी प्यास बुझाता है । लेकिन घर लौटते ही वह यह भूल जाता है कि उसने पानी खरीद कर पिया। जबकि आज से बीस – पच्चीस साल पहले यात्राओं के दौरान भी उसे पीने का पानी हर जगह सुलभ था ।
आक्सीजन के बाद मनुष्य के जीवन में जल का विशेष महत्त्व है। महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर पिछले तीन सालों से चल रही पर्यावरण जागरूकता के दौरान हम लोगों से कहते हैं कि आक्सीजन, जिसके बिना हम कुछ पल ही जीवित जिंदा रह सकते हैं। उसका आप सभी को प्रबंध करना चाहिए । हम लोगों को पेड़ लगाने के लिए प्रेरित करते हैं । कहते हैं कि आप के घर में जैसे ही कोई नया मेहमान आए, आप उसके लिए जिस तरह से भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य का प्रबंध करते हैं, ठीक उसी प्रकार आपको उसके आक्सीजन की भी व्यवस्था करना चाहिए। उसके लिए एक पेड़ लगाना चाहिए। सिर्फ एक पेड़ की बात नहीं करते। एक और पेड़ लगाने की बात करते हैं। यानि उनके घर में कोई नया मेहमान आने पर दो पेड़ लगाने की बात करते हैं। एक पेड़ शहर वालों के लिए। कोई बच्चा पढ़ लिख कर नौकरी, या व्यवसाय के लिए या उच्च शिक्षा के लिए नगरों और महानगरों में ही जाएगा। इस यात्राओं के दौरान हुई संगोष्ठियों में कई बार सवाल आए कि अगर लड़की हुई तो। तब हम उनके सवालों का उत्तर देते हुए कहते हैं कि जब आप की लड़की बड़ी हो जाएगी, तो आप अपनी लड़की की शादी किसी ऐसे लड़के से करना चाहेंगे, जो नौकरी या व्यापार करता हो। ऐसे में संभवत: ऐसा वर तो शहरों में ही मिलेगा। इसलिए लड़की पैदा होने पर भी आपको दो पेड़ लगाना चाहिए।
यही बात हम जल संकट के बारे में भी बताते हैं। बारिश के पानी के संचयन से लेकर पानी का मितव्ययिता के साथ उपयोग कैसे करें, उदाहरण सहित उसे समझाते हैं। बर्तन-कपड़े धोने से लेकर पानी पीने तक के प्रसंग और संस्मरण सुनाते हैं । लोगों से अपील करते हैं । अगर आप लोग जागरूक नहीं हुये, तो एक दिन ऐसा आएगा कि इस देश के सभी लोगों को पानी खरीद कर पीना पड़ेगा। पेड़ लगाने के पीछे यह भी समझाते हैं कि इससे पर्याप्त बारिश के साथ – साथ भूगर्भ जल स्तर भी बढ़ेगा । यानि रिचार्ज की प्रक्रिया भी हर वर्ष होना बहुत आवश्यक है। नहीं तो एक दिन ऐसा आएगा कि भूगर्भ जल इतना कम हो जाएगा कि पेट्रोल से भी अधिक महंगा हो जाएगा। ऐसे में जिनके पास खरीदने की कूबत होगी, वही पानी खरीद पाएगा। या हमारी आय या कमाई का एक बड़ा हिस्सा भोजन से अधिक पानी पर खर्च होने लगेगा। इसलिए जल संचयन के लिए जो भी उपाय आपके लिए सुलभ हों, उसका अनुप्रयोग करना चाहिए ।
जल संचयन के साथ दूसरी समस्या जल प्रदूषण की है। आज देश की अधिकांश बड़ी नदियों में जो पानी है, वह नगरों और महानगरों के निकलने वाले नाले का पानी है। जो अत्यंत प्रदूषित रहता है। पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान यात्राओं के दौरान संवाद में एक व्यक्ति ने कहा कि अगर नदियों में नाले न गिरते, तो जिन्हें आप पवित्र नदियां कहते हैं, वे सूख गई होती। यानि गंगा यमुना जैसी भारत की जीवन रेखा मानी जाने वाली नदियां भी नाले में परिवर्तित हो चुकी है। उनका जल इतना प्रदूषित हो चुका है कि पीने की बात तो छोड़िए, नहाने लायक भी नहीं बचा है। देश की सभी बड़ी नदियों में इतनी गाद जम गई है कि उनमें गहराई नाममात्र की है। इस कारण उनकी जल धारण क्षमता भी प्रभावित हुई है । यानि देश की सभी नदियों में जल की मात्रा कम हुई है। इस कारण भी नदियों का जल बुरी तरह प्रदूषित हुआ है। नदियों के नाम तमाम योजनाएँ हर वर्ष लाई जाती है। उसके लिए हजारों करोड़ रुपये का भी प्रबंध किया जाता है। लेकिन तमाम प्रयास के बाद भी वही ढाक के तीन पात। नदियों की तमाम योजनाएँ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। इसके कर्णधारों को बाढ़ का बहाना होता है। क्योंकि नदियों में जब बाढ़ आती है, तो वह फिर सी अपने प्रकृतिस्थ रूप को प्राप्त कर लेती हैं।
जल के अवयवों में बाहरी तत्व प्रवेश कर जाते है तो उनका मौलिक संतुलन बिगड़ जाता है। इस प्रकार जल के दूषित होने की प्रक्रिया या जल में हानिकारक तत्वों की मात्रा का बढ़ना जल प्रदूषण कहलाता है तथा ऐसे पदार्थ जो जल को प्रदूषित करते हैं जल प्रदूषक कहलाते हैं।जल प्रदूषण को मुख्यतः मनुष्य द्वारा अपने क्रियाकलापों से उसके प्राकृतिक, रासायनिक और जैविक घटकों में धीरे-धीरे कमी पैदा करने वाले कार्यों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। जल अवयवों की गुणवत्ता का
कम होना पिछले कुछ दशकों से लगातार बढ़ रहा है तथा औद्योगिक एवं कृषि क्षेत्रों में मानवीय गतिविधियों की वृद्धि से जल प्रदूषण की समस्या अधिक विषम और गंभीर हो गई है। जल प्रदूषिण जैसी पर्यावरण संबंधी समस्या, जल स्रोतों में औद्योगिक इकाइयों द्वारा अनियंत्रित अपशिष्ट के बहाने के कारण उत्पन्न हुआ है।
नदियों और भूगर्भ जल को प्रदूषित करने में प्रमुख भूमिका उद्योगों – कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ठ पदार्थ, शोधन कारखानों, डेयरी उद्योगों से निकलने वाले तरल पदार्थ, संयुक्त तथा अपरिष्कृत मल विसर्जन, नगरों और महानगरों का नदियों में गिरना आदि प्रमुख हैं । इसके अलावा जितने रेडियोधर्मी प्रयोग हैं। उससे भी बहुत अधिक मात्रा में जलाशयों के जल प्रदूषित होते रहते हैं। रेडियोंधर्मी प्रयोग निरंतर चलते रहते हैं। इसकी जितनी प्रयोगशालाएँ हैं, वे बड़े जलाशयों के निकट हैं । रेडियोंधर्मी किरणों का विकिरण इतना भयंकर और प्रभावशील होता है कि अपने संपर्क में आने वाले जलाशयों और भूगर्भ को भी प्रदूषित कर देता है ।
भारत के सभी ऋषियों-मुनियों ने जल के महत्त्व को देखते हुए लोगों को सावधान करते हुए कहा है कि जल ही जीवन है । राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम की एक घटना है । उस समय साबरमती नदी में जल प्रचुर मात्रा में था। बड़े वेग के साथ वह नदी कल-कल निनाद करते हुए बहती थी। इसके बावजूद महात्मा गांधी उसमें से केवल एक लोटा जल लेकर ही अपना मुंह धोते थे। इसे देख कर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उनका मज़ाक बनाया करते । तब महात्मा गांधी ने उन्हें समझाते हुए कहा था कि नदियों में भले ही प्रचुर मात्रा में जल है, लेकिन हम सभी को उतना ही उपयोग में लाना चाहिए, जितनी जरूरत हो । महात्मा गांधी ने जल के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए लिखा है - हमारी पृथ्वी, मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है, लेकिन हमारे लालच को, पूर्ण करने में वह सक्षम नहीं है। पृथ्वी सम्बोधन के पीछे उनका अर्थ यह था कि पृथ्वी पर स्थित सभी पर्वत, वन, नदी आदि ।
जल के महत्त्व को देखते हुए विश्व के प्रत्येक नागरिक की यह ज़िम्मेदारी बन जाती है कि वह जल का उतना ही इस्तेमाल करे, जितनी उसे जरूरत है। इसके साथ – साथ मीठा जल भूगर्भ में कैसे रिचार्ज होता रहे। इसका भी प्रबंध करना होगा। जल संचयन के जितने भी उपागम रहे हैं, उन सभी को पुनर्जीवित करना होगा। वारीश के पानी के अधिक से अधिक पानी को बहने से अधिक कैसे रोका जा स्के, उससे भूगर्भ जल को रिचार्ज किया जाये और सिचाई सहित पानी की जरूरतों को कैसे पूरा किया जाए, इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। नदियों के जल को फिर से कैसे निर्मल बनाया जाए। इसके लिए सरकार और नगरो – महानगरों में रहने वाले सभी नागरिकों को संयुक्त प्रयास करना होगा। केवल सरकारों के योजनाएँ बनाने से सिवाय भ्रष्टाचार के किसी का भला होने वाला नहीं है । किसानों द्वारा कम से कम कीटनाशकों का प्रयोग और जरूरत के मुताबिक खाद का उपयोग किया जाना चाहिए। अधिक मात्रा में उपयोग होने के कारण उसकी बहुत सी मात्रा पृथ्वी की ऊपरी परत में सुरक्षित रहती है। जो बारिश के पानी में घुल कर बह कर नदियों में पहुँच जाती है और जल को प्रदूषित कर देती है । समय रहते हुए हम सभी को चेतना होगा। जल संचयन और जल को कैसे स्वच्छ रखा जाए, इन जिम्मेदारियों का निर्वहन करना होगा । अन्यथा आने वाले समय में भारत को भीषण जल संकट से कोई नहीं बचा सकता । पानी के लिए त्राहि-त्राहि मचेगी। छीना-झपटी मचेगी। धन-पशु उसे ऊंचे दामों पर बेचेंगे और देश का हर नागरिक खरीदने को मजबूर होगा । शहरों में तो अधिकांश लोग खरीद कर पानी पी ही रहे हैं। गावों में भी धीरे-धीरे बोतल का पानी अपना पैर पसार रहा है। शादी-ब्याहों, मांगलिक या अन्य कार्यक्रमों में लोगों ने पानी खरीदना शुरू भी कर दिया है ।
प्रोफेसर डॉ योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट