कोरोना - पर्यावरण जागरूकता अभियान के तहत पिछले एक पखवाड़े से बदायूँ के गांव गांव में साइकिल से जा-जाकर जागरूकता अभियान चला रहा हूँ। बदायूँ के शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों के स्मारक स्थल पर जाकर उन्हें नमन कर रहा हूँ । जो मेरी सायकिल यात्रा का एक प्रमुख अंश है। जिस बार मेरी यात्रा का नाम कोरोना पर्यावरण जागरूकता अभियान शहीद सम्मान सायकिल यात्रा है। स्वतंत्रता दिवस निकट होने के कारण सहज रूप से मैंने स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में जानकारी जुटाना शुरू किया । जिसे उसे शोध पत्र के रूप में प्रकाशित कराया जा सके।
इस यात्रा के दौरान मैंने जो जानकारियां एकत्र की, उस आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर देश की आजादी तक इस जिले के लोगों का अतुलनीय योगदान रहा । 15 मई, 1857 को मेरठ छावनी में आजादी की उठी आग जल्द ही बदायूँ में भी धधकने लगी । यहां की बिल्सी तहसील के बेहटा गोसाई के आजादी के दीवानों ने सरकारी संपत्ति को लूटा और आग के हवाले कर दिया। जो अंग्रेज मिले, उन्हें पीट पीट कर अधमरा कर दिया और असदपुर की ओर रवाना हो गए। जैसे ही इसकी सूचना अंग्रेजों को मिली। कुचलने के प्रयास किया। किंतु यहाँ के स्थानीय लोगों के उग्र रूप को देख कर वे सहम गए और बर्बरता पूर्वक आजादी के दीवानों को कुचलने के लिए पड़ोसी जिले एटा, मुरादाबाद, शाहजहांपुर बरेली की गारद बुला ली। इसके बाद यहां खून की होली खेली गई। जो भी मिला, उसे या तो गोली मार दी गई या त्वरित मुकदमे चलाकर द्रोही बता कर उन्हें फांसी पर लटका दिया गया । यहां के लोगों के स्वदेश प्रेम का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां के आंदोलन कारियों को कुचलने में एक साल का समय लगा। क्रूरता की हद पार करने के बावजूद उन पर काबू पाने में अप्रैल, 1858 में सफलता हाथ लगी ।
इस आंदोलन में गांव के सभी नवयुवकों को इतनी बेरहमी से कुचल दिया गया कि अंग्रेजों की दहशत छा गई। वही नवयुवक बचे, जो जंगलों में छिपे रहे, कंद मूल, फल खाकर वर्षों तक जीवित रह सके ।
लेकिन यहां के लोगों के दिलों में स्वदेश प्रेम की आग बुझी नही । मार्च 1921 में जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी बदायूँ आये, तो लोग तीन दिन पहले से सड़कों के किनारे बैठ कर उनका इंतजार और दर्शन किया। और लोगों के दिलों में धधक रही आग एक बार फिर प्रज्ज्वलित हो उठी। इसी कारण असहयोग आंदोलन में यहां के लोगों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। जिसे कुचलने के लिए एक बार फिर अंग्रेजी हुकूमत को अपना पूरा जोर लगाना पड़ा। लेकिन महात्मा गांधी के तरीकों के कारण उतनी क्रूरता के साथ आंदोलन को नही कुचला जा सका, जैसे 1857 में कुचला गया था। असहयोग आंदोलन में यहां के लोगों के योगदान के कारण ही महात्मा गांधी दांडी यात्रा के पहले 9 नवंबर, 1929 को फिर बदायूँ आये। दातागंज रोड पर स्थित गुरुकुल महाविद्यालय में उन्होंने क्रांतिकारियों को संबोधित किया। उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध करने का अहिंसात्मक मंत्र दिया। इसी कारण 12 मार्च, 1930 को जब उन्होंने एक कानून के खिलाफ दांडी यात्रा शुरू की, तो बदायूँ के क्रांतिकारी भी चुप नही बैठे। यहां के गुलड़िया गांव में सबसे पहले नमक बना कर अंग्रेज सरकार को चुनौती दी गई । यहां के क्रांतिकारियों के हौसले का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां के अलापुर में थाने के सामने नमक बना कर बेचने का काम किया गया । अंग्रेजी हुकूमत ने ऐसे लोगों के खिलाफ बल प्रयोग किया, पकड़ कर जेलों में डालती रही । यहां के अलावा नूनखारी में भी नमक बनाने का काम शुरू हुआ। अंग्रेजों ने खौलते हुए कड़ाहे में क्रांतिकारी विभूति प्रसाद को पलट दिया। जिससे उनके शरीर की पूरी खाल उधड़ गई, लेकिन फिर भी नमक आंदोलन पर कोई प्रभाव नही पड़ा।
इसके बाद 1941 में जब महात्मा गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किया, तब बदायूँ के क्रांतिकारी, आंदोलनकारी फिर आंदोलित हो गए। महात्मा गांधी के दिशा निर्देशों का पालन करते हुए आंदोलन करने लगे । 1942 में महात्मा गांधी के करेंगे या मरेंगे के आंदोलन में यहां के क्रांतिकारियों ने बढ़ चढ़ कर आहुति दी । 1942 से लेकर 1945 तक अंग्रेजी हुकूमत ने यहां के आंदोलनकारियों को कुचलने के भरसक प्रयास किया, जब हर मोर्चे पर नाकाम होने लगे, तो ढीले पड़ गए। किंतु यहां के आंदोलन कारियों का जोश ठंडा नही पड़ा, वे उसी जोश के साथ तब तक लगे रहे, जब तक देश आजाद नही हो गया। लोगों से चर्चा के दौरान रघुवीर सहाय, मुंशी मंगल सेन, चौधरी बदन सिंह यादव, चौधरी तुलसीराम, कुंवर रुकुम सिंह, पंडित निरंजन लाल, मास्टर जंग बहादुर जौहरी आदि के नाम प्रमुखता के साथ बताए। जानकारी तो सबके बारे में है, लेकिन मेरी सोच स्वतंत्रता सेनानी चौधरी बदन सिंह पर आकर टिक गई। जब मैंने यहां के लोगों से पूछा कि चौधरी बदन सिंह का कोई स्मारक स्थल या कोई मूर्ति होगी, जहां जाकर उन्हें मैं नमन कर सकूं । लेकिन उनकी एक भी मूर्ति का भी पता नही चल सका । इसके बाद उनके बारे में जानने की जिज्ञासा और बलवती हुई। जेहन में एक चौधरी बदन सिंह का नाम गूंज रहा था, जिन्हें 1925 के अखिल भारतवर्षीय यादव । महासभा का पूर्णिया में राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया था । लोगों के बताया कि हां, वे यही बदन सिंह थे। इसके बाद उनके संबंध में शोध आसान हो गया । ढेर सारी जानकारियां मिली। लेख के हिसाब से जो जरूरी है, उसे मैं पाठकों से साझा कर रहा हूँ ।
समाज और देश के प्रति अपना जीवन समर्पित करने वाले चौधरी बदन सिंह का जन्म 5 फरवरी, 1893 को ग्राम जरीफ नगर, ब्लाक दहगमा, तहसील सहसवान, जिला बदायूँ में हुआ था। इनके पिता मूल रूप से किसान थे। साथ ही घर मे भैस भी पाली जाती थी, जिससे बच्चों को दूध, दही मिलती रहे। इसी कारण चौधरी बदन सिंह काफी हृष्ट पुष्ट थे। व्यवहारिक होने के कारण समाज और देश की आजादी के प्रति चिंतित रहते थे। समाज और देश के प्रति समर्पण के कारण इनकी ख्याति बहुत ही जल्द ही पूरे देश ।के फैल गई। 1925 में अखिल भारतवर्षीय यादव महासभा के अध्यक्ष बनते ही इनकी गिनती देश के गणमान्य लोगों में होने लगी थी। इस कारण उन पर अंग्रेजी हुकूमत की भी नजर रहने लगी। सामाजिक व्यक्ति होने के कारण उनके एक निर्देश पर पूरे देश के पिछड़े आंदोलन में कूद पड़ते। वे वाक्पटुता में इतने दक्ष थे कि आजादी के पूर्व जितनी बार अंतरिम सरकारें बनी, सभी मे सदस्य चुने गए।
महात्मा गांधी के अत्यंत प्रिय होने के कारण और सभी आंदोलनों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने के कारण अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें 8 बार जेल भेजा और भयंकर यातनाएं दी। 1942के आजादी के आंदोलन में इनकी सहभागिता को देख कर अंग्रेजी हुकूमत घबरा गई और इन पर केस चला कर इनके लिए फांसी की सजा दी। जेल में इतनी यातनाएं दी कि अगर दूध घी नही खाये होते, तो इनके प्राणान्त हो जाते । अपने जीवन के 25 साल जेल और लगभग 25 साल जंगलों में छिप कर अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन चलाने वाले चौधरी बदन सिंह यादव की आज एक मूर्ति भी नही। जब देश आजाद हुआ, तब इनकी फांसी की सजा आजीवन कारावास में बदली। सजा काटने के बाद कांग्रेस के नेताओं ने इन्हें लोकसभा का उम्मीदवार बनाया। ये लगातार दो बार यानी 1962 तक लोकसभा सदस्य रहे। जब अशक्त हो गए, तो अपनी एकमात्र पुत्री को जनता की मांग पर विधान परिषद सदस्य, दो बार सहसवान विधानसभा की विधायक और फिर संभल लोकसभा से सांसद बनावाया। अपने पिता की तरह पुत्री शांति देवी भी इतनी सीधी रहीं कि जनसेवा में ही मशगूल रही और अपने पिता का एक स्मृति स्थल भी नही बनवाया। मुझे तो तब और आश्चर्य होता है कि अखिल भारतवर्षीय यादव महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने का उन्हें लाभ मिला। जिस पिछड़े और अनुसूचित जाति की आजीवन लड़ाई लड़ते लड़ते अपने जीवन के 50 वर्ष घर पर नही रह पाए, ऊज़ समाज ने भी अपने समाज के ऐसे मसीहा के बारे में नही सोचा।
कहने को बदायूँ जिले में सपा के कई सांसद भी हुए, एक ऐसे नेता भी हुए, जिन्हें मिनी मुलायम सिंह कहा जाता था, ऐसा जनता ने बताया, जिनके कहने मात्र से काम हो जाया करते थे। उन्होंने भी अपने समाज के इस ऐतिहासिक पुरुष के बारे में नही सोचा। खोजते खोजते मुझे उनके नाम की एक रोड मिली। आज देश 74वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। लेकिन आजादी के 74 साल बीत जाने के बाद भी अनाम स्वतंत्रता सेनानियो की कौन कहे, सनाम स्वतंत्रता सेनानियों के भी राष्ट्रीय स्मारक हम नही बना सके। बदायूँ जिले और यादव समाज की शान रहे चौधरी बदन सिंह यादव को नमन । जयहिन्द ।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट