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उत्तर प्रदेश

कहीं साइकिल पर बोझ न बन जाए महागठबंधन

कहीं साइकिल पर बोझ न बन जाए महागठबंधन
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समाजवादी पार्टी के रजत जयंती समारोह में महागठबंधन को परवान चढ़ाने के लिए बढ़चढ़ कर दावे जरूर किये गए लेकिन सपा और राष्ट्रीय लोकदल के अलावा गठबंधन का शोर मचाने वाले अन्य राजनीतिक दलों का सूबे में जमीनी वजूद कहीं नजर नहीं आता है। ऐसे में प्रस्तावित गठबंधन साइकिल की गति बढ़ाने के बजाय बोझ बनता अधिक दिख रहा है। मंच पर मौजूद महागठबंधन के तलबगार दलों में से अधिकतर अपने राज्यों में भले ही सियासी ताकत रखते हो परंतु उत्तर प्रदेश में उनका दखल न के बराबर है।

समाजवादी पार्टी के मंच से गठबंधन के ढोल बजाने वालों में सपा के अलावा प्रदेश में रालोद सबसे बड़ा दल माना जा सकता है। गठजोड़ की आड़ में पाला बदलने के माहिर अजित सिंह केवल पश्चिमी उप्र के जाटों में अपना असर रखते है। गत तीन विधानसभा के चुनाव नतीजों पर नजर डाले तो रालोद कभी 3.70 फीसद वोट से ज्यादा नहीं बटोर सका। वर्ष 2002 में भाजपा और 2012 में कांग्रेस के साथ गठजोड़ करके लड़े रालोद को मुजफ्फरनगर दंगे के बाद अपने जाट वोटों को संजोये रखना भी मुश्किल हो रहा है।

पिछले लोकसभा चुनाव में तो अजित सिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी भी अपनी सीट नहीं बचा पाए थे। जाट मुस्लिम समीकरण ध्वस्त होने के बाद रालोद से गठजोड़ को चुनावी लाभ के बजाय नुकसान का सौदा बताने वाले भी सपा के भीतर कम नहीं हैं। यूं भी राज्य पुनर्गठन और हाईकोर्ट बेंच जैसे मुद्दों पर दोनों दलों का वैचारिक मतभेद किसी से छिपा नहीं है।

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