Janta Ki Awaz
व्यंग ही व्यंग

स्कूल टाइम लभ, बोले तो लभ वाला प्रेम...

स्कूल टाइम लभ, बोले तो लभ वाला प्रेम...
X


इक्कीसवीं शताब्दी का पहला दशक शायद इसलिए भी जाना जाएगा, कि इसी समय भारत के गाँवों का प्रेम धीरे धीरे लभ में बदल गया।

अहा! कितने सीधे होते थे हम ग्रामीण लड़के... 3 रुपये के टिकट पर चलने वाले वीडियो हॉल में बैठ कर 21 इंच वाली कलर टीवी पर यदि "मैंने प्यार किया" नहीं देखी होती, तो पता भी नहीं चलता कि कबूतर चिट्ठी भी पहुँचाते हैं। हमें तो बस यह पता था कि कबूतर पका के खाने से मिर्गी की बीमारी ठीक होती है।

और उस दौर की लड़कियां... जैसे माँ-बाप सैंडल को पैर में पहनने से अधिक किसी के मुंह पर मारना सीखा कर भेजते थे। जाने कितने योद्धाओं के प्रेम को लखानी के हवाई चप्पल से पराजित हो कर वीरगति प्राप्त करते देखा था हमने...

इस पहले दशक के शुरुआती वर्षों में हाई स्कूल का मुँह देखने वाले लड़कों को याद होगा, कि तब अधिक से अधिक किसी के नाम का पहला अच्छर अपनी कॉपी के पिछले पन्ने पर लिख लेने की हिम्मत का नाम ही प्यार कहलाता था। लभ लेटर लिखने वालों को तो भगवान स्पेशल कोटा के तहत बनवा कर धरती पर भेजते थे।

तब सौ में से साढ़े निन्यानवे लेटरबाज प्रेमियों की एक ही गति होती थी। पहले लड़की मारती थी, उसके बाद उसके भाइयों के साथ आ कर वे सारे लड़के मारते थे जो मन ही मन उस लड़की को प्रेम करते थे, और अंत में अपने बाबूजी विथ भैया,चाचा एंड होल फेमिली मन भर कचारती थी। और जब दसों द्वार से तरल द्रव्य प्रवाहित होने लगता तो लड़का हिरामन की तरह कसम खाता, " मैं लालकुदारी, पुत्र रासबिहारी, दसों दिशाओं को साक्षी मान कर यह अखण्ड प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज के बाद संगीता कुमारी पुत्री नकछेद साह को अपनी बहन समझूंगा।"

कहना न होगा, पर तब के अधिकांश प्रेमी अपनी प्रेमिका के बच्चों के सम्मानित मामा हैं, और प्रेमिका प्रेमी के बच्चों की बुआ... यह उस समय के प्रेम का समाजवाद था।

वैसे ईमानदारी की बात यह है कि अताउल्ला खान और अल्ताफ राजा जैसे गायकों के गीत न होते तो हमें यह भी पता नहीं चलता कि साला दिल भी टूटने वाली चीज है। नहीं तो खटहवा आम की पुलुइन पर से तीन तीन बार गिरने के बाद भी जिन लड़कों की टांग नहीं टूटती थी, उनका दिल क्या टूटता भला?

इक्कीसवीं सदी के पहले दशक का ग्रामीण प्रेम इस बात के लिए भी जाना जाएगा कि तब प्रेम न किया जाता था, न हो जाता था, बल्कि लहाया जाता था। लड़के बंसी डालते थे, लह गया तो ठीक नहीं तो शराफत जिन्दाबाद... स्कूल के अधिकांश बच्चे तो केवल मौका न मिलने के कारण शरीफ हो जाते थे ,नहीं तो उस दशक में सबसे अधिक "मौका मिलेगा तो हम बता देंगे, तुम्हे केतना प्यार करते हैं सनम..." गीत ही गाया गया था।

इन सब के बीच क्लास में कुछ हम जैसे सचमुच के शरीफ लड़के भी थे, जो अपनी शातिर जासूसी के जोर पर प्रेम कहानियों को पनपने से रोकते थे। मोदी जी ने 2014 में यह नारा दिया पर हमने सन 2000 में ही 'न खाएंगे न खाने देंगे' का नारा बुलन्द किया था। हालांकि अंदर की सच्चाई यह है कि हम जैसे किताबी कीडों को किसी से कोई उम्मीद ही नहीं थी, नहीं तो मौका मिलेगा तो बता देंगे वाला गीत हमारे लिए भी राष्ट्रीय गीत का दर्जा रखता था।

खैर! बात छिड़ी है तो बता देते हैं कि नाइंथ क्लास में.... छोड़िये! नहीं बताएंगे।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

Next Story
Share it