मांस-भक्षण-निषेध : संक्षिप्त प्रमाण : प्रेम शंकर मिश्र
महाभारत में कहा है-
धनेन क्रयिको हन्ति खादकश्चोपभोगतः।
घातको वधबन्धाभ्यामित्येष त्रिविधो वधः॥
आहर्ता चानुमन्ता च विशस्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्ता चोपभोक्ता च खादकाः सर्व एव ते॥
–महा० अनु० ११५/४०, ४९
'मांस खरीदनेवाला धन से प्राणी की हिंसा करता है, खानेवाला उपभोग से करता है और मारनेवाला मारकर और बाँधकर हिंसा करता है, इस पर तीन तरह से वध होता है । जो मनुष्य मांस लाता है, जो मँगाता है, जो पशु के अंग काटता है, जो खरीदता है, जो बेचता है, जो पकाता है और जो खाता है, वे सभी मांस खानेवाले (घातकी) हैं ।'
अतएव मांस-भक्षण धर्म का हनन करनेवाला होने के कारण सर्वथा महापाप है । धर्म के पालन करनेवाले के लिये हिंसा का त्यागना पहली सीढ़ी है । जिसके हृदय में अहिंसा का भाव नहीं है वहाँ धर्म को स्थान ही कहाँ है?
भीष्मपितामह राजा युधिष्ठिर से कहते हैं-
मां स भक्षयते यस्माद्भक्षयिष्ये तमप्यहम ।
एतन्मांसस्य मांसत्वमनुबुद्ध्यस्व भारत ॥
–महा० अनु० ११६/३५
' हे युधिष्ठिर ! वह मुझे खाता है इसलिये मैं भी उसे खाऊँगा यह मांस शब्द का मांसत्व है ऐसा समझो ।'
इसी प्रकार की बात मनु महाराज ने कही है-
मां स भक्षयितामुत्र यस्य मांसमिहाद्म्यहम् ।
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्तिं मनीषणः
॥
–मनु0 ५/५५
' मैं यहाँ जिसका मांस खाता हूँ, वह परलोक में मुझे (मेरा मांस) खायेगा। मांस शब्द का यही अर्थ विद्वान लोग किया करते हैं ।'
आज यहाँ जो जिस जीव के मांस खायेगा किसी समय वही जीव उसका बदला लेने के लिये उसके मांस को खानेवाला बनेगा । जो मनुष्य जिसको जितना कष्ट पहुँचाता है समयान्तर में उसको अपने किये हुए कर्म के फलस्वरुप वह कष्ट और भी अधिक मात्रा में (मय व्याज के) भोगना पड़ता है, इसके सिवा यह भी युक्तिसंगत बात है कि जैसे हमें दूसरे के द्वारा सताये और मारे जाने के समय कष्ट होता है वैसा ही सबको होता है । परपीड़ा महापातक है, पाप का फल सुख कैसे होगा? इसलिये पितामह भीष्म कहते हैं-
कुम्भीपाके च पच्यन्ते तां तां योनिमुपागताः ।
आक्रम्य मार्यमाणाश्च भ्राम्यन्ते वै पुनः पुनः ॥
–महा० अनु० ११६/२१
' मांसाहारी जीव अनेक योनियों में उत्पन्न होते हुए अन्त में कुम्भीपाक नरक में यन्त्रणा भोगते हैं और दूसरे उन्हें बलात दबाकर मार डालते हैं और इस प्रकार वे बार- बार भिन्न-भिन्न योनियों में भटकते रहते हैं ।'
इमे वै मानवा लोके नृशंस मांसगृद्धिनः ।
विसृज्य विविधान भक्ष्यान महारक्षोगणा इव ॥
अपूपान विविधाकारान शाकानि विविधानि च ।
खाण्डवान रसयोगान्न तथेच्छन्ति यथामिषम ॥
–महा० अनु० ११६/१-२
' शोक है कि जगत में क्रूर मनुष्य नाना प्रकार के पवित्र खाद्य पदार्थों को छोड़कर महान राक्षस की भाँति मांस के लिये लालायित रहते हैं तथा भाँति-भाँति की मिठाईयों, तरह-तरह के शाकों, खाँड़ की बनी हुई वस्तुओं और सरस पदार्थों को भी वैसा पसन्द नहीं करते जैसा मांस को।'