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उत्तर प्रदेश

"रामचन्द दुलहा बनि आये...."

रामचन्द दुलहा बनि आये....
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कल टीवी पर अयोध्या जी को देख रहे थे। दो अद्भुत बातें दिखीं। पहली- किन्नर अखाड़े की महामंडलेश्वर पूज्य "लक्ष्मी देवी" जी। कल ज्ञात हुआ कि किन्नरों का भी अखाड़ा है, और उन्हें भी सनातन ने महामंडलेश्वर का पद दिया है। इस धरती पर जाने कितनी संस्कृतियां और सम्प्रदाय हैं, पर समाज के इस परित्यक्त वर्ग को धर्माचार्य के सबसे उच्च पद पर आसीन करने का साहस केवल और केवल सनातन में है। हमें गर्व है कि हम उस संस्कृति के अंग हैं, जिसने विश्व को समानता और सहिष्णुता का अर्थ समझाया है।

दूसरी अद्भुत बात दिखी त्रिनिदाद की रामलीला में। राम विवाह के समय गवैये एक अपरिचित धुन में गा रहे थे, "सिया डाले राम गले जयमाला.. रामचन्द दुलहा बन आये, लछुमन देवरा सोहबाला! सिया डाले राम गले जयमाला..."

भोजपुरी वालों को याद होगा, आज भी हमारे गाँवो में फगुआ में यह गीत गाया जाता है। जानते हैं, आज से तीन सौ वर्ष पहले जब अंग्रेज जबरदस्ती हमारे बुजुर्गों को जहाज पर लाद कर गन्ने की खेती कराने त्रिनिदाद ले गए न, तो उनके पास यहाँ की दो चार लोककथाओं और लोकगीतों के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। उनमें कोई लेखक या कवि नहीं था, वे सब दरिद्र मजदूर थे। पर उन्होंने उसी छोटी सी पूँजी से अपनी संस्कृति खड़ी की। उन्होंने अपनी मिट्टी को याद रखने के लिए रामलीला मंडली बनाई तो उसमें फगुआ-चइता-बारहमासा के गीतों से ही काम चलाया, क्योंकि उन्हें तो बस यही दो चार गीत याद थे। तीन सौ वर्ष बीत गए, पर अपनी धरती से उजड़ कर कई हजार किलोमीटर दूर बसे उन 'संस्कृति के अनपढ़ योद्धाओं' ने उन्हीं चार गीतों के बल पर त्रिनिदाद में एक 'भारत' गढ़ दिया। भारत को त्रिनिदाद में बसे अपने भाइयों से सीखना होगा कि संस्कृति की रक्षा कैसे की जाती है। मेरा दुर्भाग्य था कि मैं कल अयोध्या में नहीं था, यदि होता तो मंच पर चढ़ कर अपने उन बिछड़े भाइयों के गले अवश्य लगता।

दीवाली केवल इसलिए नहीं मनाई जाती कि यह हमारा प्राचीन पर्व है। दीवाली के दिन हम जब दीप जलाते हैं तो हमारे साथ मुस्कुराती है हमारी उस बूढ़ी माँ की आत्मा, जिसने कई हजार वर्षों पूर्व सिन्धु के तट पर इस सृष्टि का पहला दीप जलाया था। हमारे साथ-साथ मुस्कुराता है हमारा पूर्वज वह बूढ़ा कुम्हार, जिसने सरस्वती नदी की मिट्टी से पहला दीप गढ़ा था। हमारे 'तमसो माँ ज्योतिर्गमय' के उद्घोष के साथ खिलखिला उठती हैं हमारे उन महान पूर्वज ऋषियों की आत्माएं जिन्होंने वेदों की ऋचाएं रची थीं। हमारे साथ-साथ हमारी हजार पीढ़ियों के पूर्वज मनाते हैं दीवाली। दीवाली केवल एक पर्व नहीं, हमारी संस्कृति है, हमारा इतिहास है।

दस-बीस वर्ष पूर्व तक दीवाली के दिन कुम्हार के घर से दियों के साथ-साथ मिट्टी से बनी दो और बस्तुएं आती थीं, 'लड़कों के लिए घन्टी और लड़कियों के लिए जाँत।' अब मेरे गाँव का कुम्हार ऐसे खिलौने नहीं बनाता। प्लास्टिक के युग मे मिट्टी से कौन खेलता है! हमनें आज दस किलोमीटर दूर के गाँव से मंगवाया इन खिलौनों को। बच्चें कम से कम पहचानें तो अपनी मिट्टी को! दो चार साल बाद जब बेटी समझने लायक होगी और पूछेगी कि यह 'जाँत' क्या है, तो बताएंगे-"साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व जब महाराणा प्रताप पर संकट के दिन आये तब उनकी महारानी ने इसी जाँत से मक्के का आटा पीसा था। फूल जैसी हमारी उस बड़ी माँ के हाथों में हजार छाले पड़ गए, पर उन्होंने अपना स्वाभिमान नहीं छोड़ा। इस खिलौने में हमारी असँख्य दादियों की मुस्कान है, उनका स्वाभिमान है। हम भले सब कुछ भूल जाएं, पर इस स्वाभिमान को नहीं भूलना है। बेटे को बताएंगे कि मिट्टी के खिलौनों से खेलने वाले इस मिट्टी के लिए हजारों की सँख्या में एक ही साथ मिट्टी में मिल जाते थे, सबकुछ भूल जाओ तब भी अपनी मिट्टी और इस मिट्टी के गर्व को याद रखना।

हमारी सरकार अयोध्या में हमारे इसी स्वाभिमान को पुनर्स्थापित करने का प्रयास कर रही है। स्वागत कीजिये युगों बाद पुनः अयोध्या बनते फैजाबाद का। रामलला का मंदिर भी बनेगा, अगला विक्रमादित्य बनने का सौभाग्य किसके माथे पर जुड़ने वाला है, कौन जानता है!

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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