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उत्तर प्रदेश

गिरता रुपया, घटता विदेशी मुद्रा भंडार :- (धीरेन्द्र कुमार दुबे)

गिरता रुपया, घटता विदेशी मुद्रा भंडार :-    (धीरेन्द्र कुमार दुबे)
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देश की अर्थव्यवस्था विरोधाभास की स्थिति में है। विकास दर आठ प्रतिशत के ऊपर आ गया है। उपभोक्ता कीमतों का सूचकांक 3.6 प्रतिशत पर है और थोक कीमतों का 4.53 प्रतिशत है। निर्यात में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यातायात, संचार, होटल व्यापार में 12 प्रतिशत वृद्धि हळ्ई है। कारखानों का उत्पादन 6.6 प्रतिशत ऊपर आया है। ये सभी आंकड़े पिछले वर्ष के अगस्त महीने से अच्छे हैं। अनाज का उत्पादन 2017-18 में बारिश सामान्य होते हुए भी रिकार्ड स्तर पर रहा। इन सबके बावजूद अर्थव्यवस्था अस्थिर है। पेट्रोल की बढ़ती कीमतें और रुपये की गिरती क्रय शक्ति ने न केवल नीति निर्धारकों की नींद उड़ा दी है, बल्कि आम आदमी भी इसकी चपेट में आने लगा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत पिछले कुछ दिनों से लगातार बढ़ रही है, जिससे देश की तेल कंपनियां कीमतें बढ़ाने को मजबूर हैं।

सरकार को पेट्रोल की ड्यूटी और करों से भारी राजस्व मिलता है। केंद्र और राज्य सरकारें अपना राजस्व कम नहीं करना चाहती, क्योंकि इससे विकास योजनाओं के लिए धन की कमी हो जाएगी और सरकारी खर्चो में भी कटौती करनी पड़ेगी। कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें देश की विदेशी मुद्रा का भंडार खाली कर रही हैं। अप्रैल 2018 में विदेशी मुद्रा का भंडार 426 बिलियन डॉलर था, जो आज 400 बिलियन डॉलर के आसपास आ गया है। अर्थव्यवस्था में कमजोरी के संकेत विदेशी निवेशकों को हतोत्साहित कर रहे हैं। पिछले कुछ दिनों में विदेशी मुद्रा का निर्गमन तेजी से हुआ है।

देश का व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है। आयात वृद्धि की दर निर्यात वृद्धि से अधिक है। जून 2018 में व्यापार घाटा पिछले पांच वर्षो के रिकॉर्ड तोड़ते हुए 12.79 बिलियन डॉलर पर पहुंच गया। अगस्त 2018 में यह 17.4 बिलियन डॉलर था। इस दशा में यदि बदलाव नहीं आया तो 3.3 प्रतिशत का बजटीय घाटे का केंद्र सरकार का लक्ष्य पूरा हो पाएगा, इसमें संदेह है।

भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कच्चा तेल आयात करने वाला देश है। 80 प्रतिशत तेल आयात होता है। तेल उत्पादन की मात्र और उसकी कीमत निर्धारण तेल उत्पादक देशों का संगठन ओपेक करता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें गिरती चढ़ती रहती हैं। पिछले तीन सप्ताह में पेट्रोल और डीजल की कीमतें बेतहाशा बढ़ी हैं। दिल्ली में अगस्त के आखिर में पेट्रोल की खुदरा कीमत 70 रुपये प्रतिलीटर थी जो अब 80 रुपये को पार कर गई है। डीजल की भी वही स्थिति है। चूंकि पेट्रोल पर वैट, ड्यूटी और टैक्स राज्य सरकारें तय करती हैं इससे देश के विभिन्न हिस्सों में पेट्रोल के दाम एक से नहीं होते। महाराष्ट्र में पेट्रोल 90 रुपये प्रति लीटर के ऊपर जा चुका है, जबकि गोवा में 70 रुपये के नीचे है। पेट्रोल, डीजल आदि की कीमत में आधे के करीब टैक्स, वितरकों का मुनाफा और ढळ्लाई खर्च शामिल होता है।

कंपनियां करती हैं कीमत निर्धारित:- देश की पेट्रोल कंपनियां तेल की कीमत निर्धारण करने के लिए स्वतंत्र हैं। अधिकांश तेल कंपनियां सार्वजनिक क्षेत्र में हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत, अपना मुनाफा और राज्य व केंद्र में लगने वाले करों को ध्यान में रखकर ये कंपनियां पेट्रोल की कीमत निर्धारित करती हैं। कीमतों में बढ़त का सिलसिला वर्ष 2010 के बाद तेज हो गया है। पेट्रोल 40 रुपये प्रति लीटर से 2013 में 63 रुपये पहुंच गया और अब 80 रुपये से अधिक। एलपीजी की कीमत सरकार तय करती है। घरों में इस्तेमाल का 14.2 किलो के सिलेंडर की कीमत दिल्ली में बिना सब्सिडी के 820 रुपये और सब्सिडी के बाद 483 रुपये है। पेट्रोल के साथ-साथ डीजल और सभी ईंधन महंगे होते जा रहे हैं जिससे उपभोक्ता पूरे देश में त्रस्त हैं। डीजल की कीमत में वृद्धि किसानों की परेशानी बढ़ा रही है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, राजस्थान और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने पेट्रोल पर राज्य करों में कुछ कमी की है जो 'ऊंट के मुंह में जीरे' की तरह है, पर सरकारों के राजस्व पर भारी बोझ पड़ रहा है।

भारतीय रुपया ढलान पर है। 15 अगस्त को 69.72 रुपया एक डॉलर के बराबर था, जो अब 72 रुपये के आसपास पहुंच चुका है। इतने कम समय में रुपये की कीमत में यह रिकॉर्ड गिरावट है। नीति आयोग के चेयरमैन का मानना है कि इससे चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि रुपया अपने असली कीमत पर आ रहा है। इस वर्ष के शुरू से अब तक 10 प्रतिशत से अधिक की गिरावट को गंभीरता से न लेना देश के लिए महंगा पड़ सकता है। सरकार यह समझ चुकी है और रुपये को थामने के लिए कुछ आवश्यक कदम उठाने की घोषणा हुई है। रुपये की कीमत में गिरावट न केवल आयात महंगा कर देता है और व्यापार घाटे को बढ़ा देता है, बल्कि विदेशी निवेश को भी प्रभावित करता है और मुद्रा स्फीति बढ़ाता है। रुपया सस्ता होने का लाभ निर्यातकों को होता है, किंतु यह लंबे समय तक नहीं चल सकता। देश के कुल आयात में कच्चे तेल का सर्वाधिक भार है जो आयात बिल को तेजी से बढ़ा रहा है, विदेशी मुद्रा के भंडार में कमी ला रही है। यह स्थिति बनी रही तो सरकार बजटीय घाटे का लक्ष्य पूरा नहीं कर पाएगी।

कुछ ही महीनों पूर्व भारतीय रुपया एशिया की सबसे मजबूत करेंसी थी, आज उसकी गिनती कमजोर करेंसियों में होने लगी है। विश्व की कुछ और करेंसियों लीरा, रूबल, रैंड, यूआन आदि में भी गिरावट आई है, किंतु उसे मापदंड मानकर स्थिति की गंभीरता को नजरअंदाज करना भूल होगी। अमेरिका और चीन के बीच शुरू हुआ व्यापार युद्ध भी रुपये को प्रभावित कर रहा है। अमेरिका के आंतरिक बाजार में ब्याज दर में बढ़ोतरी भी रुपये पर असर डाल रही हैं, क्योंकि वहां के निवेशक अपने पूंजी बाजार की तरफ मुड़ रहे हैं। पिछले तीन महीनों में विदेशी निवेशक नौ अरब डॉलर का निवेश भारत से निकाल ले गए। रुपये को वापस पटरी पर लाने के लिए सरकार आयात घटाने, निर्यात बढ़ाने और विदेशी व्यापार के नियमों को आसान बनाने के तरीकों पर विचार कर रही है। इसमें विदेशी व्यापार के लिए उधार संबंधी नियमों को आसान बनाना, कॉरपोरेट ब्रांड बाजार में पोर्टफोलियो निवेशकों की भागीदारी बढ़ाना, कॉरपोरेट बांड के इशू की 50 प्रतिशत की सीमा की समीक्षा आदि शामिल हैं। सरकार का मानना है कि इन उपायों से व्यापार घाटा नियंत्रित होगा।

अर्थव्यवस्था पर व्यापक असर:- रुपये को स्थिर करने के लिए सरकार ने जिन उपायों की घोषणा की है उसका तुरंत असर नहीं दिख रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह दूरगामी प्रभाव वाले उपाय हैं, इसलिए ऐसे कदम उठाए जाने चाहिए जो रुपये की गिरावट को तत्काल रोके। रिजर्व बैंक द्वारा ओपन मार्केट ऑपरेशन को कुछ सफलता मिली थी। निवेशकों में विश्वास पैदा करने के प्रयास में तेजी आवश्यक है। रुपये में लगातार गिरावट शेयर बाजार पर भी असर डाल रही है। देशी निवेशकों का अभी पूंजी बाजार पर भरोसा बना हुआ है, जिससे स्थिति नियंत्रण में है। ऐसे में उन्हें और निवेश के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। पेट्रोल की कीमतों का निर्णय पूरी तरह से कंपनियों पर न छोड़कर, जनहित में कीमतों पर तुरंत लगाम लगाने की आवश्यकता है। रुपये को स्थिर करने में भी यह सहायक होगी।

निर्यात में पिछले महीनों में बढ़त हुई है, जो अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत है, किंतु निर्यात का प्रमुख स्नोत कपड़ा और वस्त्र उद्योग सिकुड़ रहा रहा है। पिछले एक वर्ष में इसके निर्यात में 12 प्रतिशत की कमी आई है। चीन की सस्ती रेशम, रेडीमेड कपड़े और टेक्सटाईल के बहुत सारे सामान भारतीय वस्त्र उद्योग पर काले बादल बन कर छा रहे हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए सरकार को ठोस कदम उठाना चाहिए। व्यापारियों को बैंक से मिलने वाले कर्ज में भी कमी आई है। जब से एनपीए के घोटाले सामने आने लगे हैं बैंक कछुए की तरह अपनी गर्दन अंदर करने में लगे हैं। उद्योगों और वाणिज्य के लिए बाजार में रुपये की कमी है। जीएसटी में व्यापारियों को जो रुपया वापस मिलना है उसमें भी सरकार देरी कर रही है जिससे व्यापारी त्रस्त हैं। उद्योगों, व्यापार और निवेश के लिए अच्छा वातावरण बना कर ही सरकार अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सकती है।

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