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उत्तर प्रदेश

फिर एक कहानी और श्रीमुख "ज्ञानवापी"

फिर एक कहानी और श्रीमुख  ज्ञानवापी
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ई. सन 1669। क्वार(अश्विन) का महीना तनिक आलस के साथ धान की फूटती बालियों से उलझ रहा था, कि अचानक उसने देखा- गंगा का पानी लाल होने लगा था। वह चौंक उठा। कुछ ही वर्ष पहले उसने गंगा को लाल होते देखा था, जब मुगल सैनिकों ने विंध्याचल के विंध्यवासिनी मंदिर को तोड़ कर वहां के हिन्दुओं का सामूहिक नरसंहार किया था। उसे फिर किसी अनहोनी की आशंका हुई, वह कांपते हुए गंगा की उल्टी दिशा में दौड़ा।
गंगा के पाट पर दौड़ता क्वार अभी काशी से तीन कोस दूर था, कि चीखों से उसके कान फटने लगे। उसके रोंगटे खड़े हो गए, और मुह से निकला- तो क्या विश्वनाथ भी....
कांपता क्वार दूने वेग से दौड़ा। काशी पहुँचते ही उसने देखा- विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग पर चढ़ाये जाने वाले जल को पुनः गंगा में मिलाने वाली नालियों से गाढ़ा रक्त आ कर गंगा में मिल रहा था। क्वार ने घाट से ही गर्दन उचका कर देखा- विश्वनाथ मंदिर का गगनचुम्बी गुम्बज धरती पर पड़ा था, असंख्य पुजारियों के शव यत्र तत्र बिखरे पड़े थे, और अब घरों में छिपे लोगों को खींच खींच कर काटा जा रहा था। काफिरों के सरों की मीनार बना कर गाज़ी की पदवी पाने के इक्छुक मुगल सेनापति के लिए बच्चों, स्त्रियों और पुरुषों में कोई भेद नहीं था, उसके लिए सब काफिर थे। डर से माँ माँ चिल्लाते बच्चों को भी बिना दया किये वे ऐसे काट रहे थे, जैसे प्रतिदिन बकरियों भेड़ों को काटते थे। क्वार वहीं गंगा के पूर्वी तट पर जड़ हो गया था। उसने गंगा को पार कर काशी में प्रवेश नहीं किया।
काशी उजड़ गयी थी, विश्वनाथ मंदिर की दीवालों पर गोल गुम्बज बना कर उसे मस्जिद का रूप दे दिया गया था। उधर दिल्ली जश्न मना रही थी। काफिरों के सबसे बड़े तीर्थ को ध्वस्त करने के लिए औरंगजेब को चारो तरफ से बधाई मिल रही थी। पर हिन्दुओं के नरसंहार और मंदिर तोड़ने के आदी मुगलों का सबसे क्रूर शहंशाह आज पहली बार अंदर ही अंदर डर रहा था। मध्यभारत में शिवा की बढ़ती शक्ति ने उसे पहली बार भयभीत किया था। उसे लगा कि यदि शिवा तक यह खबर पहुँची, तो वह देश के सभी हिन्दुओं को एक साथ खड़ा कर सकता है। सो औरंगजेब ने अपने गुलाम अदीबों को बुलवाया और उनसे एक कथा गढ़वायी- "मुगल शहंशाह के काफिले के साथ जाते एक हिन्दू राजा की पत्नी जब विश्वनाथ मंदिर में दर्शन के लिए गयी तो पुजारियों ने उसके साथ अभद्रता की, सो महान शासक ने दुष्ट पुजारियों को दंडित करने के लिए मंदिर तोड़ने का हुक्म सुनाया, और मंदिर तोड़ दिया गया।"
अदीबों का सत्य आम-जनता खूब जानती है। पूरा देश जानता था कि सत्ता के दलाल झूठ बोल रहे हैं। क्रूर और बलात्कारी मुगलों के काफिले में कोई हिन्दू राजा अपनी स्त्रियों के साथ नहीं जाता, यह बात सभी जानते थे। फिर काशी तो काशी थी। बड़े बड़े शहंशाहों को अपने ठेंगे पर रखने वाले काशीवासियों ने सत्ता को भी ठेंगा दिखलाया, और विश्वनाथ मंदिर के स्थान पर बने मस्जिद को नाम दिया- ज्ञानवापी। औरंगजेब का दिया नाम "अंजुमन इंतहाजामिया जामा मस्जिद" किसी को याद नहीं रहा, एक कुत्ते तक को भी नहीं। काशी ने मस्जिद में भी मंदिर को याद रखा।
युग बीत गए। मुगल खानदान का पतन उसी दिन से प्रारम्भ हो गया था। औरंगजेब के मरते ही भारत के अधिकांश सूबे स्वतन्त्र होने लगे। मुगलों का नाश हो गया, पर काशी अगले तीस सालों में ही खड़ी हो गयी थी। अपनी उसी प्राचीन मर्यादा और चिर परिचित ठसक के साथ।
पचास वर्षों बाद मराठा नरेश मल्हार राव होल्कर ने पुनः विश्वनाथ मंदिर बनवाने का प्रयत्न किया, पर उस युग के कथित धर्मनिरपेक्ष लखनऊ के नबाबों ने इसका घोर विरोध किया। महाराज होल्कर के प्रयास असफल हुए और मंदिर बनवाने की अधूरी इच्छा लिए ही वे दुनिया छोड़ गए।
युग ने फिर करवट ली। इसबार नबाबों की शक्ति भी समाप्त हो आयी थी। महाराज होल्कर की पुत्रवधू अहिल्याबाई होल्कर ने देश के कथित धर्मनिरपेक्षों के घोर विरोध से लड़ कर काशी में पुनः विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया।
काशी खिलखिला कर हँस पड़ी। पर युगों से गंगा के पूर्वी तट पर उदास बैठा क्वार मुस्कुरा भी न सका। वह जब सर उठा कर देखता, तो विश्वनाथ मंदिर की दीवारों पर खड़े ज्ञानवापी के गुम्बज उसको मुह चिढ़ाने लगते, उसका सर झुक जाता। उसे गंगा का पानी लाल दिखने लगता।
युग बीत गए, काशी में कभी क्वार नहीं आता। ईश्वर जाने कब आएगा।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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