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व्यंग ही व्यंग

'केक' की उत्पत्ति, उद्भव सम्बन्धी न तो कोई प्रमाणिक सूचना...

केक की उत्पत्ति, उद्भव सम्बन्धी न तो कोई प्रमाणिक सूचना...
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तमाम खोजबीन के बाद 'केक' की उत्पत्ति, उद्भव सम्बन्धी न तो कोई प्रमाणिक सूचना मिली न ही साक्ष्य. बाबजूद इसके यह नामुराद प्रत्येक घरों में बच्चों के जन्मदिवस, मातापिता के सालगिरह यहाँ तक की बुजुर्गों के जन्मोत्सव में भी मोमबत्ती के नीचे हमें मुंह चिढ़ाता दिख जाता है.

फेसबुक का सिपाही हूँ एवं विगत पांच वर्ष से अपनी ड्यूटी पर मुश्तैद भी. कदाचित् ही कोई दिवस गुजरा हो जो मैंने जलती मोमबत्ती एवं कटते केक के नीचे अपनी शुभकामनाएं न भेजी हों.

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मैं खुद एक लाचार पिता की हैसियत से यह लिख रहा हूँ कि मेरे जैसे अनगिनत लाचार पिता केक की प्रसांगिकता, उपयोग एवं मोमबत्ती बुझाने के नकारात्मक संदेश को समझने के बावजूद केक खरीदने के लिए विवश हैं. हम सब जानने के बावज़ूद वो सब करते हैं जिसका विरोध सोशल मीडिया पर किया जाता है और उस विरोध के एक सिपाही खुद हम होते हैं.

मित्रों!

हम दशको से न तो केक संस्कृति को बदल पाये और न ही उसके स्थान पर कोई विकल्प तैयार कर पाये. वजह सिर्फ यह कि हमें सिर्फ विरोध करना आता है.. हमने आविष्कार और परिवर्तन पर कोई ध्यान नहीं दिया.. यहाँ तक कि हम इतने परम्परागत हैं का हम न तो गुझिया का आकार बदल पाये न ही स्वाद. आज भी हमारे पास गुझिया के न तो चाकलेटी फ्लेवर है न ही स्ट्राबेरी... हम दशको से एक भी आकार एवं स्वाद लेकर दूसरे के मुंह में ठूंसते फिरते हैं. उधर केक प्रत्येक दिन अपने रंग, आकार एवं स्वाद को लेकर सजग है. वह व्यक्ति के पसंद के अनुसार खुद को लगातार परिवर्तित एवं परिमार्जित करने में लगा रहा.

आप गमले में तुलसी लगाकर पानी डालना भूल गये उधर वो कृत्रिम पेड़ पर टॉफी, चाकलेट एवं लाइट जलाकर उसे बाज़ार में खड़ा कर दिया गया.

आपने अपने दाड़ी वाले बाबा को धरकोसवा (बच्चा चुराने वाला) बताकर डराया. उन्होंने उसी वेशभूषा को लाल टोपी पहनाकर उपहार बंटवा दिया. बताइए कैसे नहीं बच्चे जिंगल बेल, जिंगल बेल.. गीत गायेंगे.

भाई! जो भी व्यक्ति, धार्मिक कट्टरपंथ का शिकार नहीं है उसे दूसरे धर्म की वह चीज़ अच्छी एवं अनुसरण करने योग्य लगेगी जिसमें उसे सहज आनन्द आता हो.. इसका प्रमाण- रक्षाबंधन में बहनों द्वारा भाई को राखी बांधने का उदाहरण, दीपावली में दीप प्रज्वलन एवं पटाखों को लेकर दूसरे धर्म के बच्चों के आंखों में उसे करने एवं हासिल की ललक, नागपंचमी में पतंग उड़ाने की होड़.

जो रुचिकर नहीं है उसका अनुकरण आज भी नहीं.. मसलन- हिन्दुओं की एक बड़ी आबादी रोजाना केक भले न खाती हो लेकिन मांस खाती है फिर भी उसने बकरीद से बकरा काटने का अनुसरण न करके चाकू द्वारा केक काटने को चुना और अपने प्रिय के जन्मदिवस पर स्थान दिया.

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मुझे मालूम है कि आप मुझे समझाने आ जायेंगे फिर भी यह मेरा मत है कि जहां रंग होगा...मिठास होगी, आनन्द होगा लोग खुदबखुद वहाँ चले जायेंगे.

ऐसा नहीं कि कड़वी, निष्ठुर एवं अरुचिकर परम्पराओं एवं त्योहारों पर भीड़ नहीं लगती.... खूब लगती है लेकिन सिर्फ उनकी जो उस जंजीर में कैद हैं, विवश हैं, जिनके लिए न मानने एवं तर्क करने की गुंजाइश नहीं और हाँ उनके लिए भी जो नशे में हैं... भले कड़वी है लेकिन नशा तो करती है॥

रिवेश प्रताप सिंह

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