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व्यंग ही व्यंग

कोई आज हामिद से पूछे की मौत के पिंजरे से निकलकर अपनी माँ से लिपट जाना, कैसा होता है?

कोई आज हामिद से पूछे की मौत के पिंजरे से निकलकर अपनी माँ से लिपट जाना, कैसा होता है?
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हामिद अंसारी के भारत की सरज़मीं पर वापसीे की खबर और विडियो बहुत भावुक करने वाला है। कोई मौत के शिकंजे से छूटकर अपनी माँ के आंचल में छुप जाये तो उस अहसास को शब्दों में बयाँ करना न तो हामिद के वश का है और न ही किसी दूसरे के। उनके उखड़ते शब्द और आँसुओं के बीच की रिक्तता को, हम सिर्फ अपनी संवेदनशीलता से भरकर समझ और महसूस कर सकते हैं।

हामिद ने अपने विडियो में कहा कि माँ के जज्बात को सिर्फ एक माँ ही समझ सकती है। हामिद की माँ के दिल में हामिद के जीवन की चिन्ता ने इतने गहरे तक जख्मी और भयभीत किया कि आज हामिद की मौजूदगी भी उनकी माँ के आसूं रोक पाने में नाकामयाब हैं। माँ को अब भी यकीं नहीं कि वो छह वर्ष का बुरा ख्वाब बीत गया। एक सुहानी सुबह में हामिद उनकी गोद में सिर छुपाकर बैठा है।

यदि आपको कुछ देखना है तो इस पूरे छह वर्ष के सफर में, मुहब्बत और नफरत की इम्तेहां देखिये। हामिद अपनी मुहब्बत को हासिल करने के लिये सरहद लांघ गये। वहां छह वर्ष उन्होंने नफरतों का इम्तेहां देखा। जब अपने वतन लौटे तो सरजमीं पर अपना पहला कदम रखते ही महसूस किये होंगे कि अपने सरजमीं पर कितने महफूज़ हैं वो। शायद अपनी माशूका से मिलकर इतना खुशी न होती जितनी अपनी सरजमीं को चूमकर। सिर्फ एक ही पल में उनका सारा डर, थकान, अंधेरा वतन की मिट्टी ने उनसे छीनकर उन्हें उनकी माँ के हवाले कर दिया। हामिद छह वर्ष बाद जब अपनी माँ से लिपटकर उनकी सांसों की छटपटाहट को सुना और महसूस किया होगा तब उन्हें एहसास हुआ होगा कि मुहब्बत की हद क्या होती है।

कोई आज हामिद से पूछे की मौत के पिंजरे से निकलकर अपनी माँ से लिपट जाना, कैसा होता है? उनसे कोई पूछे! कितना सुरक्षित, कितना जीवनदायी है माँ से लिपटना... माँ को चूमकर अपने हर दर्द मिटा लेना...चाहें वो मां हो या धरती माँ।

मैं हामिद का विडियो देखते वक्त लगातार अपने आँसुओं को पोछता रहा। उस वक्त मुझे याद ही न रहा कि 'हामिद' वापस लौट हैं या 'हरेराम', उनकी माँ 'फौजिया' रो रहीं हैं या निर्मला. पता नहीं क्यों, मैं इतनी निष्ठुरता से विडियो नहीं देख पाया कि मुझे इस विडियो को देखकर कोई प्रतिक्रिया नहीं करनी। न जाने कैसे मैं 'समानुभूति' का शिकार हो गया। पता नहीं कब मुझे लगने लगा कि मैने वतन वापसी की है और मेरी मां मुझसे लिपटकर रो रहीं हों।

सच कहूँ तो जब तक मेरे भीतर 'समानुभूति' जीवित है तभी तक मैं खुद को इंसान कहने का अधिकारी भी समझूंगा क्योंकि यह समानुभूति ही है जो दूसरे के माँ के दर्द को अपनी माँ के दर्द जैसा महसूस करे। वो यह समझ सके कि किसी का बेटा खोने पर उसकी मां कैसे पागल हो जाती है कैसे वो एक-एक पल आंसुओं में डूबकर काटती है। मैं खुद अपने भीतर वैसा ही महसूस करूँ जैसा हामिद या कोई दूसरा अपने सरजमीं को चूमकर किया होगा।

हमें सबके प्रति समानुभूति रखनी होगी सिर्फ सहानुभूति रखना थोड़ा कमतर है. हम किसी के दर्द और तकलीफ़ को महसूस कर लें तो यकीनन बहुत कुछ बदल जायेगा।

रिवेश प्रताप सिंह

गोरखपुर

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