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व्यंग ही व्यंग

हुजूर! माई-बाप! यह हिस्से का बंटवारा घर के अंदर ही फरिया लीजिये

हुजूर! माई-बाप! यह हिस्से का बंटवारा घर के अंदर ही फरिया लीजिये
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जज साहेब कह रहे हैं कि न्यायपालिका खतरे में है। वे हाकिम हैं, हुजूर हैं, माई-बाप हैं। कह रहे हैं तो सचमुच न्यायपालिका संकट में ही होगी। मैं लोकतंत्र का एक अदना सा दास हूँ, मेरी इतनी सामर्थ्य कहाँ जो उनकी बात को काट सकूं। मुझे बस एक बात समझ में नहीं आती, कि यह लोकतंत्र तब खतरे में क्यों नहीं आया था जब निर्भया का अति-क्रूर हत्यारा अफ़रोज़ मुस्कुरा कर कचहरी से निकल रहा था। न्यायपालिका क्या तब संकट में नहीं आयी थी जब सिक्ख दंगो के सारे आरोपी मुस्कुराते हुए बरी हो गए थे? यह न्यायपालिका तब संकट में क्यों नहीं आयी जब टू-जी घोटाले के सभी आरोपी साक्ष्य के अभाव में छूट कर जश्न मना रहे थे? संसद में सरेआम नोट उड़ाने वाले लोगों को जब यह न्यायपालिका डांट तक नहीं पाई, तब क्या उसके अस्तित्व पर संकट नहीं था? यह न्यायपालिका तब संकट में क्यों नहीं आयी जब उसकी नाक के नीचे देश का एक प्रतिष्टित नेता जज बनाने के नाम पर किसी महिला शोषण करता पकड़ा गया? जिस न्यायपालिका में इस तरह जज बनते हों, उसके लिए क्या किसी दूसरे संकट की आवश्यकता है?
आखिर न्यायपालिका के लिए यह संकट का विषय क्यों नहीं है कि वह सौ वर्षों में भी अयोध्या विवाद पर न्याय नहीं दे पाई? न्यायपालिका के लिए यह संकट का विषय क्यों नहीं कि वह सौ सौ मुकदमों के बाद भी अहमद बुखारी को छू तक नहीं सकी? मुम्बई में रोज ही बिहार और उत्तर प्रदेश के मजदूरों को प्रताड़ित करने और उनके विरुद्ध जहर उगलने वाले राज ठाकरे को छू भी नहीं पाने वाली न्यायपालिका को अब संकट क्यों नजर आ रहा है? क्या सिर्फ इस लिए कि साहबों की आपसी सेटिंग में कुछ गड़बड़ी आ गयी?
जज साहब! कुर्सी से उतर कर तनिक जमीन निहारिये, आप लोकतंत्र के सबसे कमजोर खम्भे का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। अपने पहले उपन्यास "सेवासदन" में प्रेमचंद जी मजाक उड़ाते हुए लिखते हैं- "धर्मात्मा वेश्या? अहा!, ईमानदार न्यायधीश? अहा!"। सौ वर्ष बीत गए, पर प्रेमचंद से लेकर सर्वेश तिवारी श्रीमुख तक कुछ नहीं बदला। आज एक क्षण के लिए किसी वेश्या के प्रेम पर विश्वास कर भी लिया जाय, पर आपकी ब्यवस्था की न्यायप्रियता पर विश्वास नहीं जमता। दिल्ली के वातानुकूलित कमरों से बाहर निकल कर देखते तो आपको पता चलता, गांव देहात का एक गरीब आदमी आपके न्यायालय से ज्यादा एक क्रिमिनल पर भरोसा करता है। एक क्रिमिनल तो उसको न्याय दिला देता है, पर आपकी न्याय व्यवस्था किसी को न्याय नहीं दिला पाती। शहर की गोष्ठियों में कभी कभी एक विमर्श छिड़ता है कि लोग आखिर अपराधियों से साथ खड़े क्यों होते हैं। उसका एकमात्र उत्तर यही है कि इतनी कमजोर न्यायपालिका वाले देश में आम लोगों को अपराधियों से ही न्याय की उम्मीद है। ठीक से देखें तो अपराधियों की बढ़ती शक्ति के लिए पूरी तरह से आपकी यह जर्जर न्यायपालिका ही जिम्मेवार है साहेब, आपकी दुकान में घटतौली इतनी बढ़ गयी कि लोगों को दूसरी दुकान ढूंढनी पड़ी।
कभी कभी हम सब कहते हैं कि देश के नेता बड़े बेईमान हैं, भ्रष्ट हैं, नाकारा हैं, पर एक सच यह भी है कि बिपत्ति के समय सहारे के लिए एक गरीब को कोई न कोई लोकल नेता जरूर मिल जाता है। भले वह वोट के लालच में ही आये, पर किसी न किसी पार्टी का नेता जरूर साथ खड़ा हो जाता है। दूसरा सच यह है कि बिना पैसे के गरीब को कचहरी में प्रवेश तक नहीं मिलता, और यही आपकी न्याय व्यवस्था का सबसे बड़ा सच है।
हुजूर! माई-बाप! यह हिस्से का बंटवारा घर के अंदर ही फरिया लीजिये, बाहर आ कर जनता को मूर्ख बनाने का प्रयास बेकार है। अधिक से अधिक दो प्रतिशत लोग आपकी नौटंकी पर पक्ष-विपक्ष में बंट कर विमर्श छेड़ेंगे, शेष अठानवे प्रतिशत लोगों के लिए आप इस लायक भी नहीं कि वे आपके सम्बंध में सोचें।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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