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व्यंग ही व्यंग

सूर पतित को बेग उबारो...आलोक पाण्डेय

सूर पतित को बेग उबारो...आलोक पाण्डेय
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आजकल बौद्धिक दंगाग्रस्त हूँ, बौद्धिक दंगाग्रस्त मने एक विचार आता है और विचारों का रेला भगदड़ मचाने लगता है, अब जजे साहबों को लीजिए इनका एकेडमिक बैकग्राउंड जब देखता हूँ तो दिखता है वो आवारा लड़का जो हर प्रकार से निकम्मा था, न स्कूल आता था, न टीचरों की इज्जत करता था, मेज पर छुरा गाड़ परीक्षा देता था और जब कुछ कर नहीं सका तो एलेलबी कर लिया और कमाने धमाने के लिए लगा कचहरियों में दलाली करने, सताए हुए न्याय के लिए तड़पते रहे आजतक, गुंडई की दलील न्यायालय की पहचान बन कर उग आई। मुकदमों का कारोबार कुछ ऐसा चल निकला कि जिंदा तक जिंदा होने की दलील जुटाने लगे और न्याय भी क्या जबरदस्त मिला, जिला कोर्ट से फाँसी, हाइकोर्ट से वहीं आजीवन कारावास काटी और सुप्रीम कोर्ट तक जाते जाते वही सजा बस खाँसी ही खाँसी, जिन्होंने मचा रखी है न्याय की ऐसी हाँसी, ये न्यायमूर्ति वे ही हैं जो हर तरह से आवारा, निकम्मे हैं जिन्हें अनुभव है कम से कम दस साल की दलाली का, हाइकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट से और बने हैं जज गुणा गणित से।
इन पर कुछ भी बोलना कंटेंप्ट आॅफ द कोर्ट मने न्यायालय की अवमानना है, आँखो पर पट्टा बाँधे ये लम्पट, आकंठ, घूसखोर, दुराचारी, व्यभिचारी, दलाल, वकील और उससे बने जज, न्याय उसको ही देते रहे हैं आजतक जो इनके जैसा है।
मेरी नजर में सभ्य और सज्जन तो वह है जो लुट जाए, कट पिट मर जाए पर भारतीय न्यायालय में न जाए।
न्यायलय में आप गुहार तो लगा के देखिए कि "इसने मुझको मारा" फिर पूरा का पूरा महकमा देखिए कैसे लपट जाता है यह सिद्ध करने में कि कुछ भी हो इस "इसने" तो नहीं ही मारा और यह जो "मुझको" है पागल है, अंधा है, क्योंकि इस "मुझको" की पत्नी इसे हमेशा पागल और पिता अंधा ही कहते रहे हैं।
जो मेरे मित्र इस क्षेत्र से हैं मुझे हृदय से क्षमा कर दें पर आप भी यह अच्छी तरह जानते हैं कि न्यायालय क्या हैं? आपके अधिकांश वकीलों और जजों का गजब का गठजोड़ है। क्या कहीं कोई तोड़ है? सिर्फ साढ़े तीन साल की सजा जबकि चोरियाँ हजार करोड़ है?
याद रखना भारत में भ्रष्टाचार है और उसमें न्यायालय भ्रष्टतम हैं।
समझे यू आर आन्हर?

नमस्कार!
आलोक पाण्डेय
बलिया उत्तरप्रदेश
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