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व्यंग ही व्यंग

सरकार को पोंकहवीं प्रजाति की रक्षा करनी चाहिए

सरकार को पोंकहवीं प्रजाति की रक्षा करनी चाहिए
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कभी कभी अच्छे कार्यों के भी कुछ बुरे प्रभाव होते हैं। जैसे भारत सरकार के स्वच्छता अभियान से भारत की एक अद्भुत प्रजाति के अस्तित्व पर संकट आन खड़ा हुआ है। यह अद्भुत प्रजाति है सांझ-सबेरे सड़क किनारे निपटान करने वाले तुर्रम खानों की। ग्रामीण क्षेत्र में नित्य ही सुबह सुबह हाथ में प्लास्टिक का डिब्बा लिए सड़क की तरफ इनके बढ़ते हुजूम को देख कर लगता है, जैसे किसी नेता का जुलूस निकाला हो, या अलाउद्दीन खिलजी की सेना मेवाड़ जीतने निकली हो।
सच पूछिए तो सड़क किनारे निपटान करना भी एक कला है, इसके लिए भी योग्यता की आवश्यकता होती है। अगर आप सड़क किनारे निपटान करने जा रहे व्यक्ति की गतिविधि का शूक्ष्म अवलोकन करें, तो बड़ा मनोरंजक दृश्य सामने आता है। निपटान का मूड बना चुका व्यक्ति पहले निपटने के लिए जगह का चुनाव ऐसे करता है, जैसे कोई सांसद गोद लेने के लिए गांव का चुनाव कर रहा हो। फिर वह बगुले की तरह इधर उधर ऐसे देखता है, जैसे कोई किरानी घूस लेने के पहले चारो तरफ निहारता है कि कहीं कोई वीडियो न बना रहा हो। यदि कहीं से कोई व्यक्ति आता दिख जाय, तो वह अपनी प्रक्रिया रोक कर केजरीवाल जी की तरह सही समय का इंतजार करता है। इस दौरान उसे आमिर खान की तरह बेचैनी बर्दाश्त करनी पड़ती है, और वह अपने अंदर की असहिष्णुता से त्रस्त हो जाता है। इस समय यदि उसका बस चले तो वह सड़क पर दिख रहे अन्य व्यक्ति को ऐसे फेक दे, जैसे कश्मीर से हिंदुओं को फेंक दिया गया। फिर जब चारो तरफ कोई व्यक्ति न दिखे तो वह कुछ इस अदा से पैजामा सरकाता है जैसे सारी दुनिया उसी की हो।
इसके बाद का दृश्य तो और भी ज्यादा रमणीक और ऊर्जा से भरपूर होता है। भारतीय प्रधानमंत्री आज बुलेट ट्रेन लाने का प्रयास कर रहे हैं, पर यदि आप सड़क पर निपट रहे व्यक्ति को देखें तो आपको लगेगा कि बुलेट ट्रेन की असली तेजी तो इस हरामखोर के पास है। जितना उत्सर्जन एक आम व्यक्ति शौचालय में बैठ कर दस-बीस मिनट में नहीं कर पाता, उतना उत्सर्जन तो एक सड़क का हीरो दो सेकेंड में कर देता है। तड़ तड़ तड़ तड़ कर चलती बुलेट ट्रेन को यदि दिल्ली वाले जज साहेब सुन लेते तो दीवाली के पटाखों के पहले इसी पर बैन लगाते। इस समय सेल्फ लोडेड राइफल से फायर करते व्यक्ति के मुखड़े पर ऐसी शान्ति पसरी होती है, जैसे वह धर्म परिवर्तन करा रहा कोई पादरी हो। वह पीछे से तोप पर सामने से पोप लगता है।
इस पूरी प्रक्रिया का सबसे हाहाकारी क्षण तब आता है जब निपटान के दौरान कोई व्यक्ति उसी सड़क से गुजर जाए। निपट रहा व्यक्ति तब शर्मा कर अपना सर झुका लेता है। उसे इसकी चिंता नहीं होती कि मेरा पूरा पाकिस्तान दिख रहा है, उसे इस बात की खुशी होती है कि चलो नजर तो नहीं मिली। शर्म पिछवाड़े में कहां होती है, वह तो आंख में होती है। खुले पिछवाड़े के साथ आंख चुरा कर शर्माने की यह वामपंथी अदा अन्यत्र दुर्लभ है।
भारत सरकार के स्वच्छता अभियान के कारण यह प्रजाति विलोपन का खतरा झेल रही है, और इस कारण लोगों में रोष भी है। मुद्दों का किल्लत झेल रहा भारत का मुख्य विपक्षी दल बेकार गाली-गलौज की जगह यदि इस प्रजाति को संगठित कर ले, तो वह बिना मेहनत के 2019 में सरकार बना सकता है। इनको संगठित करने का एक लाभ यह भी है कि यह विशुद्ध सेकुलर कार्य होगा, क्योंकि सड़क किनारे झाड़ा फिरने वाले लोग हर धर्म, हर जाति के हैं। इस प्रकार विपक्षी दल इस सम्प्रदाय को एकत्र भी कर लेंगे, और उनपर साम्प्रदायिक होने का आरोप भी नहीं लगेगा।
वैसे तो अब यह सम्प्रदाय समाप्त होने वाला है, पर इस प्रजाति की रक्षा के लिए एक उम्मीद की किरण भी दिख रही है। स्वच्छता अभियान चुकी मोदी का अभियान है, इसलिए कुछ योद्धा लोग इसका विरोध भी कर रहे हैं। ये वे लोग है जिनके घर में शौचालय तो है, पर इस अभियान को फेल करने के लिए वे सड़क पर निपटना शुरू कर चुके हैं। हालांकि सड़क किनारे निपटने की आवश्यक योग्यता न होने के कारण, देर तक कुंखने के बाद भी वे एक मुर्गी जितना ही उत्सर्जन कर पाते हैं, पर उनकी लगन उनको मार्क्स और स्टालिन जैसा क्रांतिकारी सिद्ध करती है।
मेरे एक विदेशी मित्र हैं। घोर मोदी विरोधी। कोई मोदी का नाम भी ले ले तो उसे तपाक से गाली देने लगते हैं। उन्होंने स्वच्छता अभियान का विरोध करने के लिए वहीं दुब्बई में सड़क किनारे निपटान करना प्रारम्भ कर दिया। फिर क्या था, एक दिन पुलिस ने पकड़ लिया। बेचारे की इतनी सेवा हुई कि पूछिये मत, हरामखोर पुलिस वाला डाँटता था अरबी में, और पीटता था फ़ारसी में। बेचारे की दशा यह हो गयी कि दस दिनों तक शौचालय के अंदर निपटने में भी डरते थे।
मेरे विदेशी मित्र भले हार मान लें, पर यहां के योद्धा हार नहीं मानेंगे। वे लड़ेंगे अपने उत्सर्जन के अधिकार के लिए। बात सही भी है। जैसे मुह को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, वैसे ही पिछवाड़े को भी होनी चाहिए। व्यक्ति यदि कहीं भी बोल सकता है, तो कहीं भी पोंक क्यों नही सकता? मैं बुद्धिजीवी होने के नाते भारत के सभी सड़क छाप पोंकहवों का समर्थन करता हूँ।
सरकार को भी स्वच्छता अभियान समाप्त कर भारत की पोंकहवीं प्रजाति की रक्षा करनी चाहिए।
लाल सलाम

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार
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