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धाकड़ व्यंग : 'प्रसिद्ध', 'उदारवादी', 'निष्पक्ष' 'महिला' 'पत्रकार' की हत्या

धाकड़ व्यंग :  प्रसिद्ध, उदारवादी, निष्पक्ष महिला पत्रकार की हत्या
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देश के किसी कोने में एक 'प्रसिद्ध', 'उदारवादी', 'निष्पक्ष' 'महिला' 'पत्रकार' की हत्या हो जाती है और देश दुनिया में तहलका मच जाता है। देश के माहौल को असहिष्णु और धार्मिक उन्माद से ग्रस्त चित्रित कर दिया जाता है। मेन स्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक इतना शोर कि और कुछ भी सुनाई ही नहीं देता।
अभी 4 दिन पहले किसी दलित लड़की ने नीट की वजह से आत्महत्या कर ली थी। गिद्ध वहाँ भी पहुंचे थे, पर ये वाला मामला ज्यादा कैची है, इसने सोये हुए, चौथे स्तम्भ का दम्भ भरने वाले शेरों को फिर से जगा दिया है।
पहली लाइन में दिए गए विशेषणों की बात करें तो ये इतनी प्रसिद्ध थी कि इनकी हत्या से पहले हममें से शायद ही किसी ने इनका नाम सुना हो। उधर कन्नड़ क्षेत्र की बात नहीं कर रहा, पर हिंदी पट्टी वाले तो नहीं ही जानते थे। खैर...
दावा है कि ये उदारवादी थी। इतनी कि बहुसंख्यक जनता की धार्मिक भावनाओं को बड़ी ही उदारता से बार-बार आहत करती थी। खुलेतौर पर मुजाहिरा करती कि गौमांस बड़ा टेस्टी होता है, लेकिन क्या करूँ, समय ही नहीं वरना खाने जरूर आती। और भी है कि 'हैप्पी ओणम' के शुभकामना संदेश के साथ 'स्वच्छ भारत अभियान' के तर्ज पर 'स्वच्छ केरलम' का संदेश देती हैं जिसमें रेखाचित्र/कार्टून के माध्यम से ये चित्रित होता कि विशाल बलिष्ठ 'दलित' (शायद) एक भुनगे से 'ब्राह्मण' को चुटकी में उठाये कचरे के डब्बे में डालने को तत्पर है। ये शिखा/जनेऊधारी ब्राह्मणों के साथ इनकी उदारता ही तो है, अन्यथा उसे जलाते/पकाते हुए भी तो दिखा सकती थी।

इसी में 'निष्पक्ष' को भी पकड़ लीजिये कि इनकी निष्पक्षता हिन्दू और हिंदुत्व की कट्टरता (?) के लिए रिजर्व थी। किसी अन्य धर्म की कट्टरता इन्हें कभी नहीं दिखी। इनका और कई अन्यों का मानना था/है कि हिन्दू आवश्यक तौर पर कट्टर होता है और ग़ैरहिन्दू मजलूम।

निष्पक्षता वाले मुद्दे पर कम से कम एक बात तो है कि इन्होंने केवल बीजेपी का ही नहीं, बल्कि कांग्रेस (उसके नेताओं) का भी विरोध किया है। इनकी एक बात ये भी सही लगी कि इन्होंने कुछ गंभीर प्रयास जरूर किये थे कि नक्सली, हिंसा छोड़ मुख्यधारा में शामिल हो जाएं।

पत्रकार का तो अब ऐसा है कि कायदे से देखें तो अब कोई पत्रकार नहीं है। अपनी विचारधारा को थोपना, उसे प्रसारित प्रचारित करना, ग्लोरिफाई करना क्या निष्पक्ष पत्रकार का काम है? अगर है तो फिर लीडरों का, नेताओ का काम क्या बचा। यहाँ तो हर पत्रकार ही मार्क्स, लेनिन, चे गुआरा, लीन पियाओ बना हुआ है।

बची 'महिला', तो ये हर जगह यदि महिला नामक आवरण के पीछे ही छुपाना है तो फिर समानता की बात बेमानी हो जाती है। सिर्फ महिला हो जाने से किसी को किसी प्रकार की बढ़त, या सहानुभूति (उदासीनता) या सम्मान (अपमान) क्यों मिले।
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एक बड़े पत्रकार ये कहते हुए सुनाई दिए कि एक लड़का हुतात्मा और उनके समर्थकों को कुछ वाहियात सा कह रहा है और उसे मोदी तथा मंत्रीगण सोशल मीडिया पर फॉलो करते हैं। वो ये नहीं बताते कि 'वो शब्द' कहने की वजह से फॉलो करने लगे हैं या इस घटना के बहुत पहले से? जाहिर है कि पहले से, तो क्या कोई PM या उसका मंत्री भविष्यदृष्टा है जो पहले से ही अनफॉलो करके रखे।

हालांकि ये शब्द निंदनीय है। किसी के लिए भी नहीं बोला जाना चाहिए, पर जो लोग 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' के नाम पर 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' उद्घोषित करते हों और ऐसे 'स्वतंत्र' लोगों को जो अपना पुत्र मानती हों, उनके लिए किसी और की 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' के तहत कोई संज्ञा दे दिया जाना किस संतुलित आधार पर गलत हो जाता है?

मैंने पता करना चाहा, ढूंढवाया कि कहीं कोई ट्वीट मिल जाये जिसमें केरल में होने वाले कैडर-वार में (इनकी अपनी विचारधारा के विरोधी) किसी व्यक्ति की निर्मम हत्या पर उन्होंने कुछ बोला हो, उन सीआरपीएफ जवानों की हत्याओं पर मनाई जाने वाली खुशी का इन्होंने विरोध किया हो। जैसी उम्मीद थी, नाकामी ही मिली।

अस्तु, हत्या गलत है। जो बेमतलब खुशी मनाई गई, वो गलत है। दिल से ये बात मानता हूँ, पर मैं केवल अपने लिए जिम्मेदार हूँ। मुझे जश्न मनाने वालों के खिलाफ कुछ नहीं बोलना। जब बिना किसी जांच के घटना के बस पंद्रह मिनट बाद ही इसे 'हिंदुओं' का काम बताया जाएगा तो इसके अतिरिक्त और किस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद की जा सकती है।

मुझे किसी की भी मृत्यु से कभी कोई खुशी नहीं हो सकती, जब तक कि वो कोई प्रत्यक्ष हिंसक-युद्ध का कोई दुश्मन व्यक्ति ना हो। किसी सिविलियन की हत्या, चाहे वो किसी भी विचारधारा का हो, किसी भी तर्क से जायज नहीं। कोई अपने विचार रखे तो उसका विरोध आप अपने तर्कों से ही कर सकते हैं। शब्दों की लड़ाई में गोलियों का क्या काम? वैसे ही जैसे गोलियों की लड़ाई में शब्दों का क्या काम? मुझे शिकायत है इस तरफ के कलमगारों से, ये चुप रह जाते हैं। किस्से कहानियों में दिल जिगर चीर कर रख देने वाले महारथी अपनी विचारधारा पर बोलने का साहस नहीं रखते। कला, साहित्य, थियेटर हर क्षेत्र के वामपंथी पूरी ताकत से अपनी बात रखते हैं पर दक्षिणपंथी नपुंसक-नैतिकता को बस ढोता रहता है। सभी जगह स्वीकार्य हो जाने की लालसा उसे कायराना चुप्पी ओढ़ने को मजबूर कर देती है।

हालांकि उनका अंतिम संस्कार लिंगायत परिपाटी के अनुसार किया गया है, पर चूंकि वामपंथी ईश्वर को नहीं मानते, आत्मा को नहीं मानते तो किसकी शांति की प्रार्थना किससे करूँ?

बाकी,
मस्त रहें, मर्यादित रहें, महादेव सबका भला करें।
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अजीत प्रताप सिंह
बनारस
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