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व्यंग ही व्यंग

ये लड़ाई है लचीला आधुनिक युग का संविधानऔर एक कठोर कबीलाई युग का बर्बर विधान के बीच

ये लड़ाई है लचीला आधुनिक युग का संविधानऔर एक कठोर कबीलाई युग का बर्बर विधान के बीच
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फिल्म 'बाहुबली-१' के युद्ध शुरू होने के दृश्य से ठीक पहले आपने परेशान कटप्पा को जरूर देखा होगा। वो हैरान था कि इन हथियारों से हमलावरों का मुकाबला कैसे करेंगे ? ये तो किले पर हमला करने के हथियार हैं ! लड़ाई की जगह, शत्रु और युद्ध का स्वरुप बदलने पर हथियार कैसे और क्यों बदलने पड़ते हैं इसका एक अच्छा उदाहरण बड़े शहरों की सड़क पर हर रोज़ नजर आता है।

हर ट्रैफिक सिग्नल पर रुकते वक्त स्कूटी सवार लड़कियां दोनों पैर जमीन पर टिका देती हैं। बाइक सवार पुरुष बाएं पैर से गियर न्यूट्रल करता, दाहिने से ब्रेक दबा रहा होता है। वो गाड़ी को न्यूट्रल कर के भी सिर्फ बायाँ पैर जमीन पर रखता है। दाहिनी तरफ पैर बाहर होने के कारण वहां आकर बाइक रोकने पर पैर टिकाने में दिक्कत होती है। तो बाइक वाला कभी कभी दोनों पैर निकालने वाली को (मन ही मन) फालतू जगह घेरने के लिए गालियाँ भी देता है। गालियों की गिनती और भारीपन स्कूटी सवार के सौन्दर्य का इन्वर्सली प्रोपोर्श्नल होता है।

एक ही किस्म की सड़क पर स्कूटी और बाइक दो अलग अलग किस्म के वाहन हैं। भीड़ वाली जगहों पर स्कूटी में गियर नहीं बदलना पड़ता, वो वजन में भी कम होती है। अगर एक जैसे चालक हों तो भीड़ भरी जगह पर सवा सौ सी.सी. की स्कूटी आसानी से ढाई सौ सी.सी. वाले पल्सर को पीछे छोड़ देगी। मगर स्कूटी पांच फुट छह इंच के कद को ध्यान में रख कर बनाई गई होती है, उसे चलाना पुरुषों के लिए बहुत आरामदेह नहीं होता। इसलिए अगर खुली सड़क, हाईवे पर स्कूटी से किसी बाइक का मुकाबला करने निकलेंगे तो हारने की संभावना बढ़ जाती है। चालाक का स्टैमिना बहुत ज्यादा ना हो तो बराबर की बजाज प्लेटीना का मुकाबला भी किसी स्कूटी से मुमकिन नहीं।

यही चीज़ आपको कश्मीरी पत्थरबाजी में भी दिख जाएगी। बन्दूकबाजों का मुकाबला भला पत्थरबाजी से कैसे किया जा सकता है ? पत्थर का गोलियों से कोई जोड़ नहीं, लेकिन फिर भी ऐसे वाकये हुए हैं जब पत्थरबाजों के कारण, सेना की घेराबंदी से आतंकवादी निकल भागे हों। ये संविधान और शरियत के मुकाबले जैसा है। एक तरफ लचीला आधुनिक युग का संविधान है जिसे सत्तर साल में सौ बार सुधारना मुमकिन था। दूसरी तरफ एक कठोर कबीलाई युग का बर्बर विधान जिसमें हज़ार साल में एक अक्षर भी नहीं बदला। (नहीं ! इस्लाम नाम के मजहब और उसकी किताब की उम्र बराबर नहीं है। इस्लामिक कानून इस्लाम से कुछ सौ साल छोटे हैं।)

किस्मत से स्कूटी और बाइक वाले मामले की ही तरह यहाँ भी लड़ाई की जगह बदल जाने का असर हुआ। भारत में जहाँ ये जंग चल रही थी वहां के बहुसंख्यक पुरुष "यत्र नार्यस्यु पूज्यन्ते" जैसा कुछ सुनते बड़े हुए हैं। यहाँ स्त्री एक कबीलाई कानून से अकेले नहीं लड़ रही थी। उसकी आजादी पर हमला करने वालों को बहुसंख्यक समुदाय की भारी पत्थरबाजी का भी सामना करना पड़ रहा था। कहीं और इसी लड़ाई में शायद सदीयों का वक्त लगता। भारत में शाहबानो केस के मोचे से शुरू हुईं जंग में पहली फ़तह हसिल हुईं है। जो मुकदमा जीत कर आयीं उनके साथ साथ पत्थरबाजों को भी बधाई तो बनती ही।

कॉम रेडी नारे, 'ये तो बस अंगड़ाई है, आगे बहुत लड़ाई है' की याद आ गई। बाकी जीत हुई है तो मुबारकबाद में 'गले मिलना' भी बनता ही है !
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