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भोजपुरी कहानिया

भचकन बाबा.... रिवेश प्रताप सिंह

भचकन बाबा.... रिवेश प्रताप सिंह
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दोनों पैरों की लम्बाई में दू सूत के अन्तर ने गोधन नाम को बदलकर कब भचकन कर दिया, यह गोधन खुद भी नहीं जान पाये। रोज अखाड़ा में पहलवानों को 'वाह ..पठ्ठे वाह!' ललकारने और अपने शरीर पर माटी पोत कर चार ठो दण्ड बैठक मारने से भचकन कब "भचकन पहलवान" का दर्जा पा लिये यह भी एक रहस्य ही था। भचकन निठल्लों के शिरोमणि थे। पूरे दिन खटिया पर ओल्हरे रहना और सांझ के बेला में चौराहे पर पान कतरना , यही काम था भचकन का।

गांव-जवार के लोग भचकन को खलिहर समझते थे लेकिन सच्चाई यह नहीं थी । दरअसल भचकन एक रात्रिचर प्राणी थे। वह अपने साल भर की जुटाई गई ऊर्जा केवल तीन-चार अमौसा के निविड़ अंधकार में खर्च करके महीनों का प्रबन्ध कर लेते। काली रातों में गांव से दस-पांच गांव बराकर किसी मालदार घर में सेंध लगाना भचकन पहलवान का मास्टर मूव हुआ करता था। भचकन के इस गुण की उनके घर के अलावा किसी और को कानोंकान खबर न थी। बीस किलोमीटर की रेंज में भचकन पच्चीसों सेंध मार चुके थे लेकिन मजाल थी कि कभी भचकन किसी के चंगुल में फंसे हों।

समय हमेशा समतल नहीं होता। एक बार भचकन का दिन (आई मीन नाइट) खराब था । सेंध काटने वालों के पांवों का तंत्रिका तंत्र अति विकसित होता है । उनके पांव स्पर्श , श्रवण , गंध समेत छठी इन्द्रिय का भी कार्य करते हैं। उस्ताद सेंधमार पहला पैर सेंध में डालकर उससे घर के निवासियों , बक्सों , गहनों और लाठियों तक का अनुमान लगा लेते हैं । सेंध मारकर भचकन अभी दो सूत लम्बा वाला पांव डालकर परिस्थिति की समीक्षा ही कर रहे थे तभी एक कोई दूसरा रात्रिचर उनका बड़का वाला पैर छान लिया और लगा चोकरने...! दरअसल हुआ कुछ यूं कि घर में जवान हुये लड़के का नया नया ब्याह हुआ था । गाँवो में तब नये दुल्हे शयनकक्ष में बहुत संकोच में अर्द्धरात्रि को घुसते थे । बावजूद इतनी सावधानी के दूल्हे के कान कुत्ते की तरह आसपास के कमरों-दालान-ओसारों की हर आहट पर चौकन्ने हुआ करते थे । नौजवान दूल्हे ने भचकन द्वारा खंती चलाने से उत्पन्न वो अल्ट्रासोनिक ध्वनि भी सुन ली , जिसे जवार के कुत्ते तक नही भांप पाये थे । वो अपने हाथों पर खूब सारी धूल पोतकर चौकन्ना बैठा था । भचकन पहली बार फंसे, लेकिन बहुत बुरी तरह..हालांकि मिशन पर निकलने से पहले उन्होंने अपने बदन पर डेढ़ सेर कड़वा तेल मला था लेकिन नौजवान आधा पाव धूल हथेली में पोतकर भारी पड़ गया । भचकन के प्राण सूख गये, पैर हलहल- हलहल कांपने लगे। पांच मिनट के भीतर टार्च के प्रकाश में केवल लाठियां ही लाठियां चमक रही थीं । चारों तरफ से जितनी लाठियों ने उन्हें घेर रखा था यदि भचकन को वही बेचने को मिल जातीं तब भी महीना दो महीना आराम से निकल जाता। लेकिन लाठियां तो उनकी मरम्मत के लिये निकाली गई थी। भचकन पेड़ में बांधे गये,इतना पिटाये कि जो बैल गोरू उनको पिटते हुये लाइव देख गये, वो पगुरी छोड़कर दीवार में डरके मारे सट गये। पिटाई के दौरान भचकन को दो बार ऐसा लगा कि उनका यम से साक्षात्कार हो रहा है। किस्मत ही थी कि जान बच गई लेकिन जब घर लौटे तो बेसुध! अनगिनत लाठियों की गर्मजोशी भरी आवभगत उनकी खाल पर लकीर बना गई।

घर में कोहराम मच गया मेहरारू तो बूझ गई कि भचकन, अबकी सेंधमारी में भचक गये लेकिन कहें का..! गांव में यह बात फैलती कि सेंधमारी में लठियाये गये हैं तो और बदनामी...! उधर भचकन जोर-जोर कहरने लगे उनको महसूस हो रहा था कि वो अबतक भी पिटा रहे हैं। आवाज़ इतनी तेज कि गांव वालों के जुटने का डर हो गया। जब भचकन बहू को लगा कि पोल खुल जायेगी तो वो खेल कर गयीं। वह भचकन को कमरे में बन्द करके खिड़की खोल दीं और अपने चुपचाप बैठ गयीं। दस मिनट के अन्दर गांव वालों का जुटान हो गया। गांव वाले पूछे कि का बात है "भचकन काहें इतना चिल्ला और कहंर रहे हैं?" तो भचकन बहू लापरवाही से बोलीं कि " अरे इ त इनकर रोज क काम बा । आज तनीं ढेर पिटात हवें।"

गांव वाले चौंककर पूछे "के एतना पीटत बा?"

भचकन बहू ने बताया कि 'यह इनके और इनके भगवान जी के बीच का रोज का झगड़ा है। इ रोज भगवान से अझुराते हैं और भगवान जी रोज दो लाठी लगाते हैं। आज पिछले दो घंटे से भगवान जी का पैर पकड़कर जिद्द ठाने हैं कि हमको भी साथ लेकर चलिए। भगवान जी पहले समझाये हैं लेकिन जब ढेर छरियाने लगे तो भगवान जी पीटने लगे। दो घंटे में दो सौ लाठी खाने के बाद अब जाके उनका गोड़ छोड़े हैं। भगवान जी अभिये गये हैं तभी से इ रो और कहंर रहे हैं!'

पूरा गांव अचंभित कि 'इ खलिहरवा एतना पहुंचा है कि भगवान से बाज रहा है !' पूरा गांव में हल्ला कि भचकन पहलवान भगवान के हाथे दू सौ लाठी खाये। भिन्नहीं भर गांवे भर के महरारू भचकन के दुआर पर नूरानी का तेल लेकर जुट गयीं कि 'एहीं बहाने भगवान जी क लाठी क निशान छूवें क मिली।' सुबह जब भचकन को होश आया तो भचकन बहू सब ड्रामा समझा कर उनको बाहर निकालीं। भचकन रातोंरात परमात्मा के दूत जिब्राइल बन गये। गांव वाले डरने लगे। लोग पूछे लगे कि 'भगवान कईसन बानं, का कहत रहलं, उनकर लाठियां कइसन होले। मारे लं त कइसन लगेला। फिर कहिया पीटिहं रऊरा के? दू लाठी हमहूँ के मरवा दीं न!' एतना पूछने पर भचकन आंख बंद करके मुस्की झार दें तो गांव वाले समझें कि भचकन भगवान से मिले निकल गये। लोग जयकार करने लगते। और एही किस्सा-कहानी और कहरने में कब भचकन की दाढी जामकर चार इंच की हो गई और कैसे भचकन पहलवान से "भचकन बाबा" बन गये पते नहीं चला। भचकन पीढ़ा पर बैठने लगे,लम्बी-लम्बी सांस खीचे लगे, बेमतलब मुस्काये और गुस्साये लगे। कुटी बन गई, चार जनीं रोज गोड़ दबाने लगे। दूध, दही मलाई चंदा सब चलकर कुटी में आने लगा, तोंद निकल गया, भचकन और भचकने लगे। बात गांव के पेट से निकलकर बीस किलोमीटर की त्रिज्या तक फैली दूर- गांव गिरांव से जनता चरण छूने आने लगी।

लेकिन भचकन के मन में यह चिन्ता जरूर थी की यश फैलते-फैलते इतना न फैल जाये कि उस गांव से मनई आ टपकें जहाँ वो लठियाये गये थे।

एक दिन संयोग कुछ ठीक नहीं था। बाबा अपनी मंडली बैठाकर भक्त-भगवान की वार्ता झार रहे थे तभी दो साइकिल खड़खड़ाते हुए कुटिया पर रुकी दोनों के कैरियर पर दो मेहरारु और सीट पर दो मरद.. एक मेहरारू दौड़ के बाबा क पैर पकड़ने लपकी लेकिन दूसरी ठिठक गई और चौंक कर बोली "अरे इ त लगड़ा चोरवा है इ न !? पिटाइल रहल सेन्वां में!" पूरे कुटी में सन्नाटा पसर गया। भचकन बाबा गरजे "कौने क मेहरारु हवं रे ई?" तब तक एक साइकिल सवार बांह से कुर्ता चढ़ा कर गरियाते हुए बोला "ए लंगड़ू ! चिन्हत नाहीं हव हमके? जब तूं सेंधव काट के हेलत रहलs त हमहीं तुहार टांग धईले रहलीं । अरे हमार बाऊजी तोहंके छोड़ईले न होतं त अबले तोहकें मुअले दू बरीस हो गईल होत।"

भचकन बाबा हाथ जोड़ लिये । बोले "परमात्मा रऊरा लोग के इहाँ अइले क का जरुरत रहल!? कहतीं त वहीं आके लाठी खा लेहतीं , कम से कम इज्जतिया त बनल रहत!!"

रिवेश प्रताप सिंह

गोरखपुर

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